Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. एक दिन आचार्य श्री जी ने श्रावकों को दहेज जैसी कुरुतियों को दूर करने का उपदेश देते हुए कहा कि- कन्या पक्ष वाले भी मजबूती से रहें क्योंकि आज लड़के वाले दहेज लेकर एक, दो, तीन कहकर बोली की तरह लड़की को छोड़ देते है। दहेज लेने के बाद भी लोग कहते हैं और लाओ और लाओ नहीं तो घर नहीं आओ। अब यह व्यवसाय हो गया है पर जैन समाज को कम कर देना चाहिए। विवाह के साथ दाम्पत्य जीवन का अर्थ है दोनों एक हो जाना वह दो नहीं रहे एक हो गये हैं। बंध जैसा हो जावें इस प्रकार से सम्बंध होता है। ऊपर से नहीं/ऊपर से पल्ले की गांठ बांधना विवाह नहीं होता है। आज अर्थ की ओर दृष्टि है धर्म की ओर नहीं यह कन्या दोनों कुल को यशवर्धिनी हो यह नहीं देखा जाता। आर्यिका बन जाती है तो वह त्रिलोकवर्धिनी बन जाती है पुराण-कथायें पढ़ ले तो रोमटे खड़े हो जाते हैं। कितना संघर्ष मय जीवन रहा फिर भी नारियाँ दृढ़ संकल्पी बनी रही। आज लेना देना व्यवसाय का रूप हो गया। आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- आज विवाह सम्बंध नहीं बल्कि व्यापार और सौदा होने लगा है। पिता-पुत्र आपस में सलाह करके कन्या पक्ष वालों को धन के लालाच में बातों ही बातों में घुमाते रहते हैं। पिता कहता है- बेटा से बात कर लो और स्वयं ने बेटे से कह दिया कि- कह देना पिता से बात कर लो। बोलियों की तरह धन की मांग बढ़ती ही चली जाती है। कभी-कभी अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि- कई कन्याएँ जल कर मर जाती हैं। तब लगता है कि राम, महावीर के अनुयायी ऐसा क्यों कर रहे हैं? ऐसा करने वालों की धन-सम्पत्ति आगे चलकर उन्हीं को अभिशाप बन जावेगी। आज दोनों पार्टियाँ 5 स्टार होटल में जाने लगी हैं। अपना बेटा एवं कन्या दोनों सुखी रहें ऐसा कुछ करना चाहिए। जब दोनों सुखी रहेंगे तब दहेज की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आचार्य श्री जी ने कहा कि- शादी-विवाह में जो व्यर्थ का धन लुटाते रहते हैं उस धन का यदि गरीबों के विवाह कराने में सदुपयोग करें तो बहुत अच्छा होगा। इससे सधर्मी जनों के प्रति सहयोग एवं वात्सल्य की भावना बनेगी। दान का प्रारूप बनेगा और कहीं कुरीतियाँ नष्ट हो जावेगी। यदि इस धन से एक अस्पताल खुलवाते हैं तो आपका नगर में अच्छा प्रभाव पड़ सकता है एवं कई लोगों का भला भी हो सकता है। यदि दहेज आदि से प्राप्त धन को घर में ही रखें रहोगे तो कोई बहुत बड़े धनवान नहीं बन जाओगे। यदि इस भावना को अच्छा समझते हो तो धन का सदुपयोग करना चाहिए। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- दहेज लेने का अर्थ है दूसरे के हाथों का मैल खाना आप ही लोग कहते हैं कि- धन तो हाथों का मैल है, लेकिन जब तक मन का मैल (लोभ) नहीं छोड़ोगे तब तक हाथों का मैल (दहेज) धन लेना नहीं छूट सकता। एक बात हमेशा याद रखो दहेज कैंसर से भी भयानक रोग है।
  2. आचार्य श्री जी त्याग का उपदेश दे रहे थे कि- राग-द्वेष का त्याग करना ही सच्चा त्याग है। वर्तमान में पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके जो मोक्षमार्ग को अपनाता है, वह अविनश्वर सुख को प्राप्त करता है। पंचेन्द्रिय विषयों में सुख मानना अज्ञान का प्रतीक है। यदि पंचेन्द्रिय के विषयों में एवं संसार में सुख होता तो तीर्थंकर क्यों त्याग करते। इन्हें त्याग कर वैराग्य धारण क्यों करते? इससे सिद्ध होता है कि- संसार में सुख नहीं है। तब किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि महाराज अभी वर्तमान का सुख छोड़कर त्याग अपनाया तो बाद में क्या मिलेगा ? आचार्य श्री जी ने कहा कि- जुआ, लॉटरी में सबसे पहले जेब का पैसा लगाया जाता है। आगे का कोई भरोसा नहीं रहता कई पार्टियाँ तो इस खेल में बर्बाद हो जाती है। यह जानते हुए भी आप लोग जुआ खेलते हैं कुछ मिले या नहीं आगे पीछे कुछ नहीं सोचते लेकिन त्याग के मार्ग में नियम से अनंतगुण फल मिलता है। श्रावक के व्रत पालने वाला ही 16 वें स्वर्ग तक पहुँच जाता है। लॉटरी में एक के हजार मिलते होगें पर त्याग के क्षेत्र में अनंतगुणा मिलता है। दुनिया की कम्पनी, बैंक आदि फेल हो सकती हैं, लेकिन धर्म की बैंक कभी फेल नहीं होती। आचार्य श्री जी ने "आत्मानुशासन" ग्रंथ का उदाहरण देते हुए कहा कि- "तपस्विनः सुखी” तपस्वी साधु ही सुखी है, गृहस्थ तो हमेशा दुःखी रहता है। साधु हमेशा सुखी इसलिए रहता है, क्योंकि उन्हें विश्वास रहता है कि धीरे-धीरे कर्मबंध से छूट रहा हूँ, मोक्षमार्ग पर चल रहा हूँ। एक न एक दिन सच्चा सुख अवश्य प्राप्त होगा। उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे किसान कर्ज लेकर दाना मिट्टी में मिला देता है। इस विश्वास पर कि- फसल आवेगी, थोड़ी मेहनत करो, संतोष रखो फल अवश्य मिलेगा। तपस्वी भी ऐसे ही होते हैं जो वर्तमान पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग कर तपस्या करते हैं। वे साधु महान् वैज्ञानिक हैं जो सत्य की एवं सुख की खोज में लगे रहते हैं। सुखी ही जिनका नाम है। वे है तपस्वी जो कभी भी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ते।
  3. किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- विदेशों में अशांति का कारण क्या है? आचार्य श्री जी ने कहा कि विदेशों में धर्म का अभाव होने से अशांति है, विदेश में एक जीवन में अनेक शादियाँ हो जाती हैं। कभी-कभी तो सुबह शादी होती है और शाम को तलाक हो जाता है। ब्रह्मचर्य शील आदि गुणों का अभाव जिस देश में भी होगा वहाँ अशांति आए बिना रह ही नहीं सकती। यह तो दुर्भाग्य है। कि विदेश के लोग भारत की संस्कृति की ओर लौट रहे हैं और भारतीय लोग विदेशी संस्कृति को अपनाने की होड़ में लगे हुए हैं। अपनी विवाहित स्त्री में संतोष रखना ही श्रावकों का शील व्रत है। इसमें कमी आती है तो घर की व्यवस्था एवं शांति गड़बड़ा जाती है। एक पत्नी के साथ सम्बंध रखना भारत में एक बहुत महत्त्वपूर्ण संस्कार है, इससे जीवन प्रारंभ से लेकर अंत तक सुखमय बीतता है। पत्नी गृहलक्ष्मी के रूप में मानी जाती है, यहाँ नारियों से मातृवत् व्यवहार किया जाता है। धर्म की मजबूती यहाँ पर है। पति के अवसान होने पर व्रत धारण करके सारे परिवार की शुभ कामना करती रहती है। आज इसे गौण किया जा रहा है जिसका दुष्परिणाम आप देख रहे हैं। किसी ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि शादी करने के बाद भी पाप रुकता नहीं है। यह सुनकर आचार्य श्री जी ने कहा कि शादी के उपरांत पाप पूर्णतः रुकता तो नहीं है लेकिन अनंत पाप जो समुद्र के जल के समान था अ वह चुल्लु–भर (अंजुलि भर) पानी के बराबर बचता है। वासना का यह उपक्रम भारत में लिमिटेड हो जाता है इसलिए धर्म कहलाता है। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- विदेश के लोग शांति की खोज में भारत आ रहे हैं और आप लोग धन-परिग्रह जो अशांति का कारण है उसे पाने के लिए विदेश जा रहे हैं। यदि इसी प्रकार विदेशी वस्तुओं एवं उनकी अपसंस्कृति को भारतीय अपनाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब भारत से भी धर्म और शांति समाप्त हो जाएगी इसलिए समय रहते अपने पूर्वजों की ओर लौट आओ। विदेशी हवा से भारतीय संस्कृति का दीपक बुझ रहा है। इस हवा को रोकने का प्रयास करो।
