कोई दुःखों से उत्पीड़ित न हो, किसी को कभी कष्ट न हो, सभी का कल्याण हो, सभी पापकर्मों से छूटे ऐसी मति का नाम मैत्री है। परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषो मैत्री। दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है।
मैत्री की भावना को लेकर आचार्य श्री जी ने कहा कि- मैत्री भावना का अर्थ है- दूसरे कभी पाप न करें एवं कभी किसी पर संकट न आए।दूसरों की संकट के समय में सहायता करूं ऐसी भावना नहीं भाना बल्कि दूसरों पर संकट आए ही नहीं ऐसी भावना भानी चाहिए। रामायण का प्रसंग सुनाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि रावण से युद्ध जीतने के बाद रामचन्द्र जी, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, सुग्रीव आदि सभी एक साथ बैठे हुए थे। आपस में चर्चा चल पड़ी कि इस विजय में राम का हनुमान, सुग्रीव आदि ने बहुत सहयोग दिया। सभी ने सोचा रामचन्द्र जी अब सभी के संकट के समय साथ देगें। इसी बीच रामचन्द्र जी ने सभी के सहयोग की सराहना करते हुए कहा कि मैं आप लोगों के संकट के समय कभी काम न आऊँ ऐसी भावना करता हूँ। यह सुनकर सभी लोग अवाक रह गये कि रामचन्द्र जी यह आपकी कैसी कृतघ्नता है। थोड़ा रुककर रामचन्द्र जी बोले कि- मैं यह नहीं चाहता कि मैं आपके संकट के समय काम आऊँ, बल्कि ऐसी भावना भाता हूँ कि आप पर कभी संकट ही न आए। आचार्य श्री ने कहा- इसे कहते हैं सच्ची मित्रता।