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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की अगवानी के लिए सुबह से जबलपुर रोड पहुंचे थे अनुयायी। दमोह - संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का गुरूवार को शहर में मंगल प्रवेश हुआ तो उनकी एक झलक पाने के लिए सड़कें थम गईं। जबलपुर नाका पर इतनी भीड़ जमा हो गई कि उसे नियंत्रित करने में पुलिस को पसीना आ गया। मुठिया तिराहा से आचार्यश्री के कदम दमोह की ओर बढ़े और जबलपुर नाका से होते हुए बेलाताल मार्ग से जैन धर्मशाला पहुंचे। जैन धर्मशाला तक आचार्यश्री मंगल अगवानी के लिए सड़क के दोनों ओर हजारों श्रद्धालु खड़े थे। आचार्य श्री की एक झलक पाने के लिए श्रद्धालु पलक पावड़े बिछाकर खड़े थे। इससे पहले सुबह 4 बजे से ही श्रद्धालुओं का जबलपुर रोड पर जमा होना चालू हो गया था। लोगों ने जगह-जगह स्वागत द्वार बना रखे थे। जैसे ही आचार्यश्री जबलपुर नाका पहुंचे और सीधे बेलाताल मार्ग की ओर मुड़ गए तो समाज के लोग खुशी से झूम उठे। दरअसल समाज के लोग इस तैयारी में थे कि आचार्यश्री किल्लाई नाका जाएंगे, मगर वहां न जाकर आचार्यश्री सीधे नन्हें जैन मंदिर की ओर चले गए। देर शाम आचार्यश्री विहार करते हुए हिन्नाई उमरी पहुंचे। वहां से उन्हें ससंघ के साथ उनका विहार टीकमगढ़ पपौरा जी की ओर चल रहा है। इस बीच आचार्यश्री श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन नन्हे मंदिर पहुंचे। आचार्य श्री ने मंदिर जी में प्रवेश कर मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन किए। उसके बाद संघ ने भी श्रीजी के दर्शन किए। यहां आचार्यश्री ने अपने संक्षिप्त प्रवचन दिए। शुक्रवार शाम गुरु जी के कदम बटियागढ़ मार्ग की ओर बढ़ गए। आचार्य श्री का संघ टीकमगढ़ जिलेेे में पपौरा जी जा रहा है। 34 साल बाद आचार्यश्री टीकमगढ़ जा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रभाषा हिंदी में होना चाहिए आचार्यश्री ने अपने प्रवचनों में बताया कि विधानसभा में प्रवचनों के दौरान भी उन्होंने कहा था कि देश की शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रभाषा हिंदी में होना चाहिए। भले ही इमसें अंग्रेजी एक विषय हो। यहां पर जो विद्यापीठ की स्थापना की जा रही है उसमें बच्चों को प्रवेश दिलाएं न कि एडमिशन। 40 मिनट में जुड़ गए एक करोड़ रुपए दोपहर में सामयिक के बाद आचार्य श्री का मंगल विहार घंटाघर, स्टेशन चौराहा, तीन गुल्ली होते हुए सागर नाका गांधी आश्रम की ओर हुआ। जहां पर विद्यायतन विद्या पीठ के निर्माण के लिए भूमि पूजन शिलान्यास कार्यक्रम आचार्यश्री के सानिध्य में हुआ। शाम कार्यक्रम में 4.40 बजे आचार्यश्री कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे। कार्यक्रम के दौरान विद्या पीठ के लिए 40 मिनट में एक करोड़ रुपए से ज्यादा दान की राशि जुड़ गई। आचार्य श्री की दिव्य देशना का लाभ श्रद्धालुओं को मिला। इसके बाद इमलाई बायपास मार्ग की ओर से आचार्य श्री का मंगल विहार हो गया। बताया गया कि गुरु जी का रात्रि विश्राम उमरी गांव हुआ। वहां से प्रातः बेला में आचार्य श्री का मंगल विहार नरसिंहगढ़ की ओर होगा। नरसिंहगढ़ में आचार्य श्री की आहारचर्या होगी।
  2. आज वर्तमान में प्राय: अधिकांश नगरों में पानी की जटिल समस्या बनी हुई है। कहीं-कहीं तो पानी 1-2 कि.मी. दूर से लाना पड़ता है। कुएँ सभी सूखते चले जा रहे हैं, कुछ कुएँ तो पूर (बंद कर) दिये गये हैं। नल की व्यवस्था आ गयी है जिसके कारण पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं। एक दिन आचार्य श्री ने बताया कि पानी का स्तर क्यों नीचे गिरता जा रहा है। क्योंकि, मानी व्यक्ति पानी-पानी नहीं हो पा रहा है इसलिए पानी का स्तर नीचे जा रहा है और पानी की समस्या बन गई। दूसरे के दुःख को देखकर आज व्यक्ति की आँखों से आँसू नहीं आते। दया, करुणा, सौहार्दपूर्ण व्यवहार के अभाव में प्रकृति पर गलत प्रभाव पड़ रहा उन्होंने बताया-एक व्यक्ति के यहाँ कुआँ था, उसमें पानी भी बहुत था। लेकिन, वह व्यक्ति हृदय शून्य था, दया से हृदय भीगा नहीं था। लोग उसके कुएँ से पानी भरने जाते । एक बार उसने कह दिया मेरे कुएँ से आप लोग पानी नहीं भर सकते। दूसरे ही वर्ष में उसके कुएँ का पानी गायब हो गया, कुआँ सूख गया और दूसरे कुओं में पानी लबालब भर गया। ध्यान रखना- भाव, दुर्भाव होने से स्वभाव की गति भी नीचे की ओर हो जाती है। भूकंप के पीछे कारण क्या है ? शोधकर्ताओं ने बताया कि-हजारों पशुओं का वध और वनों की कटाई से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया इसलिए भूकंप आ रहे हैं। वेदना का अतिरेक होने