  4. जैसा कर्म सिद्धांत का वृहद विवेचन जैन दर्शन में मिलता है, वैसा अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलता। जैन दर्शन का सिद्धांत कर्म को प्रधानता देता है। जीव को सुख-दुःख, पुण्य-पाप रूपी कर्मों के फल से प्राप्त होता है, ईश्वर का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ करता है। जीव की एक अपनी स्वतंत्र सत्ता है वह चाहे तो नर से नारकी एवं नर से नारायण भी बन सकता है। एक दिन आचार्य श्री जी ने कहा कि- प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्म सिद्धांत को समझकर कर्म बंधन से बचना चाहिए। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी हम गृहस्थों को हमेशा कर्म बंध क्यों होता रहता है ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- जिसके पास राग-द्वेष है उसे हमेशा कर्म बंध होता रहता है। जैसे बैंक में पैसे जमा कर दो फिर उसका ब्याज बढ़ता ही रहता है। गृहस्थ को बंध इसलिए होता रहता है क्योंकि संयम के अभाव में मन और इन्द्रियों का असंयम बना रहता है। संयम, संकल्प के अभाव में तत्संबंधी बंध होता ही रहता है। विषयों का सेवन हो जाना और विषयों का सेवक बन जाना इन दोनों में बहुत अंतर है। यह सब संकल्प एवं मानसिकता पर आधारित है। कर्मफल की आसक्ति जिसकी छूटी नहीं है उसकी विचित्र दशा हो जाती है उपयोग पर इसका प्रभाव न पड़े इसलिए संयम पुरुषार्थ महत्त्वपूर्ण है। कर्मफल भोगना अज्ञान स्वाभाव है। पुरुषार्थ के द्वारा इससे बचा जा सकता है, क्योंकि विष को हाथ में लेने मात्र से मृत्यु नहीं होती बल्कि उसका सेवन करने से होती है। ज्ञानी उदय में आए हुए कर्मफल को जानता है, किन्तु अज्ञानी उसे वेदता (अनुभव) करता है। गुरुवर हमें शिक्षा देते हैं कि- कर्म बंधन से बचना चाहते हो तो राग-द्वेष का त्याग करो। राग-द्वेष का त्याग संयम धारण करने से ही हो सकता है इसलिए प्रत्येक जीव को संयम धारण करना चाहिए। यही ज्ञानी का कर्तव्य है।
  5. आचार्य श्री ध्यान पर जोर देते हुए कहते हैं कि- मुनिराजों को ध्यान करते हुए निर्विकल्प समाधि की ओर बढ़ना चाहिए। निर्विकल्प समाधि में बैठ जाओ शुद्ध हो जाओगे परम सामायिक, निर्विकल्प समाधि उन्हीं को प्राप्त हो सकती है जिनके पास महाव्रत हो, सामायिक चारित्र हो, शुद्धोपयोग में कर्म वैसे ही धुल जाते हैं जैसे वॉशिंग मशीन में कपड़े धुल जाते हैं। ध्यान में लीन जीव के कर्म उदय में आकर झड़ जाते हैं। यह सुनकर किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि वर्तमान में जीव पाप, दोष नहीं करता फिर भी उसे अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक दुःख क्यों भोगना पड़ता है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण जैसे आप मान लो किसी नदी के किनारे बैठे हो। अभी यहाँ वर्तमान में पानी नहीं गिर रहा लेकिन पूर्व के (आगे वाले) गाँव में बहुत पानी गिर गया इसलिए नदी में बाढ़ आ गई और आप उसमें बह गए इसलिए यदि वर्तमान में आपको दुःख भोगना पड़ रहा है तो समझिये कि यह पूर्व में किए गए कर्मों का फल है। यदि इस फल को शिकायत एवं विषमता के साथ भोगोगे तो पुनः कर्म का बंध होगा और संक्लेष परिणाम भी अधिक होगें। यदि आपने कर्मों के उदय में समता परिणाम बनाए रखा तो उदय में आए हुए कर्म, निर्जरा को प्राप्त हो जाएगे और नूतन कर्म का बंध ही होगा।
  6. इस युग में कुछ लोगों की धारणा यह बन चुकी है कि पंचमकाल में धर्म नहीं हो सकता। कोई मुनि नहीं बन सकता यदि उनसे पूछा जाए आप ऐसा क्यों कहते हैं तो उनका तर्क होता है कि पंचमकाल में हीन संहनन होता है इसलिए कोई मुनि नहीं होते। धर्म तो चर्या में नहीं भावों में होता है। समयसार ग्रंथ की वाचना के समय आचार्य श्री जी ने कहा कि बाहर से नग्न हुए बिना अंदर वीतराग परिणाम नहीं आ सकता। दिगम्बरत्व धारण किए बिना निश्चय रत्नत्रय निर्विकल्प समाधि की भावना नहीं हो सकती। द्रव्यलिंग नेगेटिव कॉपी है एवं भावलिंग पॉजिटिव कॉपी है जिस प्रकार नेगेटिव के बिना पॉजिटिव कॉपी नहीं बन सकती उसी प्रकार बाह्य चर्या के बिना अंतरंग में धर्म नहीं आ सकता। हाँ इतनी बात अवश्य याद रखें कि दुनिया आपको मुनि मानें और प्रशंसा करें लेकिन आप अपने आपको बड़ा न मानें एवं अपनी प्रशंसा स्वयं न करें यही मुनित्व है। जो वर्तमान में दिगम्बर मुद्रा का निषेध करते हैं उनके लिए आचार्य श्री जी ने समझाते हुए कहा कि द्रव्य लिंग को हमेशा ही उपेक्षित करना बुद्धिमत्ता नहीं कहलाती। यदि ऐसा करोगे तो समयसार का महत्त्व समझ में नहीं आ सकता जैसे- दीपक के बिना ज्योति नहीं जलती उसी प्रकार बिना द्रव्यलिंग के भावलिंग नहीं होता। आचार्य श्री जी ने संस्मरण सुनाते हुए कहा कि एक बार एक सज्जन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास आए और उन्होंने भी ऐसा ही प्रश्न किया आज काल के प्रभाव से धर्म नहीं। पलता तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए कहा- बताओ चतुर्थ काल में और पंचम काल में हलुआ बनाने की पद्धति में क्या अंतर है? तब उन्होंने कहा- जैसे उस काल में बनता था वैसे इस काल में बनता है। तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा- उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ा ? यह सब काल के कारण नहीं है बल्कि आप लोगों का पुण्य घटने से है, भावों का प्रभाव है। आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि विदेह क्षेत्र के जीव यहाँ से मुक्त हो जाते हैं। मुनिराजों का अपहरण हो जाता है किसी ने लाकर भरत क्षेत्र में रख दिया उन्हें मुक्ति मिल जावेगी काल तो वही है। काल का प्रभाव है ऐसा कहना औपचारिक है। कालाणु तो असंख्यात थे, हैं, रहेंगे। आचार्य श्री जी ने हँसते हुए कहा कि- फिर भी समझ में नहीं आ रहा है तो कहना ही पड़ेगा कि- पंचम काल का प्रभाव है। एक बात हमेशा ध्यान रखो यह काल का नहीं घटिया भावों का प्रभाव है कि आप लोगों के मुनिधर्म पालन करने के भाव नहीं बनते और ऊपर से कहते हो कि काल के प्रभाव से आज कोई मुनि नहीं बन सकता। आप स्वयं निर्णय कर लो कि- काल दोषी है। कि आप एवं आपके भाव ?
