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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विसंवाद नहीं वात्सल्य

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    सम्यग्दर्शन के वात्सल्य अंग के बारे में व्याख्यान करते हुए | आचार्य श्री ने कहा कि- अपने सधर्मी के प्रति कपट रहित, निस्वार्थ प्रेम होना ही वात्सल्य कहलाता है। विसंवाद को छोड़कर वात्सल्य अंग को अपनाओ तभी अशुभ कर्म से बच सकते हो। वात्सल्य के अभाव में सम्यग्दर्शन हृदय विहीन शरीर की भाँति हो जाता है। यदि सधर्मी आपस में हिलमिलकर रहते हैं तो लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, धर्म की प्रभावना होती है एवं धर्म मार्ग में बढ़ने के लिए उत्साह मिलता है। जैसे गाय बछड़े से निस्वार्थ प्रेम करती है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि अपने सधर्मी से प्रेम करता है।

     

    तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी वात्सल्य अंग के बारे में गाय-बछड़े का उदाहरण ही क्यों आता है। आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- माँ और बेटे में स्वार्थ रहित प्रेम होता है, लेकिन देखने में नहीं आता। माँ का स्वार्थ रहता है कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा और बेटे का स्वार्थ रहता है कि अंत में सारी संपत्ति मुझे मिले। यदि आप कहते हो कि सभी ऐसे नहीं होते हैं तो मैं कहता हूँ अपनी आँखों का कचरा या ललाई अपने को नहीं दिखती। लेकिन गाय और बछड़े में ऐसा कोई स्वार्थ नहीं होता। गाय अपने बछड़े से इतना प्रेम करती है कि शेर से वादा करके आती है कि मैं अपने बछड़े को दूध पिलाकर आऊँगी फिर खा लेना और बछड़ा शेर से कहता है मेरे होते हुए मेरी माँ को नहीं खा सकते पहले मुझे खाइए। गाय भी यही कहती है। इस प्रकार का निस्वार्थ प्रेम इंसानों में देखने को नहीं मिलता। इसलिए गाय और बछड़े का प्रेम प्रसिद्ध है। इसलिए वात्सल्य अंग के लिए उदाहरण के रूप में दिया जाता है।

     

    आचार्य श्री जी ने जीवन्धर कुमार का उदाहरण देते हुए कहा कि- जीवन धारयति इति जीवन्धरः। अर्थात् जीवन को धारण करने वाले अच्छे अलंकार जीवन के आभूषण हैं। जीवन्धर जीवों की रक्षा करने वाला था। उसने कुत्ते को भी णमोकार मंत्र सुनाकर उसका उपकार किया था। जीवों का दया धर्म ही सच्चा अलंकार है। अंत में आचार्य श्री जी ने बहुत बड़ी शिक्षा देते हुए कहा कि यदि स्वार्थ के साथ उपकार होता है तो फिर भी ठीक है, लेकिन यदि स्वार्थ के साथ वात्सल्य होता है तो यह गलत है।


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