सल्लेखना का प्रकरण चल रहा था तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- व्रतों का पालन 355 दिनों की पढ़ाई जैसा है एवं सल्लेखना 10 दिन की परीक्षा जैसी है। इसलिए सल्लेखना व्रत को श्रावक के बारह व्रतों में रखा है। जैसे कोई व्यक्ति पूर्ण पढ़ाई के बाद भी यदि परीक्षा नहीं देता है तो उसकी योग्यता नहीं आंकी जा सकती। क्षमता, योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा से ही होता है। जैसे सालभर मन लगाकर पढ़ाई करने वाले को परीक्षा की तैयारी करो ऐसा नहीं कहना पड़ता, वैसे ही निर्दोष व्रतों का पालन करने वालों को सल्लेखना की तैयारी करो ऐसा नहीं कहना पड़ता।
आस्था एवं आचरण इन दोनों की परीक्षा होती है इसलिए आस्था एवं आचरण निर्दोष एवं मजबूत होना चाहिए। ज्ञान कम भी हो तो चल जाएगा। आज अध्ययन की मुख्यता समाप्त होती जा रही है। विद्यार्थी 20 प्रश्न-पत्र से ही पढ़कर पास होना चाहता है। इसमें ज्ञान की नहीं परीक्षा की ही मुख्यता रह जाती है। इससे सिद्ध होता है कि पढ़ाई का स्तर गिर गया है। ठोस अध्ययन की कमी होती जा रही है। उसी प्रकार आज श्रावक भी जीवन में व्रतों का पालन नहीं करना चाहते, बल्कि अंत समय सल्लेखना के लिए आ जाते हैं।
आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि- जो कुछ पढ़ा है उसका प्रसंग एवं अर्थ याद रहना चाहिए, वरन् सही क्या है। गलत क्या है? उसका निर्णय नहीं किया जा सकता है। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती हैं कि जीवनभर निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए अंत में सल्लेखना अवश्य लेना चाहिए।