  7. मनुष्य जीवन एक नाव है और संयम इसकी पतवार है। जैसे पतवार के बिना नाव को सही दिशा दी जा सकती वैसे ही संयम के बिना जीवन की दिशा प्रदान नहीं की जा सकती। जैसे नाव पतवार के अभाव में दिशाविहीन होकर भंवर में फंसकर डूब जाती है वैसे ही संयम रूपी पतवार के अभाव में यह जीवन की नौका रागद्वेषादि। भंवरों में फंसकर संसार में डूब जाती है। एक बार आचार्य श्री जी का ससंघ विहार हो रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ी जिसमें नाव चल रही थी, नदी के बीच में भंवर पड़ रही थी। नाविक पतवार के माध्यम से नाव को भंवर से बचाता हुआ नाव को खेता जा रहा था। यह देखकर मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि- देखो आचार्य श्री जी यह नाविक कितनी कुशलता से अपनी नाव को भंवरों से बचाता जा रहा है तब आचार्य श्री जी ने इस बात को अध्यात्म में घटित करते हुए कहा कि- नाविक नाव चलाता रहता है और नदी में भंवर उठते रहते हैं। नाविक उन्हें पतवार के माध्यम से दबाता रहता है। उसी प्रकार ज्ञानी (मुनिराज) के कर्मों के विभिन्न अनुभाग उदय में आते रहते हैं ज्ञानी उसे संयम रूपी पतवार से दबाता रहता है। कर्म के उदय में समता रखकर कर्मों का संवर और निर्जरा कर लेता है। वही दूसरा अज्ञानी (असंयमी) संयम रूपी पतवार के अभाव में कर्मोदय में हर्ष-विषाद करके संसार भंवर में फंसता चला जाता है। आचार्य श्री जी ने हम सभी साधकों को कितनी बड़ी शिक्षा इस दृष्टांत के माध्यम से दी है कि ज्ञानी, संयमी रही है जो कर्मोदय से प्रभावित न होकर समता परिणामी बनकर कर्मों के संवर एवं निर्जरा में लगा हुआ हो।
  8. ग्रंथराज समयसार की वाचना चल रही थी। उस समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- मुनिराजों को अधिक समय आत्मध्यान में ही निकालना चाहिए। अनावश्यक प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए। मन-वचन एवं काय से प्रवृत्ति न करना ही मोक्षमार्ग है। यदि फिर भी प्रवृत्ति करना पड़े तो प्रतिक्रमण, देव-वंदना आदि करना चाहिए। इस प्रकार की सावधानी मोक्षमार्ग में वरदान सिद्ध होती है। प्रवृत्ति स्वयं करे न, बल्कि करना पड़े तो समझना निरीहता है। यही निरीहता (निर्मोहपना) सच्चे साधक की पहचान है। तब किसी श्रावक ने शंका व्यक्त करते हुए गुरूवर से पूछा कि हे गुरूवर हम व्रती-श्रावकों को क्या करना चाहिए? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- व्रती श्रावकों को भी सांसारिक कार्यों में रचना-पचना नहीं चाहिए। तभी उसके अंदर मुनि बनकर शुद्धोपयोग प्राप्ति की भावना बन सकती है। जो जितने बड़े होते हैं उनमें उतना अधिक बड़प्पन होता है। मोक्षमार्ग में जिनकी कषाय जितनी अधिक कम होती है, वे उतने अधिक बड़े माने जाते हैं। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- तत्त्वार्थ-सूत्र ग्रंथ के चौथे अध्याय के 21 वें सूत्र में बताया है कि- "गतिशरीर, परिग्रहाभिमानतोहीनाः" अर्थात् देव गति में ऊपर-ऊपर के देवों में गति-आवागमन, शरीर की ऊँचाई, अभिमान एवं परिग्रह कम होता चला जाता है। बड़े-बड़े देवों में अभिमान, परिग्रह आदि कम होते चले जाते हैं, लेकिन आप लोगों में बढ़ते चले जाते हैं। बड़ों की कषाय कम होना चाहिए तभी तो बड़े हो इस ओर ध्यान देना चाहिए। सहन करने की क्षमता बड़ों में ज्यादा होना चाहिए। जिसका मन भर गया (वश में हो गया) उसे कुछ भी कह दो तो बुरा नहीं लगता। यही बड़प्पन है। आचार्य भगवन् स्वयं अधिक से अधिक समय आत्मध्यान में रहते हैं उपवास आदि के दिन तो नासादृष्टि किए हुए दिनभर ध्यान में बैठे रहते हैं और हम सभी साधकों को इसी प्रकार की शिक्षा समय-समय पर देते रहते हैं। आवकों को भी अभिमान और परिग्रह के त्याग का उपदेश देते है धन्य है ऐसे गुरूवर ...।
  9. धर्म पालन करते समय सभी लोग हमसे संतुष्ट हो जायें ऐसी भावना छोड़कर आत्मसंतुष्टि प्राप्त करना चाहिए कुछ लोग धर्मात्मा, व्रती बनकर दूसरों को संतुष्ट करने की सोचते रहते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कभी भी किसी भी धर्मात्मा से संतुष्ट होते ही नहीं है। उन्हें धर्मात्माओं से कुछ न कुछ शिकायत बनी ही रहती है। एक दिन आचार्य श्री जी ने कहा कि इस महान् धर्म को प्राप्त करने के बाद हम साधकों को कैसा अनुभव होता है, यह सभी के सामने रखा नहीं जा सकता। उनके सामने तो मुख की प्रसन्नता रखिये ताकि उन्हें लगे कि ये अपने आप में संतुष्ट हैं। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन शब्दों के माध्यम से नहीं हो सकता। आस्था के माध्यम से देखना चाहो तो दिख सकता है। दूसरों को संतुष्ट करने के लिए धर्म नहीं किया जाता, बल्कि आत्मसंतुष्टि के लिए किया जाता है।" जिसे धर्म करते हुए स्वयं में आत्मसंतुष्टि नहीं है वह दूसरों को भी संतुष्ट नहीं कर सकता। साधक को अपनी चर्या में संतुष्ट रहना चाहिए हर चर्या में असंख्यात गुनी कर्म की निर्जरा होती है। किसी श्रावक ने कहा कि- हम श्रावकों को संतुष्टि नहीं मिलती। तब आचार्य श्री ने कहा कि- आप लोगों को भी व्रत, प्रतिमा आदि धारण करना चाहिए श्रावकों की भी प्रतिमा लेते ही असंख्यात गुनी कर्म निर्जरा प्रारंभ हो जाती है इसमें संतुष्ट रहना चाहिए। अतीन्द्रिय आत्मिक सुख आदि मिलेगा लेकिन वर्तमान में जो आत्मसंतुष्टि मिल रही है वह कम नहीं है। एक बात हमेशा याद रखो जिसे धर्म करते हुए आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति नहीं होती उसे कोई भी कल्याण का रास्ता नहीं दिखा सकता। सम्यग्ज्ञानी वही है जो धर्म करते हुए संतुष्ट है, क्योंकि वह जानता है कि दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।।