पर प्रलय होने में देर नहीं लगती। कषाय, वेदना, समुद्घात में शक्ति एकत्रित की जाती है, जैसे बादलों के संघर्ष से वर्षा होने लगती है। आप लोगों का कलेजा नहीं काँप रहा है इसलिए धरती कांप रही है। दूसरे के दुख को देखकर जिसका हृदय कंपित हो उठे उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार है पानी का अपव्यय न करना। पानी खर्च करिये लेकिन उसके अपव्यय से बचिये। आचार्य भगवन् सचेत कर रहे हैं कि-धरती पर रहने वाला प्राणी अपनी प्रकृति (स्वभाव) बदलता जा रहा है। करुणा, दया जैसे भाव आज समाप्त होते जा रहे हैं सद्भाव, दुर्भाव में बदलते जा रहे हैं इसलिए अकाल, भूकंप जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यदि व्यक्ति अपनी प्रकृति को बदल दे, पुनः सौहार्दपूर्ण व्यवहार करने लगे तो प्रकृति उसका साथ देने लगेगी। आज हमारे देश में संस्कारों का स्तर नीचे गिरता चला जा रहा है इसलिए प्रकृति का, पानी का स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है। हमें संभलना होगा और दया, करुणा, सौहार्दपूर्ण व्यवहार को पुनः जीवित करना होगा इसी से अपना, देश तथा समाज का कल्याण होगा। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 16.10.2005)
  3. आशा और विश्वास, ये शब्द बोलने मे ऐसे लगते हैं जैसे-दोनों एक ही हों। लेकिन, जब इनके अर्थ की ओर दृष्टिपात करते हैं तब पाते हैं कि उनका कुछ अलग ही अर्थ हुआ करता है। आशा का अर्थ है - कुछ पाने की इच्छा रखना। और, विश्वास का अर्थ है - जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना। जिसमें संदेह को कोई जगह नहीं दी जाती। कुछ भी इच्छा न रखकर मात्र प्रभु पर विश्वास रखने वाले को धर्म प्राप्त होता है। इसलिए, किसी लोभ, आशा, तृष्णा को लेकर धर्म को धारण करने का भाव नहीं रखना चाहिए। आचार्य महाराज एक दिन बता रहे थे कि-इस धर्म को कोई निकट भव्य ही धारण कर पाता है। धर्म की पवित्रता को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि, महान आत्माओं के द्वारा ही इसका साक्षात्कार किया गया है। हाँ, ध्यान रखो-प्रभु के दरबार में आशा मत रखना किन्तु, उन पर विश्वास अवश्य रखना। इसलिए हम सभी धर्म प्रेमी बंधुओं को प्रभु के दरबार में कुछ इच्छा, कामना लेकर नहीं आना चाहिए किन्तु विश्वास के साथ उनके चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए। भगवान का दास कभी उदास नहीं होता क्योंकि वह संसार भोगों की आस नहीं रखता वह तो इस संसार भोगों से सदा उदासीन रहता है। गरु चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास। अक्षय सुख के विषय में, संशय का हो नाश॥ (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 4 अक्टूबर 2005, मंगलवार)
  4. किसी सज्जन ने आचार्य भगवन्त से कहा - आज पुनः देश भोग से योग की ओर लौट रहा है। आज जगह-जगह पर योग शिविर आयोजित किये जा रहे हैं। योगासन के माध्यम से लोगों को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी-से-बड़ी बीमारियों में भी लोगों को योगाशन से लाभ मिल रहा है। आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले कि "योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय नहीं अंतर्जगत है।" योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को बाह्य जगत से हटाकर अंतर्जगत की ओर ले आना। यह कितनी गम्भीर बात गुरुदेव के श्रीमुख से हम लोगों को उपलब्ध हुई, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतर्दृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मुखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है-योग के माध्यम से मन-वचनकाय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना। मैंने प्रभु से कहा हे प्रभु! मैं क्या भगवान बन सकता हूँ? उत्तर नहीं मिला। मैंने फिर कहा - हे प्रभु! मैं मंदिर बन सकता हूँ? उत्तर नहीं मिला। मैंने पुनः कहा - हे प्रभु! मैं भगवान नहीं, मंदिर नहीं बन सकता तो मंदिर का एक पत्थर तो बन सकता हूँ ? उत्तर मिला - हाँ वेदी में विराजमान पत्थर की तरह..... (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 30.08.2005)
