देवपूजा का प्रकरण चल रहा था तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- आहारदान में पूजा गर्भित हो जाती है, लेकिन वह मात्र मुनिराज की होती है। इसलिए देवपूजा को अलग से रखा है। मंदिर जी एवं चौके में पूजन करते समय चावल आदि द्रव्य को जमीन पर नहीं गिराना चाहिए। वीतराग मुद्रा के दर्शन, पूजन करने से वीतरागता के भाव उमड़ने चाहिए।
प्रतिमा जी के एकदम सामने खड़े होकर दर्शन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से दर्शन करना चाहिए जिससे अन्य लोगों को दर्शन करने में बाधा नहीं आए। भगवान् के चरणों में माथा नहीं रखना चाहिए, दूर से दर्शन करना चाहिए। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि आचार्य श्री जी भगवान् के चरणों के ऊपर चन्दन आदि लगा सकते हैं क्या ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान देते हुए कहा कि- भगवान् के चरणों में समर्पित करने को कहा है, उनके चरणों में लेप करने को नहीं जैसे कहा है कि अपने आप को प्रभु के चरणों में समर्पित करो तो क्या उनके चरणों पर जाकर बैठ जाओगे। भगवान के दर्शन एवं भक्ति विवेक पूर्वक होना चाहिए। विवेक के बिना सही फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। वैसे भी दाता के सात गुणों में विवेक (विज्ञान) को मुख्य गुण माना गया है। विवेक के बिना शेष छह गुण कोई मायना नहीं रखते।