  10. किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि- मेरा मन बड़ा चंचल है। सामायिक आदि धार्मिक क्रियाओं में विचलित हो जाता है। इससे काम लेने का तरीका बतलाइए। तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- मन को सुला दो फिर आत्मा अपना काम कर लेगी। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे घर में बच्चा रोता, मचलता एवं ऊधम करता है तो माँ उसे पालने में सुला देती है और अपना काम कर लेती है। यदि बीच में बच्चा जाग जाता है तो माँ पुनः पालना झुला देती है तो बच्चा फिर सो जाता। है। ठीक उसी प्रकार मन रूपी बच्चे को सुलाकर के आत्मा रूपी माँ को अपना काम कर लेना चाहिए। आज तक आप सोते रहे और मन जागता रहा। कभी-कभी बच्चा बनकर सो जाता है माँ बाहर जाने लगती है तो रोने लगता है और कहता है मैं भी चलूंगा, मैं भी चलूंगा। ऐसा ही मन है, लगता है वश में हो गया पर बड़ा नटखटी है। मन को सुलाने वाला एवन होगा। मुझे एकाध व्यक्ति बता दो। जिसका मन सो गया। जिसकी संकल्पशक्ति दृढ़ होती है, वही मन को सुला पाता है। मन को विश्राम देना साधक का मुख्य कार्य होताहै। यह सुनकर किसी ने कहा कि- मन तो मुड़ा हुआ है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- मन मुड़ा। हुआ है तो, घर की चिंता में पसीना नहीं आना चाहिए। छोटा बच्चा है तो सुलाओ, बड़ा हो गया तो काम कराओ। आत्मा सही कार्य तभी कर पाती जब मन, वचन एवं काय सो जाते हैं। संसार में विकल्प होता है तो कर्तृत्व, भोगक्तृत्व, स्वामित्व से होता है। मन को इन तीनों से खाली कर दो। ज्ञानी के मन में ये तीनों होते है लेकिन स्व को लेकर होते हैं स्व का ही करता (कर्ता), भोक्ता, स्वामी हूँ। पांचों इन्द्रियाँ सयानी हैं, यह अच्छा है, बुरा है इस प्रकार की उनसे कभी शिकायत नहीं आती। मन कहता है यह सब ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। संसार में जो कुछ बसता है मन की कारण ही बसता है। मन चारों और देखता रहता है, सोचता रहता है (NEWS) चारों दिशाओं में। अब अपने मन के लिए अपने को ही समझाना है मन आज तक हमें हीं समझाता आया है। ध्यान रखो आत्मा जो अनुभव में आती है वह NEWS का विषय नहीं बन सकता।
  11. नेमावर में ग्रंथराज समयसार की वाचना के समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोक्षमार्ग में मन एवं पंचेन्द्रियों का व्यापार (विषयों की ओर जाना) कम होना चाहिए। मोक्षमार्ग में मन के द्वारा पंचेन्द्रिय विषय न आवे यह महत्त्वपूर्ण है। यह सुनकर किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी पंचेन्द्रिय के विषय चारों ओर भरे पड़े हैं, उस ओर मन चला ही जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा- हम सभी पंचेन्द्रिय के विषयों के बीच में बैठे है जब हम पंचेन्द्रिय रूपी खिड़की एवं मन रूपी दरवाजा खोलेगे तभी अन्दर आ सकते हैं वरन् नहीं। उदाहरण देते हुए कहा कि एक व्यक्ति की तेल की दुकान है। वह दिन- रात तेल बेचता है, उसका स्वयं का तेल का त्याग है। वह घी का सेवन करता है ग्राहकों से तेल अच्छा है ऐसा भी कहता है, लेकिन स्वयं रुचि नहीं रखता। वह तो घी का ही स्वाद लेता है एवं उसे ही अच्छा मानता है।उसी प्रकार वीतराग-विज्ञानी होते हैं। वह आत्मानन्द रूपी घी का स्वाद लेते रहते हैं। कर्मोदय द्वारा प्रदत्त पंचेन्द्रिय विषय रूपी तेल का सेवन कदापि नहीं करते। पंचेन्द्रिय विषय अवग्रह तक ही सीमित रहेना चाहिए अर्थात् देखने में आ जाये तो कोई बात नहीं ईहा का विषय नहीं बनना चाहिए। अर्थात् विषयों की ओर दृष्टि नहीं ले जाना चाहिए, उन्हें पाने की इच्छा नहीं रखना चाहिए। हमारा मन बच्चे के सामान है। जैसे बच्चे को बाजार में नहीं भेजते, क्योंकि वह कुछ भी खरीदकर खा सकता है और ठगा भी जा सकता है। वैसे ही अपने मन पंचेन्द्रिय विषयो के बाजार में मत ले जाओ। यदि ले जाना हे तो समझाकर ले जाओ। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी मन का बाजार कौन-सा है ? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि मन का खुब बड़ा बाजार है। पूरा तीन-लोक ही मन का बाजार है, क्योंकि तीनलोक में कहीं भी चले जाओ हर जगह पंचेन्द्रिय के विषय भरे पड़े हैं।
  12. साहित्य एवं चारित्र के बारे में उपदेश देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जिसमें सभी का हित निहित हो उसी का नाम साहित्य हुआ करता है। जिससे स्वयं एवं दूसरों का कल्याण हो उस साहित्य को ही जिनवाणी कहा जाता है। हेय (त्यागने योग्य) एवं उपोदय (ग्रहण करने योग्य) का ज्ञान होने से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है। हेयोपादेय का ज्ञान पर्याप्त नहीं है बल्कि आत्मकल्याण के लिए उस पर अमल करना भी जरूरी है। जैसे भोजन करने मात्र से स्वस्थ्य नहीं रह सकते बल्कि भोजन पचने से स्वस्थ्य रहा जा सकता है। पुराना पचता नहीं है और पुनः भोजन किया जाता है तो वह अजीर्ण हो जाता है। बीमार कर देता है ठीक उसी प्रकार साहित्य, ग्रंथ पढ़ने और लिखने मात्र से कल्याण नहीं होगा बल्कि पूर्वाचार्यों ने जो पहले ग्रंथ लिख कर हम पर उपकार किया है। उनका स्वाध्याय करके अमल में लाने से ही कल्याण होगा। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैनियों के पास पूर्वाचार्यों द्वारा रचित इतना अधिक साहित्य है कि जीवन भर उसका स्वाध्याय किया जा सकता है, लेकिन नए-नए साहित्य की आवश्यकता पड़ती जा रही है जैसे पेट में भूख है ही नहीं फिर भी भोजन की थाली पर थाली परोसी जा रही हैं। स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। फिर भी लालसा बढ़ती जा रही है। यदि पढ़कर भी आचरण में नहीं ढाला तो समझना साहित्य का पढ़ना निरर्थक गया। ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित हो, पर मैं कहता हूँ- ढाई अक्षर आत्मा का उसे पढ़े उसका अनुभव करे सो पंडित हो। एक मुनिराज अक्षर ज्ञान से शून्य होते हुए भी शुद्धाचरण के बल पर अपना एवं दूसरों का कल्याण कर जाते हैं यही सच्चा स्वाध्याय, धर्म एवं मोक्षमार्ग है। आलस्य का त्याग कर ज्ञान भावना होना ही तो स्वाध्याय कहलाता है। एक मुनिराज निरीह वृत्ति से साथ शांत बैठे हुए हैं शास्त्र उनके सामने नहीं है फिर भी उनका हमेशा परम स्वाध्याय चलता रहता है। यही सच्चा स्वाध्याय है जिसमें राग-द्वेष, कषाय, मोह एवं पाप का क्षय हो। आज के युग में सूत्र, साहित्य का उपयोग पंचेन्द्रिय के विषयों को प्राप्त करने में ही किया जा रहा है लेकिन यह घातक सिद्ध होगा।साहित्य दीपक की भांति है। ज्यादा तेल डालने मात्र से दीपक अधिक प्रकाश नहीं देता बल्कि दीपक की लौ के पास आने वाली कालिमा को बार-बार साफ करना पड़ता है तभी तेज प्रकाश आता है। साहित्य मात्र पढ़ने से ज्ञानी नहीं बनते जब तक कषायों, पापों की कालिमा दूर नहीं करते।