  5. निष्काम भक्ति अपने आप में महत्वपूर्ण मानी जाती है। आज प्राय: देखा जाता है कि-व्यक्ति कुछ न कुछ कामना, इच्छा रखकर भक्ति करता है। बहुत कम लोग हैं जो मात्र अपना कर्त्तव्य समझ कर प्रभु की भक्ति पूजन करते हैं। प्रभु से कुछ मांगना एक अविवेक ही है जैसे वृक्ष के सामने खड़े होकर छाया मांगना। प्रभु की भक्ति से सब कुछ प्राप्त हो जाता है। भगवान कुछ नहीं देते बल्कि, हमारी भक्ति के भावों के माध्यम से हमें प्राप्त हो जाता है। कहा भी है जो मन से पूजा करता है, पूजा उनको फल देती है। प्रभु पूजा भक्त पुजारी के सारे संकट हर लेती है। एक बार एक सज्जन ने आचार्य गुरुदेव से पूँछा - आचार्य गुरुदेव सभी लोग प्रभु के सामने कुछ ना कुछ याचना करते हैं आखिर यह सब करना चाहिए या नहीं। यदि प्रभु से कुछ मांगना है तो क्या मांगें ? आचार्य गुरुदेव ने कहा - भगवान के सामने ऐसी मांग करें ताकि दुबारा मांगना न पड़े “वन्दे तदगुण लब्धये"। हे प्रभु! आपको नमस्कार कर रहा हूँ मात्र आपके गुणों की प्राप्ति के लिये। प्रभु के पास रत्नत्रय रूप ऐसी निधियाँ हैं कि अनादि काल की निर्धनता समाप्त हो जाती है। और, आत्म वैभव उपलब्ध हो जाता है। ठीक इसी प्रकार बन्धुओं हमें भी वीतरागी प्रभु के चरणों में भिखारी नहीं भक्त बनकर जाना चाहिए। क्योंकि, प्रभु की भक्ति से जब मोक्ष सुख मिल सकता है तो संसार का सुख क्यों न मिलेगा? उसकी कामना प्रभु के सामने नहीं करना चाहिए मात्र आस्था के साथ भक्ति करते जाना चाहिए। भगवान के भक्त के पास संसार की सारी सम्पत्तियाँ वैसे ही सिमट कर चली आती हैं जैसे बिना बुलाये सागर के पास नदी-नाले चले आते हैं। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 3 अक्टूबर 2005, सोमवार)
  6. प्रवचन के पूर्व किसी सज्जन ने दान के बारे में अपनी बात रखी। हँसी के तौर पर उन्होंने कहा - बुन्देलखण्ड के लोग बड़े कंजूस हैं ये दान नहीं देते। यह सुनकर आचार्य गुरुदेव मन ही मन मुस्कुराने लगे और मंद-मंद मुस्कान उनके चेहरे पर आ गयी तो सभी सभा में बैठे श्रद्धालु गण हँसने लगे। आचार्य महाराज ने प्रवचन के समय कहा - अभी एक सज्जन कह रहे थे कि ये बुन्देलखण्ड के लोग धन का त्याग नहीं करते। देखो (मंचासीन सभी मुनिराजों की ओर अंगुली का इशारा करते हुए कहा) बुन्देलखण्ड वालों ने हमें चेतन धन दिया है। ये इतनी बड़ी दुकान है। आप कह रहे थे कि ये दान नहीं करते। उन्मुक्त हँसी के साथ बोले- ये बुन्देलखण्ड के श्रावक जड़ का नहीं चेतन धन का दान करते हैं। हमारी यहाँ अच्छी दुकान चलती है इसलिए तो बुन्देलखण्ड छोड़ा नहीं जाता है। खूब भगवान की प्रभावना होती है। फिर थोड़ा रुककर बोले कि-भगवान की क्या प्रभावना ? होनहार भगवान को तैयार करना ही भगवान की प्रभावना है। आचार्य गुरुदेव जड़ को महत्व नहीं देते है। 'चेतन' को धन की संज्ञा देते हैं। आत्म वैभव ही सच्चा वैभव है और जिन्हें वह प्राप्त है उन्हें अन्य किसी वैभव की जरूरत नहीं। आत्म वैभव के प्राप्त होते ही दुनियाँ के वैभव फीके लगने लगते हैं। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, त्याग धर्म 15.09.2005)
  7. एक सज्जन ने गुरुदेव से पूँछा - गुरुदेव हम घर गृहस्थी में रहते हैं धर्म भी करते हैं। लेकिन शांति नहीं मिलती, संक्लेश बहुत हो जाता है। आचार्य श्रीजी यह सुन कुछ क्षण मौन रहे - फिर बोले जिसने अहित की सामग्री के साथ अनुबंध कर लिया है उसे क्लेश के अलावा और कुछ नहीं मिल सकता। जो पञ्चेन्द्रिय के विषयों में लगा है, ततूरी (गर्मी में तपी हुई जमीन) में भटक रहा है, उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती। शांति का रास्ता तो निरालम्ब होने पर प्राप्त होगा। पर में रहने वाला व्यक्ति हमेशा परास्त होता चला जाता है। उन्होंने पुन: कहा- नहीं गुरुदेव हम ज्यादा मोह नहीं रखते घर गृहस्थी से। तब आचार्य गुरुदेव ने कहा - बिना कारण के कार्य नहीं हुआ करता, ईंधन के बिना अग्नि नहीं रह सकती। अशांति और क्लेश मौजूद है तो इससे सिद्ध होता है कि कहीं न कहीं राग/अनुबंध विद्यमान है। सच है संसार में संयोग ही दुःख का कारण है। यह प्राणी संसार में शरीर से और शरीराश्रित व्यक्तियों से/वस्तुओं से राग भाव को / संयोग को प्राप्त करके हमेशा दुःखी रहता है। ऐसा श्रद्धान रखने की प्रेरणा गुरु महाराज के श्रीमुख से प्राप्त होती है वे हमेशा निरालम्ब जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। वे धन्य हैं, हम सभी उनकी वाणी का आलम्बन पाकर निरालम्ब हो सकें। क्योंकि निरालम्ब हुये बिना संसार क्लेश से नहीं बचा जा सकता। क्या था क्या हूँ क्या बनूँ, रे मन ! अब तो सोच। वरना मरना वरण कर, बार - बार अफसोस। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 29.08.2005)
