एक कुशल व्यापारी अपनी दुकान ऐसे ही बेटे को सोंपता है जो व्यवहार कुशल हो। जिसमें व्यवहार कुशलता, विनम्रता एवं जिसकी वाणी में मीठापन न हो उस व्यक्ति से कभी भी दुकान नहीं चल सकती। व्यवहार कुशलता एवं विनम्रता प्रत्येक क्षेत्र में अनिवार्य तत्त्व है। धार्मिक क्षेत्र में भी धर्म परम्परा को चलाने के लिए भी व्यवहार कुशलता की आवश्यकता पड़ती है। व्यवहार कुशलता का मूल यह है कि आप सज्जनों की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं पर दुर्जनों की निंदा मत करो।
एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि- व्यक्ति को धर्म के रास्ते पर लाने के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। कभी-कभी तो उसके दोषों को छिपाकर उसकी प्रशंसा भी करनी पड़ती है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करो जिससे अपनी दृष्टि मजबूत हो एवं दूसरों को भी सही दृष्टि प्राप्त हो। यदि हमारे पास सदव्यहवार नहीं है तो सामने वाले का सम्यग्दर्शन भी छूट सकता है। इसलिए किसी के दोष छुड़ाना हो, धर्म मार्ग पर लाना हो तो सामने वाले से मित्रवत् व्यवहार करें।
अन्त में आचार्य श्री जी ने शिक्षा देते हुए कहा कि यदि किसी के पाप छुड़ाना हो तो उससे मित्रता कर लो फिर धीरे-धीरे पाप छुड़ाओ। पहले उसके गुणों की प्रशंसा करो फिर बाद में कहो देखो हमें आपकी यह बात अच्छी नहीं लगती आप ऐसा मत करो, मैं आपके साथ रहता हूँ, मुझे ऐसा लगा तो कह दिया वाकि अब आप स्वयं समझदार हैं। यह दो पंक्तियाँ हमेशा याद रखें
मंदिर में जाना तो पुजारी बनकर जाना
कभी भिखारी बनकर नहीं।
किसी के दोष छुड़ाना हो तो
दोस्त बनकर छुड़ाना दुश्मन बनकर नहीं ।।