आचार्य श्री ध्यान पर जोर देते हुए कहते हैं कि- मुनिराजों को ध्यान करते हुए निर्विकल्प समाधि की ओर बढ़ना चाहिए। निर्विकल्प समाधि में बैठ जाओ शुद्ध हो जाओगे परम सामायिक, निर्विकल्प समाधि उन्हीं को प्राप्त हो सकती है जिनके पास महाव्रत हो, सामायिक चारित्र हो, शुद्धोपयोग में कर्म वैसे ही धुल जाते हैं जैसे वॉशिंग मशीन में कपड़े धुल जाते हैं। ध्यान में लीन जीव के कर्म उदय में आकर झड़ जाते हैं।
यह सुनकर किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि वर्तमान में जीव पाप, दोष नहीं करता फिर भी उसे अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक दुःख क्यों भोगना पड़ता है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण जैसे आप मान लो किसी नदी के किनारे बैठे हो। अभी यहाँ वर्तमान में पानी नहीं गिर रहा लेकिन पूर्व के (आगे वाले) गाँव में बहुत पानी गिर गया इसलिए नदी में बाढ़ आ गई और आप उसमें बह गए इसलिए यदि वर्तमान में आपको दुःख भोगना पड़ रहा है तो समझिये कि यह पूर्व में किए गए कर्मों का फल है। यदि इस फल को शिकायत एवं विषमता के साथ भोगोगे तो पुनः कर्म का बंध होगा और संक्लेष परिणाम भी अधिक होगें। यदि आपने कर्मों के उदय में समता परिणाम बनाए रखा तो उदय में आए हुए कर्म, निर्जरा को प्राप्त हो जाएगे और नूतन कर्म का बंध ही होगा।