  8. बीना बारहा जी अतिशय क्षेत्र में चातुर्मास में सारा संघ साधनारत् था। चातुर्मास में कवि सम्मेलन हुआ। विभिन्न प्रदेशों / नगरों से कविगण आये हुए थे। सभी ने गुरुदेव के दर्शन किए एवं अपने आप को धन्य माना। सच है, अतिशय पुण्य के उदय से ही ऐसी महान आत्माओं के दर्शन का लाभ प्राप्त हो पाता है। संसार में कई दुर्लभताओं के साथ सत्संगति भी दुर्लभ है, और उन गुरुओं का उपदेश एवं अनुकम्पा का पात्र बनना और भी दुर्लभ से दुर्लभतम है। कवि सम्मेलन के बाद सभी कविगण गुरुदेव के चरणों में समीप ही आकर बैठ गये। सभी ने शांतिनाथ भगवान की एवं क्षेत्र की प्रशंसा की। गुरुदेव से मार्ग दर्शन चाहा यह सुन गुरुदेव कुछ क्षण कुछ न बोले, चिंतन की मुद्रा में ही बैठे रहे। फिर सहज ही बोले - आप लोगों को अहिंसा के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी चलाना चाहिए ताकि अहिंसाधर्म का प्रचारप्रसार हो सके। और, स्वयंको भी अहिंसक बनना होगा तभी आपकी कविताएँ गौरव को प्राप्त होंगी। "कदम में फूल हो और कलम में शूल हो तो क्या होगा।" लेखन के माध्यम से भी अहिंसा की वृत्ति कितनी है यह मीमांसा की जा सकती है। दया धर्म के कथन से, पूज्य बने ये छन्द। पापी तजते पाप हैं, दृग पा जाते अंध॥ (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 28.08.2005)
  9. हे सूर्य! तुम अकेले मे रहना चाहो लेकिन, क्या तुम्हारी रश्मियाँ तुम्हें अकेले में रहने देंगी ? तुम हमेशा ढूंढते हो एकान्त, पर वहाँ भी भक्त पहुँच जाते हैं। जंगल में भी मंगल हो जाता है। आपके पास हमेशा दर्शनार्थियों की भीड़ ही लगी रहती है। इस भीड़ से बचकर आप तीर्थक्षेत्रों पर विराजमान हो जाते हैं फिर भी वहाँ भी शहरों जैसी भीड़ दिखाई देने लगती है। ऐसा लगता है-मानो इस क्षेत्र पर साक्षात् अरहंत प्रभु का समवशरण आ गया हो। आपकी वीतराग मुद्रा में इतना आकर्षण है कि लोग अनायास ही घर गृहस्थी छोड़कर महीनों-महीनों आप के चरणों में रहते हैं और रहने को लालायित बने रहते हैं। अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में चातुर्मास के दौरान बहुत भीड़ हो जाती। एक दिन आचार्य महाराज जी ने बताया कि-एक दिन पूरा संघ प्रवास में था तो इतनी भीड़ आ गयी कि मैं चारों ओर से घिर गया कहीं से हवा तक नहीं आ पा रही थी। तभी यह सब देख किसी ने पूँछ ही लिया-महाराज यह आपका पुण्य है या पाप ? आचार्य श्री सहसा ही बोले - भैया पुण्य है, लेकिन यह भी आकुलता पैदा करता है। साता की उदीरणा में भी आप निर्विकल्प समाधि में नहीं जा सकते। यह है गुरुदेव की पुण्य के फल के प्रति उपेक्षा। ऐसी निरीहता, निष्पृहता उनकी। प्रत्येक समय हम अपनी आँखों से देख सकते हैं मन से महसूस कर सकते हैं। वीतरागता की जीवन्त प्रतिमा का आज भी हम दर्शन कर अपने जीवन को उपकृत कर सकते हैं और अपना जीवन भी निष्पृहता के साथ व्यतीत कर सकते हैं। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी - 19.08.2005)
  10. आज वर्तमान में धर्म थ्योरेटिकल (सैद्धांतिक) ज्यादा हो गया है, प्रेक्टीकल कम रह गया है। लोग ज्ञान, स्वाध्याय तो करते हैं लेकिन, ध्यान की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। ध्यान रखने योग्य बात यह है कि-भोजन करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है उसका चर्वण एवं पाचन। मात्र भोजन ही कर लिया जाए उसे सही ढंग से चबाया न जाये एवं पाचन न हो पावे तो वह अनेक रोगों का जन्म दाता बन जाता है। ठीक उसी प्रकार तीनों समयों में मात्र स्वाध्याय ही किया जावे तो वह समीचीन फल नहीं दे सकता। आचार्यश्री कहते हैं आज ध्यान सिखाने के केन्द्र तो खोले जा रहे हैं लेकिन ध्यान केन्द्रित नहीं किया जा रहा है - यह एक सोचनीय विषय है। कुछ लोग ध्यान लगाते हैं तो मात्र शरीर तक ही सीमित रह जाते हैं। या तो आरोग्य के लिए योग ध्यान करते हैं या दूसरों को सिखाने के लिए। जबकि, ध्यान का उद्देश्य है अपने तक (आत्मा में) आने के लिए। ध्यान पर शोध करने वाले किसी अध्येता ने आचार्य गुरुदेव से पूँछा कि-आप ध्यान में क्या अनुभव करते हैं, ध्यान से आपको क्या उपलब्ध होता है ? आचार्य भगवन् ने कहा - ध्यान से वर्तमान में आत्म संतुष्टि प्राप्त होती है, कर्म की निर्जरा भी होती है। यह हमें श्रद्धान है, यह श्रद्धानुभूति तृप्तिदायक होती है। ध्यान का कार्य ड्रायवर के समान है जो सभी व्रत नियम रूपी यात्रियों को मंजिल तक पहुँचाता है। ध्यान सब अनुष्ठानों का उपसंहार है। