ग्रंथराज समयसार की वाचना चल रही थी। उस समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- मुनिराजों को अधिक समय आत्मध्यान में ही निकालना चाहिए। अनावश्यक प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए। मन-वचन एवं काय से प्रवृत्ति न करना ही मोक्षमार्ग है। यदि फिर भी प्रवृत्ति करना पड़े तो प्रतिक्रमण, देव-वंदना आदि करना चाहिए। इस प्रकार की सावधानी मोक्षमार्ग में वरदान सिद्ध होती है। प्रवृत्ति स्वयं करे न, बल्कि करना पड़े तो समझना निरीहता है। यही निरीहता (निर्मोहपना) सच्चे साधक की पहचान है।
तब किसी श्रावक ने शंका व्यक्त करते हुए गुरूवर से पूछा कि हे गुरूवर हम व्रती-श्रावकों को क्या करना चाहिए? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- व्रती श्रावकों को भी सांसारिक कार्यों में रचना-पचना नहीं चाहिए। तभी उसके अंदर मुनि बनकर शुद्धोपयोग प्राप्ति की भावना बन सकती है। जो जितने बड़े होते हैं उनमें उतना अधिक बड़प्पन होता है। मोक्षमार्ग में जिनकी कषाय जितनी अधिक कम होती है, वे उतने अधिक बड़े माने जाते हैं। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- तत्त्वार्थ-सूत्र ग्रंथ के चौथे अध्याय के 21 वें सूत्र में बताया है कि- "गतिशरीर, परिग्रहाभिमानतोहीनाः" अर्थात् देव गति में ऊपर-ऊपर के देवों में गति-आवागमन, शरीर की ऊँचाई, अभिमान एवं परिग्रह कम होता चला जाता है। बड़े-बड़े देवों में अभिमान, परिग्रह आदि कम होते चले जाते हैं, लेकिन आप लोगों में बढ़ते चले जाते हैं। बड़ों की कषाय कम होना चाहिए तभी तो बड़े हो इस ओर ध्यान देना चाहिए। सहन करने की क्षमता बड़ों में ज्यादा होना चाहिए। जिसका मन भर गया (वश में हो गया) उसे कुछ भी कह दो तो बुरा नहीं लगता। यही बड़प्पन है।
आचार्य भगवन् स्वयं अधिक से अधिक समय आत्मध्यान में रहते हैं उपवास आदि के दिन तो नासादृष्टि किए हुए दिनभर ध्यान में बैठे रहते हैं और हम सभी साधकों को इसी प्रकार की शिक्षा समय-समय पर देते रहते हैं। आवकों को भी अभिमान और परिग्रह के त्याग का उपदेश देते है धन्य है ऐसे गुरूवर ...।