मनुष्य जीवन एक नाव है और संयम इसकी पतवार है। जैसे पतवार के बिना नाव को सही दिशा दी जा सकती वैसे ही संयम के बिना जीवन की दिशा प्रदान नहीं की जा सकती। जैसे नाव पतवार के अभाव में दिशाविहीन होकर भंवर में फंसकर डूब जाती है वैसे ही संयम रूपी पतवार के अभाव में यह जीवन की नौका रागद्वेषादि। भंवरों में फंसकर संसार में डूब जाती है। एक बार आचार्य श्री जी का ससंघ विहार हो रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ी जिसमें नाव चल रही थी, नदी के बीच में भंवर पड़ रही थी। नाविक पतवार के माध्यम से नाव को भंवर से बचाता हुआ नाव को खेता जा रहा था।
यह देखकर मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि- देखो आचार्य श्री जी यह नाविक कितनी कुशलता से अपनी नाव को भंवरों से बचाता जा रहा है तब आचार्य श्री जी ने इस बात को अध्यात्म में घटित करते हुए कहा कि- नाविक नाव चलाता रहता है और नदी में भंवर उठते रहते हैं। नाविक उन्हें पतवार के माध्यम से दबाता रहता है। उसी प्रकार ज्ञानी (मुनिराज) के कर्मों के विभिन्न अनुभाग उदय में आते रहते हैं ज्ञानी उसे संयम रूपी पतवार से दबाता रहता है। कर्म के उदय में समता रखकर कर्मों का संवर और निर्जरा कर लेता है। वही दूसरा अज्ञानी (असंयमी) संयम रूपी पतवार के अभाव में कर्मोदय में हर्ष-विषाद करके संसार भंवर में फंसता चला जाता है। आचार्य श्री जी ने हम सभी साधकों को कितनी बड़ी शिक्षा इस दृष्टांत के माध्यम से दी है कि ज्ञानी, संयमी रही है जो कर्मोदय से प्रभावित न होकर समता परिणामी बनकर कर्मों के संवर एवं निर्जरा में लगा हुआ हो।