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि-जीवन में ज्ञान के साथ-साथ ध्यान भी करना चाहिए तभी हमारी चर्या समीचीन मानी जावेगी। ध्यान/सामायिक के समय (सामायिक को छोड़कर) ज्ञानार्जन हेतु स्वाध्याय करने नहीं बैठना चाहिए। बल्कि, उस समय पंच परमेष्ठी का ध्यान या आत्मा का ध्यान करना चाहिए। ध्यान के बिना ज्ञान पचता नहीं, परिमार्जित होता नहीं एवं उसका समीचीन फल भी प्राप्त नहीं होता। आचार्य श्री ने अंत में कहा - ध्यान लगाने से एक काम बहुत अच्छा होता है कि स्वार्थ छूट जाता है। मेरी भावना में भी यही लिखा है - ‘‘स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुःख समूह को हरते हैं।'' ज्ञान का अर्जन भी स्वार्थ के लिये नहीं परमार्थ के लिए होना चाहिए तभी वह कर्म निर्जरा का कारण एवं शांति का प्रदाता बन सकता है। अन्यथा, अभिमान ही उत्पन्न करेगा। किसी ने आचार्य भगवन् से पूँछा - आचार्य श्री सामायिक ध्यान में क्या करना चाहिए ? तब आचार्य भगवन्त ने कहा - सामायिक में तन-मन कब हिलता है यह देखो इसी का नाम ध्यान है। अब लगता है दर्पण ने, मेरे बालों में चाँदी लगा दी, कुछ पुरानी बातें याद दिला दीं कि तुमने चाँद सा जीवन पाकर अँधेरे में गंवा दिया गुजरे जीवन में किसी को चाँदनी न दी .... (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 06 अगस्त 2005)
  11. प्रभु का नाम लेने मात्र से कर्म की निर्जरा होती है। कर्म निर्जरा जिससे होती है। उसका नाम साधना माना जाता है। इसलिए, प्रभु का नाम जपने वाला भी अपने आप में साधना ही तो कर रहा होता है। दुनियां में रागी-द्वेषी का नाम याद न करके कम से कम यह संकल्प तो ले लेता है कि-मैं इतने समय तक मात्र प्रभु का ही नाम लूंगा। यह भी अपने आप में बहुत बड़ा संयम/साधना है। कहा भी है - कर्मों के बंधन खुलते हैं प्रभु नाम निरंतर जपने से। भव-भोग-शरीर विनश्वर तव, क्षणभंगुर लगते सपने से। अमरकंटक में एक मठ के साधु आते रहते थे। गुरुदेव के दर्शन करते, कुछ शंकासमाधान करके चले जाते। एक दिन वे एक नये साधु के साथ आये और गुरुदेव को नमस्कार कर पास में ही बैठ गये। चर्चा के दौरान आचार्य श्री ने पूँछा - ये कौन हैं? तब वे बोले ये मेरा नया चेला है (हाथ में माला लिये जल्दी-जल्दी मणिका खिसकाते जा रहे थे)। आचार्य श्री ने पूँछा-ये क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा-ये नाम साधना कर रहे हैं। हर समय राम के नाम की माला फेरते रहते हैं। तब आचार्य श्री ने कहा - हाँ, नाम साधना से ये लाभ होता है कि इष्ट के प्रति कितनी आस्था है क्योंकि इष्ट के प्रति मजबूत आस्था उनको नमस्कार करने से बनती है। और मंत्र को मन के माध्यम से जितना घोटेंगे उतनी ही मंत्र की शक्ति बढ़ती जाती है औषधि की तरह। जैसे आयुर्वेद में औषधि को जितना घोंटो उतनी उसकी गुणवत्ता बढ़ती है, ऐसा नियम है। राम फेल हो सकते हैं लेकिन हनुमान कभी फेल नहीं हो सकते। ग्रंथ घोंट-घोंटकर भी पी लो तो भी कल्याण होने वाला नहीं है यदि आज्ञा सम्यक्त्व नहीं है। तो....। प्रभु के प्रति विश्वास होना चाहिए तभी कल्याण होगा। इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि-हमें हमेशा प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए। इस जनम-मरण से बचने के लिए मात्र एक ही साधन है प्रभु का नाम स्मरण करना। अंत समय, सल्लेखना के समय मुख से प्रभु का नाम निकल जाये तो बड़ा सौभाग्य समझना। क्योंकि भगवान का स्मरण मरण को सुन्दर बना देता है। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 27 जुलाई 2005)
  12. गरजने वाले और बरसने वाले बादल बहुत होते हैं लेकिन, भीतर से आर्द्र पानी बरसने वाले बादल दुर्लभ होते हैं। वैसे ही उपदेश सभी लोग देते हैं लेकिन कल्याण का उपदेश देने वाले दुर्लभ हैं। अनुभूति की कड़ाव में से तलकर आ रहे शब्दों से उपदेश देने वाले कम ही होते हैं। ध्यान रखना, मानसूनी बरसात ही लाभप्रद होती है लौकल वर्षा नहीं। करुणा के बिना वक्ता का स्वभाव सही नहीं माना जाता है, करुणा में भींगे शब्द ही असर कारक होते हैं। उपदेश देने वाला चारित्रवान होना चाहिए वरना, उसका कोई असर नहीं पड़ता। यह उपदेश गरुदेव के मुख से हम सभी लोग सुन रहे थे तभी एक सज्जन ने कहा - आचार्य श्री जी, उपदेश से भी तो स्व-पर का कल्याण किया जा सकता है। आचार्य भगवन्त बोले - जिसका उद्देश्य मात्र उपदेश देना ही है इसलिए त्यागी का वेश धारण करता है तो, समझना वह सब्जी में पड़ी चम्मच के समान है जो स्वयं कुछ भी स्वाद नहीं ले पाता। मेरी कुशलता किसमें है यह जानना ही हितकारी है। ध्यान रखो, जो युक्ति और आगम के आधार पर धर्म को धारण करता है वह भव्य है। गुरुदेव स्वयंधर्म का पान करते हैं एवं दूसरों को धर्म का ज्ञान ही नहीं धर्म का पान भी कराते हैं। वे मात्र कान ही नहीं फूँकते बल्कि प्राण भी फूँकते हैं। हाँ, संयम के प्राण रत्नत्रय रूपी जीवन प्रदान करते हैं। हमें अपने जीवन को उपदेश देने से पहले उपदेश मय बना लेना चाहिए ताकि स्वयं उस उपदेश से/धर्म से आनंदित हो सकें, उसका स्वाद ले सकें। ऐसा आता भाव है, मन में बारम्बार। पर दुःख को यदि ना, मिटा सकता जीवन भार॥ (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 25.07.2005)
