धर्म पालन करते समय सभी लोग हमसे संतुष्ट हो जायें ऐसी भावना छोड़कर आत्मसंतुष्टि प्राप्त करना चाहिए कुछ लोग धर्मात्मा, व्रती बनकर दूसरों को संतुष्ट करने की सोचते रहते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कभी भी किसी भी धर्मात्मा से संतुष्ट होते ही नहीं है। उन्हें धर्मात्माओं से कुछ न कुछ शिकायत बनी ही रहती है।
एक दिन आचार्य श्री जी ने कहा कि इस महान् धर्म को प्राप्त करने के बाद हम साधकों को कैसा अनुभव होता है, यह सभी के सामने रखा नहीं जा सकता। उनके सामने तो मुख की प्रसन्नता रखिये ताकि उन्हें लगे कि ये अपने आप में संतुष्ट हैं। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन शब्दों के माध्यम से नहीं हो सकता। आस्था के माध्यम से देखना चाहो तो दिख सकता है। दूसरों को संतुष्ट करने के लिए धर्म नहीं किया जाता, बल्कि आत्मसंतुष्टि के लिए किया जाता है।" जिसे धर्म करते हुए स्वयं में आत्मसंतुष्टि नहीं है वह दूसरों को भी संतुष्ट नहीं कर सकता। साधक को अपनी चर्या में संतुष्ट रहना चाहिए हर चर्या में असंख्यात गुनी कर्म की निर्जरा होती है। किसी श्रावक ने कहा कि- हम श्रावकों को संतुष्टि नहीं मिलती। तब आचार्य श्री ने कहा कि- आप लोगों को भी व्रत, प्रतिमा आदि धारण करना चाहिए श्रावकों की भी प्रतिमा लेते ही असंख्यात गुनी कर्म निर्जरा प्रारंभ हो जाती है इसमें संतुष्ट रहना चाहिए। अतीन्द्रिय आत्मिक सुख आदि मिलेगा लेकिन वर्तमान में जो आत्मसंतुष्टि मिल रही है वह कम नहीं है। एक बात हमेशा याद रखो जिसे धर्म करते हुए आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति नहीं होती उसे कोई भी कल्याण का रास्ता नहीं दिखा सकता। सम्यग्ज्ञानी वही है जो धर्म करते हुए संतुष्ट है, क्योंकि वह जानता है कि
दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान।
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।।