  13. किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आजकल समाज में लेखक साहित्यकार कम और व्यंग्यकार एवं आलोचक अधिक हो गए हैं। वे व्यक्ति, समाज, साधु, मंदिर, आदि। सभी की आलोचना करते रहते हैं एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख, भी प्रकाशित करते रहते हैं। इन्हें क्या समझना चाहिए एवं इनसे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि- एक अच्छा आलोचक दर्पण की तरह होता है, जो हमारे जीवन की कमियों को दिखाकर हमें साफ-सुथरा एवं निर्मल बनने को प्रेरित करता है। आगे आचार्य श्री जी ने कहा किआलोचक तो मोक्षमार्ग में अपना परम मित्र है उनसे कर्म की निर्जरा होती है। मोक्षमार्गी को आलोचकों के प्रति क्रोधित नहीं होना चाहिए बल्कि आलोचना को शांति से सहन करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो आलोचकों को हमारे क्रोध करने या विरोध करने से और अधिक मटेरियल मिल जाता है और अपने समता परिणाम एवं शांत प्रवृत्ति को देखकर वह जल्दी शांत हो जाता है। किसी ने कहा भी है कि- मेरे दुश्मन अमर रहें ताकि मैं सावधान बना रहूँ। इस बात में सकारात्मक दृष्टिकोण भरा हुआ है जिसमें दूसरे के अहित की कामना भी नहीं की गई एवं स्वयं के दोष को दूर करने की बात कही गयी है। सच बात तो यह है कि कोई यदि हमें बुरा-भला कहता है तो किसी के कहने से हम बुरे–भले नहीं हो जाते, क्योंकि मूर्ख, अज्ञानी, पापी, ज्ञानी, पुण्यात्मा यह सब टाइटल हमें अपनी करनी से मिलते हैं, किसी के देने से नहीं।
  14. आज के युग में तत्वज्ञान की प्राप्ति अति दुर्लभ हो गई है। जैसे निर्धनता में धन, निर्जन वन में घर और केले के वृक्ष में सार तत्त्व मिलना दुर्लभ है, वैसे ही इस युग में तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है। एक तो तत्त्वज्ञान की बात करने वाले बहुत कम है, उसे सुनने वाले उससे भी कम है और उसे धारण करने वालों की संख्या उससे भी बहुत कम है। आर्यिका दीक्षा दिवस सन् 9-02-2006 के अवसर पर आचार्य श्री जी ने वाणी की दुर्लभता के बारे में आचार्य ज्ञानसागर जी का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि एक बार आचार्य ज्ञानसागर जी के प्रवचन को टेप करने के लिए प्रयास किया गया। पहले प्रवचन आदि रिकॉर्ड नहीं होते थे दो चाक वाला ग्रामोफोन रख दिया, मैं भी पास में बैठा था मैं भी डर गया थोड़ा बाजू में खिसक गया (हँसी) बाद में देखा प्रवचन रिकार्ड हुआ कि नहीं। देखा तो कैसेट खाली एक भी शब्द नहीं आया, क्योंकि कैसेट उल्टी फंसा दी थी। ये है महापुरुषों की वाणी की दुर्लभता।
  15. यह संसारी प्राणी अनादिकाल से पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन रहा है। इन विषयों का आकर्षण आसानी से नहीं छूटता है। जब तक पंचेन्द्रिय विषयों की वास्तविकता ज्ञात नहीं होती, वस्तु-स्वरूप द्रष्टि में नहीं आता तब तक यह विषय छूट भी नहीं सकते। समयसार ग्रंथ की वाचना के समय आचार्य श्री ने कहा कि सम्यग्दृष्टि ही विषयों के आकर्षण से छूट सकता है। जिसे आत्मा के गुणों से आकर्षण हो जाता है, उसकी दृष्टि विषयों से हट जाती है। सम्यग्दृष्टि विषयों से राग नहीं रखता, क्योंकि उनमें आत्मा के कोई गुण नहीं है और उनसे आत्मा के गुणों में वृद्धि भी नहीं होती। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी विषयों को छोड़ देने के बाद भी क्या पुनः विषयों की और दृष्टि नहीं फिसलती? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान देते हुए कहा कि- सम्यग्दृष्टि विषयों से छूटने के बाद पुनः फिसलता नहीं है, यही रुचि का विषय है। जैसे एक रुचि वाला अंधा व्यक्ति हारमोनियम (केसीयों) सीख लेता है फिर उसकी अंगुलियाँ फिसलती नहीं हैं, कभी भी स्वर भंग नहीं होता है। आचार्य श्री जी ने कहा कि- श्रावक लोग आहार के बाद आकर कहते हैं महाराज श्री आपने थाली में से सबकुछ हटवा दिया था कुछ नहीं बचा। तब आचार्य श्री जी कहते है- भैया! यह तो बताओ संसार में रस है ही कहाँ ? संसार तो नीरस है फिर हटाने वाली बात ही नहीं होती। मोक्षमार्ग में समयसार का एवं आत्मा का रस खूब लो इसमें रात-दिन का कोई परहेज नहीं। धन्य हैं आचार्य महाराज जो पंचेन्द्रिय विषयों के त्यागी हैं एवं हम सभी को पंचेन्द्रिय विषयों से बचने का उपदेश देते रहते हैं। स्वयं नमक, मीठा, हरी सब्जी, फल ग्रहण नहीं करते। नीरस आहार लेते हैं, लेकिन सभी को धर्म का अमृत पिलाते रहते हैं।
  16. कोई दुःखों से उत्पीड़ित न हो, किसी को कभी कष्ट न हो, सभी का कल्याण हो, सभी पापकर्मों से छूटे ऐसी मति का नाम मैत्री है। परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषो मैत्री। दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है। मैत्री की भावना को लेकर आचार्य श्री जी ने कहा कि- मैत्री भावना का अर्थ है- दूसरे कभी पाप न करें एवं कभी किसी पर संकट न आए।दूसरों की संकट के समय में सहायता करूं ऐसी भावना नहीं भाना बल्कि दूसरों पर संकट आए ही नहीं ऐसी भावना भानी चाहिए। रामायण का प्रसंग सुनाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि रावण से युद्ध जीतने के बाद रामचन्द्र जी, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, सुग्रीव आदि सभी एक साथ बैठे हुए थे। आपस में चर्चा चल पड़ी कि इस विजय में राम का हनुमान, सुग्रीव आदि ने बहुत सहयोग दिया। सभी ने सोचा रामचन्द्र जी अब सभी के संकट के समय साथ देगें। इसी बीच रामचन्द्र जी ने सभी के सहयोग की सराहना करते हुए कहा कि मैं आप लोगों के संकट के समय कभी काम न आऊँ ऐसी भावना करता हूँ। यह सुनकर सभी लोग अवाक रह गये कि रामचन्द्र जी यह आपकी कैसी कृतघ्नता है। थोड़ा रुककर रामचन्द्र जी बोले कि- मैं यह नहीं चाहता कि मैं आपके संकट के समय काम आऊँ, बल्कि ऐसी भावना भाता हूँ कि आप पर कभी संकट ही न आए। आचार्य श्री ने कहा- इसे कहते हैं सच्ची मित्रता।