  13. कभी-कभी लोग अजीब सा प्रश्न कर बैठते हैं। इसमें या तो उनकी सत्य के प्रति अनभिज्ञता प्रदर्शित होती है या फिर अज्ञानता। लेकिन कभी-कभी अनभिज्ञ होने के कारण भी ऐसे प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं। दुनियाँ में असत्य ने सत्य का मुखौटा ओढ़ रखा है इसलिए कभी-कभी लोग सत्य को पहचानने में भी धोखा खा जाते हैं या सत्य पर सत्य जैसा यकीन खो बैठते हैं। कभी-कभी सत्यता जानकर लोगों को आश्चर्य भी लगता है। हाँ, ऐसा प्रायः होता ही है क्योंकि, जिस बालक ने कभी जीवन में मीठा दूध न पिया हो, उसे यदि पहली बार मीठा दूध पीने मिल जावे तो आश्चर्य सा लगता ही है, अभूतपूर्व घटना सी लगती ही है। कभी-कभी अपनी आँखों पर भी विश्वास नहीं होता कि -जो दिख रहा है, यह सच है या एक सपना मात्र। लेकिन, जब वह गहराई में पहुँचता है तो पाता है मैं सत्य के करीब खड़ा हूँ। इससे बड़ा और सत्य क्या हो सकता है। किसी ने आकर पूज्य गुरुदेव से पूँछा - महाराज साब, आपका बैंक बैलेन्स कितना है? आचार्य श्री समझ गये कि ये जैनेतर बंधु हैं, सत्य से अनभिज्ञ है। आचार्य श्री ने कहा-बस ये पिच्छी और कमण्डलु। फिर उन्होंने दूसरा प्रश्न किया - लेकिन आपके नाम से जो दाल मिलें, ट्रक, बसें, फैक्ट्री, बैंक आदि चलती हैं, कुछ तो है ? आप बताते नहीं, यह बात अलग है। आचार्यश्री उस व्यक्ति की बात सुनकर हँसने लगे। कहा भाई - ये सब श्रावकों का काम है नाम किसी का भी लिख देते हैं, ये उनका विषय है। हमारे पास तो मात्र दो उपकरण रहते हैं - पिच्छी और कमण्डलु। यही बैंक बैलेन्स समझो, वह भी सामायिक के समय छूट जाते हैं। सच बात है - जिसके पास चेतन धन हो, देवता भी जिनके सेवक हों, उनसे बड़ा धनवान और कौन हो सकता है इस दुनियाँ में। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 29 जून 2005)
  14. आज का विज्ञान खोज की दिशा में बहुत आगे बढ़ गया है। लेकिन, वह मात्र जड़ की ही खोज कर पाया है। उसने शरीर में प्रत्येक नस-नस की खोज कर ली, कोई भी शरीर का अवयव उससे अछूता नहीं रह गया। लेकिन, शरीर के अंदर आत्मा नाम की कोई वस्तु है या नहीं, इसके बारे में वह मौन है। उसे वह नहीं खोज पाया। मात्र जड़ पदार्थों को ही विषय बना पाया है, क्योंकि प्रत्येक जड पदार्थ में रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श पाया जाता है। लेकिन, इन रूप, रस आदि से रहित उस आत्म तत्त्व को नहीं खोज पाया। क्योंकि, वह इन्द्रियों का विषय नहीं बनता। वह आत्म तत्त्व तो योगिगम्य है, योगी मुनिजन ही उसका अनुभव कर पाते हैं। एक व्यक्ति ने गुरुदेव के श्री मुख से आत्मा की चर्चा सुनी और बाद में आचार्य भगवन् से पूँछा - हे गुरुदेव ! आत्मा को कैसे जाना/पाया जा सकता है ? यह प्रश्न सुनकर गुरुदेव ने दो प्रकार की पद्धतियाँ बतलाईं। आत्मा को जानने की पहली पद्धति है; नेगेटिव - वह यह है कि पाँच इन्द्रियों के द्वारा जो देखने में आ रहा है वह आत्मा नहीं है। शरीर सो आत्मा नहीं। दूसरी पद्धति है; पॉजीटिव - वह यह है कि दिखने वाला आत्मा नहीं है बल्कि जो देख रहा है वह आत्मा है। यानि दिख रहा है शरीर, लेकिन देख रहा है शरीर के अंदर बैठा ‘आत्म तत्त्व'। दर्पण देखना मत छोड़ो लेकिन दर्पण में जो दिख रहा है। वह मैं हैं ऐसा श्रद्धान रखना छोड़ दो, क्योंकि तुम चेतन हो जड़ नहीं हो। (26 अप्रैल 2003)
  15. संसारी प्राणी अज्ञान के कारण संसार में भटकता रहता है, और हेयोपादेय का ज्ञान नहीं कर पाता। यदि हेयोपादेय का ज्ञान हो भी जावे तो हेय का विमोचन और उपादेय को ग्रहण नहीं कर पाता। अनादिकाल के संस्कारों को एकदम नहीं छोड़ पाता। जिस पदार्थ के प्रति जो धारणा बन जाती है वह मुश्किल से छूटती है और यदि सदगुरु की कृपा से यह अज्ञान की, भ्रम की निवृत्ति हो जाती है तो अंतर आत्मा में अलग ही आनंद उत्पन्न होता है। और आँखों में खुशी के आंसू आ जाते हैं। ऐसे ही ‘आचार्य श्री जी के पास आने पर कई लोगों की गलत धारणायें बदल गयीं और धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है यह ज्ञात हो गया और वे वास्तविक जीवन जीने लगे। एक पंडित जी आचार्यश्री जी के पास आये और उन्होंने अपनी सारी आगमिक शंकायें गरुदेव के सामने रखी। एक-एक शंका का समाधान पाते ही वे पंडित जी आनंदित हो उठते उन्हें लगता मानो साक्षात् अर्हन्त प्रभु ही हमें मिल गये हों और मेरी बांकाओं का समाधान कर रहे हों। उनकी सारी गलत धारणाएँ बदल गयीं और सही तत्त्व का ज्ञान हो गया| भ्रम टूट गया, वास्तविकता के करीब पहुँच गये। वास्तविकता का ज्ञान होते ही उनकी आँखों में से आँसू आ गये और बोले- हे गुरुदेव ! आज तक मैं गलत धारणाओं की कटीली झाड़ियों में उलझा रहा, आप जैसे पथ-प्रदर्शक ने मुझे वास्तविकता के/सत्य के उपवन में लाकर खड़ा कर दिया। आज आपको पाकर मेरा जीवन सफल हो गया। आपकी वाणी ने हमारी भ्रमणा को दूर कर दिया। आज अज्ञान का पर्दा हट गया। हे गुरुदेव! आज तक जो गलत धारणा थी वह बदल गयी और चारित्र के प्रति आस्था दृढ हो गयी। अब आदेश दीजिए मैं क्या करूं? तब आचार्य महाराज ने कहा - अभी तक आपने सम्यग्दर्शन का डंका बजाया अब सम्यग्चारित्र का डंका बजाओ। