साधु के दो ही काम होते हैं- ज्ञान और ध्यान जो ज्ञान, ध्यान एवं तप में लीन रहता है उसे साधु कहते हैं। इसी प्रकार श्रावक के भी दो मुख्य कर्तव्य होते हैं- दान और पूजा। जो श्रावक प्रतिदिन दान, पूजा करता है वही श्रावक शोभा को प्राप्त होता है | इसी विषय पर व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि श्रावक को प्रतिदिन शास्त्र-स्वाध्याय भी करना चाहिए। मंदिरजी में प्रतिदिन सामूहिक पाठ करने एवं शास्त्र-स्वाध्याय करने की प्रथा डालनी चाहिए। शास्त्र स्वाध्याय में एक व्यक्ति शुद्ध वस्त्र पहनकर शास्त्र का वाचन करें एवं सभी शांति के साथ बैठकर सुनें। यह शास्त्र-स्वाध्याय एवं स्तोत्रादि के पाठ की प्रथा प्रत्येक गाँव, नगर, शहर में होनी चाहिए।
स्वयं ज्ञानमृत भोजन बनाओ और दूसरों को खिलाओ, जो दूसरों को देता है उसका ज्ञान कभी कम नहीं होता। स्वाध्याय कराने से, पाठशाला पढ़ाने से ज्ञान का क्षयोपशम बढता है, धर्म की प्रभावना होती है। श्रोताओं की जिज्ञासाओं से स्वयं की एवं दूसरों की स्मृति बढ़ती है। प्रस्तुतिकरण की कला आ जाती है। तत्त्व की बात करने से बैरी का पारा भी ठण्डा हो जाता है, कलह मिट जाती है, वातावरण शांत हो जाता है।
किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि- आजकल स्वाध्याय करने वाले लोग कषाय ज्यादा करते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि इसलिए तो कह रहा हूँ कि धर्मामृत का पान करो। आचार्यों के द्वारा दिया गया धर्मामृत पीते जाओ कषाय रूपी विष अपने आप समाप्त हो जावेगा। लेकिन एक सावधानी हमेशा रखना आचार्य प्रणीत ग्रंथ का ही स्वाध्याय करना। तभी कषायें समाप्त होगी।