  17. सल्लेखना का प्रकरण चल रहा था तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- व्रतों का पालन 355 दिनों की पढ़ाई जैसा है एवं सल्लेखना 10 दिन की परीक्षा जैसी है। इसलिए सल्लेखना व्रत को श्रावक के बारह व्रतों में रखा है। जैसे कोई व्यक्ति पूर्ण पढ़ाई के बाद भी यदि परीक्षा नहीं देता है तो उसकी योग्यता नहीं आंकी जा सकती। क्षमता, योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा से ही होता है। जैसे सालभर मन लगाकर पढ़ाई करने वाले को परीक्षा की तैयारी करो ऐसा नहीं कहना पड़ता, वैसे ही निर्दोष व्रतों का पालन करने वालों को सल्लेखना की तैयारी करो ऐसा नहीं कहना पड़ता। आस्था एवं आचरण इन दोनों की परीक्षा होती है इसलिए आस्था एवं आचरण निर्दोष एवं मजबूत होना चाहिए। ज्ञान कम भी हो तो चल जाएगा। आज अध्ययन की मुख्यता समाप्त होती जा रही है। विद्यार्थी 20 प्रश्न-पत्र से ही पढ़कर पास होना चाहता है। इसमें ज्ञान की नहीं परीक्षा की ही मुख्यता रह जाती है। इससे सिद्ध होता है कि पढ़ाई का स्तर गिर गया है। ठोस अध्ययन की कमी होती जा रही है। उसी प्रकार आज श्रावक भी जीवन में व्रतों का पालन नहीं करना चाहते, बल्कि अंत समय सल्लेखना के लिए आ जाते हैं। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि- जो कुछ पढ़ा है उसका प्रसंग एवं अर्थ याद रहना चाहिए, वरन् सही क्या है। गलत क्या है? उसका निर्णय नहीं किया जा सकता है। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती हैं कि जीवनभर निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए अंत में सल्लेखना अवश्य लेना चाहिए।
  18. देवपूजा का प्रकरण चल रहा था तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- आहारदान में पूजा गर्भित हो जाती है, लेकिन वह मात्र मुनिराज की होती है। इसलिए देवपूजा को अलग से रखा है। मंदिर जी एवं चौके में पूजन करते समय चावल आदि द्रव्य को जमीन पर नहीं गिराना चाहिए। वीतराग मुद्रा के दर्शन, पूजन करने से वीतरागता के भाव उमड़ने चाहिए। प्रतिमा जी के एकदम सामने खड़े होकर दर्शन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से दर्शन करना चाहिए जिससे अन्य लोगों को दर्शन करने में बाधा नहीं आए। भगवान् के चरणों में माथा नहीं रखना चाहिए, दूर से दर्शन करना चाहिए। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि आचार्य श्री जी भगवान् के चरणों के ऊपर चन्दन आदि लगा सकते हैं क्या ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान देते हुए कहा कि- भगवान् के चरणों में समर्पित करने को कहा है, उनके चरणों में लेप करने को नहीं जैसे कहा है कि अपने आप को प्रभु के चरणों में समर्पित करो तो क्या उनके चरणों पर जाकर बैठ जाओगे। भगवान के दर्शन एवं भक्ति विवेक पूर्वक होना चाहिए। विवेक के बिना सही फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। वैसे भी दाता के सात गुणों में विवेक (विज्ञान) को मुख्य गुण माना गया है। विवेक के बिना शेष छह गुण कोई मायना नहीं रखते।
  19. सम्यग्दर्शन के वात्सल्य अंग के बारे में व्याख्यान करते हुए | आचार्य श्री ने कहा कि- अपने सधर्मी के प्रति कपट रहित, निस्वार्थ प्रेम होना ही वात्सल्य कहलाता है। विसंवाद को छोड़कर वात्सल्य अंग को अपनाओ तभी अशुभ कर्म से बच सकते हो। वात्सल्य के अभाव में सम्यग्दर्शन हृदय विहीन शरीर की भाँति हो जाता है। यदि सधर्मी आपस में हिलमिलकर रहते हैं तो लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, धर्म की प्रभावना होती है एवं धर्म मार्ग में बढ़ने के लिए उत्साह मिलता है। जैसे गाय बछड़े से निस्वार्थ प्रेम करती है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि अपने सधर्मी से प्रेम करता है। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी वात्सल्य अंग के बारे में गाय-बछड़े का उदाहरण ही क्यों आता है। आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- माँ और बेटे में स्वार्थ रहित प्रेम होता है, लेकिन देखने में नहीं आता। माँ का स्वार्थ रहता है कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा और बेटे का स्वार्थ रहता है कि अंत में सारी संपत्ति मुझे मिले। यदि आप कहते हो कि सभी ऐसे नहीं होते हैं तो मैं कहता हूँ अपनी आँखों का कचरा या ललाई अपने को नहीं दिखती। लेकिन गाय और बछड़े में ऐसा कोई स्वार्थ नहीं होता। गाय अपने बछड़े से इतना प्रेम करती है कि शेर से वादा करके आती है कि मैं अपने बछड़े को दूध पिलाकर आऊँगी फिर खा लेना और बछड़ा शेर से कहता है मेरे होते हुए मेरी माँ को नहीं खा सकते पहले मुझे खाइए। गाय भी यही कहती है। इस प्रकार का निस्वार्थ प्रेम इंसानों में देखने को नहीं मिलता। इसलिए गाय और बछड़े का प्रेम प्रसिद्ध है। इसलिए वात्सल्य अंग के लिए उदाहरण के रूप में दिया जाता है। आचार्य श्री जी ने जीवन्धर कुमार का उदाहरण देते हुए कहा कि- जीवन धारयति इति जीवन्धरः। अर्थात् जीवन को धारण करने वाले अच्छे अलंकार जीवन के आभूषण हैं। जीवन्धर जीवों की रक्षा करने वाला था। उसने कुत्ते को भी णमोकार मंत्र सुनाकर उसका उपकार किया था। जीवों का दया धर्म ही सच्चा अलंकार है। अंत में आचार्य श्री जी ने बहुत बड़ी शिक्षा देते हुए कहा कि यदि स्वार्थ के साथ उपकार होता है तो फिर भी ठीक है, लेकिन यदि स्वार्थ के साथ वात्सल्य होता है तो यह गलत है।