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो गुरुदेव कह रहे हों - सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी का पहला कर्तव्य है चारित्र की ओर बढ़ना क्योंकि, वही ज्ञान सही माना जाता है जो पापों से बचाने वाला हो, आत्मा की ओर ले जाने वाला हो, आचरण में ढलने वाला हो। कहा भी है। “सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित्र लीजे'' (28.03.2003)
  16. रविवारीय प्रवचन के पूर्व सभा के बीच में एक कवि महोदय ने अपनी कविता का पाठ किया। कविता में उन्होंने बोला- हम संत की संतान हैं। यह सुन सभी ने तालियाँ बजा दीं। उस समय आचार्य महाराज सब देख रहे थे, सुन रहे थे। उसके उपरांत प्रवचन प्रारंभ हुये। तब प्रवचनों में आचार्य भगवन्त ने कहा - संत की संतान होने का क्या अर्थ होता है ? संत जो कहते हैं उसी बात को जो तानकर (खींचकर) आगे बढ़ाता है वह संतान कहलाता है लेकिन जो न जानता है, न मानता है और ऊपर से तानता है वह संत की संतान नहीं कहला सकता। एक छोटी सी श्लेषपूर्ण बात लेकिन बहुत गंभीर विषय को लिये हुए है कि-हम अपने आप को वीर की संतान, संत की संतान कहते हैं लेकिन उनकी बात नहीं मानते, उनके बताये मार्ग पर नहीं चलते; तो हम उनकी संतान कहलाने के योग्य नहीं हैं। जो धर्म परम्परा को आगे बढ़ाता है, धर्म की प्रभावना में जीवन लगाता है वही सही मायने में धार्मिक कहलाने के योग्य है। ये टाइटल अपने किये गये कर्मों से प्राप्त होते हैं मात्र किसी जाति में उत्पन्न होने से नहीं। आचार्य महाराज का संकेत था कि-संत दया, करुणा, अहिंसा की बात करते हैं। आप सभी लोगों को भी अहिंसा के प्रचार-प्रसार में लगना चाहिए। देश में जो हिंसा का ताण्डव नृत्य चल रहा है उसे बंद कराने का प्रयास करना चाहिए। अहिंसा की बात देश के कर्णधारों (नेताओं) तक भेजना चाहिए, कत्लखानों को बंद करवाने के लिए आगे आना चाहिए तभी आप संत की संतान कहलाओगे।। (दयोदय तीर्थ, तिलवारा घाट जबलपुर, 30.10.2004)
  17. सादा जीवन उच्च विचार (Simple living high thinking) ही जीवन जीने की सही कला है। जिसके जीवन में सादगी नहीं है वह बड़ा ज्ञानी-विज्ञानी भी हो तो भी सम्मान का पात्र नहीं बन पाता। क्योंकि वही उपदेश प्रभावी होता है-जो वाणी से नहीं आचरण से अभिव्यक्त होता है। इसीलिए वाणी से वक्ता की पहचान नहीं होती बल्कि, वक्ता की प्रमाणिकता से वाणी की प्रमाणिकता होती है। आचार्यश्री जी कहते हैं-जो आप दूसरों को उपदेश देना चाहते हो वह अपने आपके जीवन में पहले उतार लो। फिर जो आपका जीवन बोलेगा वही औरों को प्रभावित करेगा, वही उपदेश सार्थक होगा। जिसका जीवन सादगीपूर्ण होता है वह हर जगह सम्मान पाता है एवं उसके विचारों में अपने आप उत्कृष्टता आती जाती है। जब वह अपने विचार औरों के सामने रखता है तो सभी उन विचारों पर अमल करते हैं और उसका सम्मान भी करते हैं। लेकिन जो व्यक्ति सात्विक जीवन नहीं जीता और मात्र उपदेश देकर सम्मान की चाह रखता है वह मंच, माला और माईक तक ही सीमित रह जाता है। जीवन में कभी भी अपना उत्थान नहीं कर पाता एवं आत्म गौरव कायम नहीं रख पाता। आचार्य गुरुदेव ने एक दिन धर्म प्रभावना की चर्चा करते हुए कहा - यदि आज त्यागी व्रती सादगी से समाज में रहते हैं तो समाज पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है। एक द्वितीय प्रतिमा वाला व्रती श्रावक भी समाज में धर्म का डंका बजा सकता है। धर्म की प्रभावना कर सकता है यदि वह मंच, माला, माईक और पैसों से बचा रहता है तो इसलिए आज के साधको को चाहिए कि वे संपदा, सत्ता और संस्था के मोहजाल से बचें एवं सादगी से जीवन यापन करें। आज सबसे ज्यादा इस बात की कमी आती जा रही है कि - व्यक्ति अपने उद्देश्य को भूलता जा रहा है एवं मात्र जीवन निर्वाह की बात सोचता है, जीवन निर्माण की बात नहीं सोचता और न ही उस दिशा में कदम ही बढ़ाता है। (29.03.2003)