  20. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का उपदेश देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- उपवास करने से सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक तीनों प्रकार से लाभ होता है। दक्षिण में आटा चक्की को पन्द्रह दिन में एक बार बंद रखा जाता है विशेषकर अमावस्या को तो चक्की बंद रहती ही है। फिर आप लोग भी पन्द्रह दिन में, पर्वो के दिनों में उपवास अवश्य किया करो। अपने पेट की चक्की खाली रखा करो। श्री धवलाजी ग्रंथ में लिखा है कि- उपवास शरीर के रोगों को दूर करता है और विकारी भावों को आत्मा से निष्कासित करता है। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे शारीरिक चिकित्सा बिना उपवास के नहीं होती, वैसे ही आत्मा की चिकित्सा भी बिना उपवास के नहीं होती। जिस प्रकार पेट के ऑपरेशन के दिन उपवास करना पड़ता है तभी ऑपरेशन होता है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक चिकित्सा करना चाहते हो, राग-द्वेष रूपी विकारी भावों को आत्मा से बाहर निकालना चाहते हो तो उपवास करना आवश्यक है। वैज्ञानिकों ने भी कहा है- उपवास के दिन शरीर में एक विशेष ग्रंथि खुलती है, जिससे शरीर से रोग निष्कासित होते हैं, पाचन शक्ति बढ़ती है एवं शरीर में ताजगी भी आती है। तब किसी ने कहा- आचार्य श्री जी! कई लोग उपवास इसलिए नहीं करते क्योंकि वे सोचते है कि उनके चेहरे की चमक कम न हो जाए। यह सुनकर आचार्य श्री जी ने कहा कि- खाने-पीने मात्र से शरीर नहीं चमकता यदि ऐसा होता तो पशु-गाय, भैंस आदि तो हमेशा खाते रहते हैं, उनका शरीर भी चमकना चाहिए। उपवास का अर्थ होता है इन्द्रिय एवं मन का विषयों से हटकर आत्मा के पास आ जाना। आत्मा के बारे में सोचने लगता है। जब उपवास के माध्यम से (बेला, तेला) कराके हाथी को भी जीवन भर के लिए वश में कर लिया जाता है तो फिर मन को भी वश में करना चाहते हो तो उपवास कीजिए। मन वश में हो जाएगा।
  21. साधु के दो ही काम होते हैं- ज्ञान और ध्यान जो ज्ञान, ध्यान एवं तप में लीन रहता है उसे साधु कहते हैं। इसी प्रकार श्रावक के भी दो मुख्य कर्तव्य होते हैं- दान और पूजा। जो श्रावक प्रतिदिन दान, पूजा करता है वही श्रावक शोभा को प्राप्त होता है | इसी विषय पर व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि श्रावक को प्रतिदिन शास्त्र-स्वाध्याय भी करना चाहिए। मंदिरजी में प्रतिदिन सामूहिक पाठ करने एवं शास्त्र-स्वाध्याय करने की प्रथा डालनी चाहिए। शास्त्र स्वाध्याय में एक व्यक्ति शुद्ध वस्त्र पहनकर शास्त्र का वाचन करें एवं सभी शांति के साथ बैठकर सुनें। यह शास्त्र-स्वाध्याय एवं स्तोत्रादि के पाठ की प्रथा प्रत्येक गाँव, नगर, शहर में होनी चाहिए। स्वयं ज्ञानमृत भोजन बनाओ और दूसरों को खिलाओ, जो दूसरों को देता है उसका ज्ञान कभी कम नहीं होता। स्वाध्याय कराने से, पाठशाला पढ़ाने से ज्ञान का क्षयोपशम बढता है, धर्म की प्रभावना होती है। श्रोताओं की जिज्ञासाओं से स्वयं की एवं दूसरों की स्मृति बढ़ती है। प्रस्तुतिकरण की कला आ जाती है। तत्त्व की बात करने से बैरी का पारा भी ठण्डा हो जाता है, कलह मिट जाती है, वातावरण शांत हो जाता है। किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि- आजकल स्वाध्याय करने वाले लोग कषाय ज्यादा करते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि इसलिए तो कह रहा हूँ कि धर्मामृत का पान करो। आचार्यों के द्वारा दिया गया धर्मामृत पीते जाओ कषाय रूपी विष अपने आप समाप्त हो जावेगा। लेकिन एक सावधानी हमेशा रखना आचार्य प्रणीत ग्रंथ का ही स्वाध्याय करना। तभी कषायें समाप्त होगी।
  22. धर्म की प्रभावना के बारे में आचार्य श्री जी बतला रहे थे कि धर्म की प्रभावना करना नहीं पड़ती, बल्कि निरीहता के साथ त्यागी–व्रती समाज में रहते हैं तो उनकी सादगीपूर्ण चर्या को देखकर लोग अपने आप प्रभावित हो जाते हैं। शुभ भावना पूर्वक प्रभावना होती है। धर्म एवं गुरु की प्रभावना हो बस अपनी यही भावना हो। यदि सादगी एवं निरीहता नहीं है तो समाज में एक आचार्य का प्रभाव भी नहीं पड़ सकता। आत्मा की साधना करने वाला साधु होता है ऐसे साधक का प्रभाव पड़ता है। बहुत शास्त्रों का ज्ञान करने एवं प्रवचन करने मात्र से प्रभावना नहीं होती। किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी आज के युग में प्रवचन के बिना प्रभाव नहीं पड़ता। जो अच्छे प्रवचन कर लेते हों एवं समाज में पैसा इकट्ठा करवा देते हों, उन्हीं साधुओं को लोग चातुर्मास के लिए श्रीफल भेंट करते है। तब आचार्य श्री ने कहा- ऐसा नहीं है। वर्धमान को देखो वर्तमान को नहीं। बहुत पहले जब मैंने नैनागिर में चातुर्मास किया था तब वहाँ प्रवचन के लिए कोई मंच वगैरह नहीं थी एक टपरियाँ थी उसी में प्रवचन हो जाते थे और सो–पचास लोग आ जाते थे। आज तो साधु लोग पहले से ही इतनी बड़ी मंच, इतना बड़ा पाण्डाल होना चाहिए यह पहले से ही फिक्स कर लेते है, जो मोक्षमार्ग के लिए ठीक नहीं है। जितनी सुविधाएँ बढ़ी हैं उतनी दुविधाएँ भी बढ़ने लगी हैं और रही बात चातुर्मास की तो चाहे कोई श्रीफल भेंट करे या न करे साधु तो कहीं भी चातुर्मास कर सकता है। आज लोगों को आयोजन के लिए बड़ी धर्मशाला चाहिए। चाहे उसमें धर्म रहे या न रहे। यह बहुत बढ़ी बिडम्बना है।सद्भावना ही प्रभावना का कारण बनती है सद्भावना आने से प्रभावना को चाहने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह तो अपने आप ही हो जाती है।
  23. एक कुशल व्यापारी अपनी दुकान ऐसे ही बेटे को सोंपता है जो व्यवहार कुशल हो। जिसमें व्यवहार कुशलता, विनम्रता एवं जिसकी वाणी में मीठापन न हो उस व्यक्ति से कभी भी दुकान नहीं चल सकती। व्यवहार कुशलता एवं विनम्रता प्रत्येक क्षेत्र में अनिवार्य तत्त्व है। धार्मिक क्षेत्र में भी धर्म परम्परा को चलाने के लिए भी व्यवहार कुशलता की आवश्यकता पड़ती है। व्यवहार कुशलता का मूल यह है कि आप सज्जनों की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं पर दुर्जनों की निंदा मत करो। एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि- व्यक्ति को धर्म के रास्ते पर लाने के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। कभी-कभी तो उसके दोषों को छिपाकर उसकी प्रशंसा भी करनी पड़ती है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करो जिससे अपनी दृष्टि मजबूत हो एवं दूसरों को भी सही दृष्टि प्राप्त हो। यदि हमारे पास सदव्यहवार नहीं है तो सामने वाले का सम्यग्दर्शन भी छूट सकता है। इसलिए किसी के दोष छुड़ाना हो, धर्म मार्ग पर लाना हो तो सामने वाले से मित्रवत् व्यवहार करें। अन्त में आचार्य श्री जी ने शिक्षा देते हुए कहा कि यदि किसी के पाप छुड़ाना हो तो उससे मित्रता कर लो फिर धीरे-धीरे पाप छुड़ाओ। पहले उसके गुणों की प्रशंसा करो फिर बाद में कहो देखो हमें आपकी यह बात अच्छी नहीं लगती आप ऐसा मत करो, मैं आपके साथ रहता हूँ, मुझे ऐसा लगा तो कह दिया वाकि अब आप स्वयं समझदार हैं। यह दो पंक्तियाँ हमेशा याद रखें मंदिर में जाना तो पुजारी बनकर जाना कभी भिखारी बनकर नहीं। किसी के दोष छुड़ाना हो तो दोस्त बनकर छुड़ाना दुश्मन बनकर नहीं ।।
  24. रत्नकरण्डक- श्रावकाचार की कक्षा में सामायिक शिक्षाव्रत का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री ने कहा कि- पंचेन्द्रिय के विषयों से, पापों से दूर हटकर अपने मन को पंचपरमेष्ठी एवं आत्मा के चिन्तन में लगाना ही सामायिक ध्यान है। पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों का नाम ही संसार है, इन दोनों से ऊपर उठने का नाम ही मोक्षमार्ग है। इन विषयों की हमेशा उपेक्षा करनी चाहिए। साधु तो हमेशा पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त रहते हैं। श्रावकों को भी आगे चलकर साधु बनना है तो उन्हें भी पंचेन्द्रिय के विषयों से दूर हटना चाहिए। रेहट की घटियों के समान विषयों का क्रम चलता रहता है। एक के बाद एक विषय आते रहते हैं। पंचेन्द्रिय के विषयों की उपेक्षा नहीं की तो आत्मा का ध्यान नहीं लग सकता। तभी किसी श्रावक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि हम श्रावकों से पंचेन्द्रियों के विषय छूटते ही नहीं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- वस्तुतः आप लोगों ने पंचेन्द्रिय विषयों को विष के रूप में माना ही नहीं, इसलिए यह विषय छूटते नहीं हैं। एक बात यह भी है कि बड़े घाव का निशान जैसे एकदम ठीक नहीं होता, वैसे ही पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति एकदम नहीं छूटती है। किसी ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- सामायिक के समय माला फेरते ही मुझे नींद आने लगती है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- माला फेरते वक्त जैसे ही नींद आ जाए तो पुनः प्रारंभ से माला फेरना शुरू करो। बार-बार ऐसा करोगे तो नींद भाग जाएगी। इस प्रकार की शर्त के साथ चलते हैं, तभी निर्दोषता आती है। दूसरी बात यह है कि अधिक भोजन करने वालों को एवं आलसियों को सामायिक, ध्यान नहीं होता। इसलिए सामायिक करना चाहते हो तो ऊनोदर तप करो एवं आलस्य का त्याग करो। यह सुनकर किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी सामायिक में हमारा ध्यान तो लगता ही नहीं है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- आपके पास संकल्प नहीं है। जब तक संकल्प ना लिया जाए तब तक ध्यान हो ही नहीं सकता। संकल्पित मन से ही ध्यान होता है, क्योंकि संकल्पित मन इधर -उधर नहीं जाता एकाग्र हो जाता है। मुनिराज अपने छः आवश्यकों में लीन रहते हैं तो उनका मन (उपयोग) अपने पास ही बना रहता है। गृहस्थ की कुछ शक्ति इधर-उधर मन के द्वारा व्यर्थ चली जाती हैं। तब किसी ने कहा- आचार्य श्री जी हमें नींद भी नहीं आती, आलस्य भी नहीं करते, माला पूर्ण फेर लेते हैं। फिर भी मन इधर-उधर जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा- मन जाता है तो जाने दो, शरीर और वचन को संयत बनाकर रखे धीरे-धीरे मन भी वश में हो जाएगा। इसी बीच मुनिश्री प्रवचन सागर जी महाराज ने एक दोहा सुनाया मन जाय तो जाय, तू मत जाय शरीर। उतरी धरी कमान, तो क्या करेगा तीर।। यह दोहा सुनकर आचार्य श्री जी ने कहा- बहुत अच्छा, इस दोहे को हमेशा याद रखो। मन भटके तो भी माला फेरना मत छोड़ो।
  25. आचार्य श्री ने एक दिन बताया कि कुछ लोग हमसे पूछते है कि हमको धर्मध्यान करना नहीं आता। तो आज मैं बताता हूँ। धर्मध्यान कैसे किया जाता है। दूसरे का भला एवं अच्छा सोचो यह तो धर्मध्यान है। धर्मध्यान बहुत सस्ता है। आप आत्मा का ध्यान न कर पाते, लेकिन दूसरों के दुःख दूर हों, सभी सुखी रहें इस प्रकार का तो सोच सकते हैं। यही तो अपाय विचाय धर्मध्यान है। धर्म का अर्थ स्वभाव होता है। शरीर और जगत के स्वभाव का चिंतन करो जिससे संवेग और वैराग्य की प्राप्ति होगी एवं धर्मध्या भी होगा। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी दूसरों के दुःख देखने में नहीं आते बल्कि दोष देखने में आते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- अपध्यानी की दृष्टि में मात्र दोष ही देखने में आते हैं, गुण नहीं आते। क्योंकि कषाय के कारण मुनिराज में भी रत्नत्रय नहीं दिखता, दोष ही दिखते हैं। जैसे बुखार के आ जाने पर दूध आदि मीठी चीज भी कड़वी लगती है और स्वस्थ्य हो तो मैथी भी मीठी लगती है। इसलिए अपध्यान एवं कषाय का त्याग करते हुए दूसरों के दोषों को न देखकर सभी का भला हो ऐसा विचार करना चाहिए। सभी का भला सोचने से अपना भला हो ही जाएगा। जैसे अपने अड़ोस-पड़ोस में यदि भजन चल रहे हो तो हमें भी सुनाई दे सकते हैं। अगरबती की खुशबू आ सकती है एवं धर्मध्यान के योग्य वातावरण मिल सकता है।
×
×
  • Create New...