  18. आचार्य गुरुदेव के पास कलकत्ता से एक वैद्य आये थे। वैसे हमेशा कोई न कोई विद्वान, वैद्य आदि बहुत से बड़े-बड़े राजनैतिक पदों पर पदस्थ लोग गुरुजी के दर्शनार्थ आते ही रहते हैं। गुरुजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि हर व्यक्ति उनकी ओर खिंचा चला आता है जैसे-एक फल-फूल से परिपूर्ण वृक्ष किसी पक्षी, पथिक आदि को बुलाता नहीं है बल्कि, पक्षी और पथिक स्वयं वृक्ष की छाया लेने, फूल की सुगंध लेने एवं फल का स्वाद लेने वृक्ष की शरण में स्वत: ही चले आते हैं। संत का भी वास्तविक जीवन यही है कि जो दुनियां से दूर हो लेकिन दुनियां उसे करीब से देखने को लालायित होती हो। उन वैद्य ने गुरुदेव से निवेदन किया कि-मैं एकान्त में आपसे मन में पल रही कुछ शंकाओं का समाधान चाहता हूँ। यह सुनकर गुरुदेव कुछ देर कुछ न बोले, फिर सहसा मुस्करा कर बोले-कि संसार में एकान्त मत ढूंढो अपने मन में एकान्त बना लो। वैद्य जी समझ गये कि शायद गुरुदेव इस स्थान से उठकर कहीं एकान्त में बात करने नहीं जायेंगे। वे हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे - हे गुरुदेव! जब, हम ब्रह्म के अंश हैं तो ब्रह्म में और हममें इतनी विषमता क्यों ? यह बात समझ में नहीं आती। तब आचार्य गुरुदेव ने कहा - हम और ब्रह्म एक से हैं, एक नहीं वह एकपना शक्ति की अपेक्षा हैं, अभिव्यक्ति की अपेक्षा नहीं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा बनने की शक्ति है लेकिन, अभी उस शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हुई इसलिए हम और परमात्मा एक नहीं हो सकते हैं। हममें परमात्मा बनने की शक्ति है, लेकिन अभी आत्मा ही है। अभी उस योग्यता का उद्घाटन नहीं हुआ है। (27.03.2003)
  19. एक बार एक साधक के दांत में छेद हो गया जिससे तकलीफ बनी रहती। आहार के समय और अधिक तकलीफ बढ़ जाती। डॉक्टर को दिखाया, उस दिन उनका उपवास था। डॉक्टर ने उस दाँत को निकाल दिया, बहुत खून गिरा। जब आचार्य श्री जी को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने पूँछा - क्यों, उन्हे दाँत से बहुत खून आया। मैंने कहा - जी आचार्य श्री, डॉक्टर ने ऊपर, गाल पर बर्फ रखा वह ठण्डा लगा, उस ओर ध्यान गया कि झटके से दाँत निकाल दिया, मालूम ही नहीं पड़ा दाँत कब निकल गया। यह सब उपयोग के परिवर्तन से हुआ। उपयोग/ध्यान बर्फ की ठण्डक पर गया और यहाँ काम हो गया। यह सुनकर आचार्य महाराज बोले - यदि हमारा उपयोग भी लक्ष्य की ओर हो जावे तब मार्ग में आने वाली समस्याएँ, उपसर्ग, परीषह सभी सहज रूप से सहन हो जाते हैं। पुनः मैंने कहा - आचार्य श्री जी उस दाँत की जड़ बहुत मजबूत थी। आचार्य श्री सहसा ही बोले - जड़ मजबूत होती है तभी चने चबते हैं वैसे ही सम्यग्दर्शन मजबूत होता है तभी संसार के चने चबते हैं। यह घटना बताती है कि गुरुदेव की लक्ष्य की ओर दृष्टि हमेशा रहती है। वे हमेशा प्रत्येक घटना को मोक्षमार्ग के साथ जोड़कर उदाहरण बना देते हैं एवं हर क्षण हम साधकों को भी लक्ष्य को ध्यान में रखकर चलने का उपदेश देते हैं। लक्ष्य निर्धारण कर एवं लक्ष्य पर चलना व लक्ष्य प्राप्ति में बाधाओं का सहर्ष सामना करना महान पुरुष का कार्य हुआ करता है। महापुरुष कभी भी लक्ष्य को प्राप्त करते समय आ रही बाधाओं से डरते नहीं हैं बल्कि, उन बाधाओं को सफलता की सीढ़ी समझकर उस पर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं। (सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी 2002)
  20. गर्मी का समय था। दिन में गरम लू चलती थी एवं जमीन भी गरम रहती थी। तापमान लगभग 45 डिग्री के ऊपर ही होगा। उन दिनों सारा संघ विदिशा नगर के स्टेशन मंदिर में विराजमान था। आचार्य महाराज न कभी सर्दी देखते, न गर्मी। जब जो आवश्यक कार्य होते हैं। उसे उसी समय कर लेते हैं। वे तो उत्कृष्ट चर्या के धनी हैं, हमेशा दो माह के भीतर-भीतर ही केशलोंच कर लेते हैं। उन्होंने हमेशा की भांति दो माह हो गये तो उस दिन केशलोंच कर लिया। आश्चर्य की बात है इतनी गर्मी थी लेकिन उस दिन बादल छा गये रात में पानी भी गिरने लगा। ऐसा लगा मानो देवता और प्रकृति उनकी साधना को देखकर उनका सहयोग कर रहे हों। मौसम एकदम ठण्डा हो गया। प्रातः काल गुरुदेव के चरणों में नमोऽस्तु करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी! आपने केशलोंच किया था इस कारण से देवताओं ने वर्षा कर दी। प्रकृति शीतलता से भर गयी। वैसे भी आचार्य श्री कभी अपनी प्रशंसा सुनते ही नहीं, प्रशंसा के प्रकरण को टाल देते हैं। हँसकर बोले कि - आप लोगों ने भावना भायी होगी तभी तो ऐसा हुआ है, ये सब आप लोगों की भावनाओं का फल है। तब मैंने तत्काल हाथ जोड़कर कहा - नहीं, आचार्य श्री! ये सब आपकी साधना का, संकल्प की शक्ति का परिणाम है। यह सुन आचार्य श्री मुस्कुरा दिए............ कुछ बोले नहीं..... चुप रह गये। यह उनकी तप साधना का अतिशय साक्षात् हम सभी अपनी आँखों से देखते हैं तब लगता है हम लोगों का कितना सौभाग्य है जो ऐसे गुरु मिल गये। (8 अप्रैल 2002 विदिशा)
  21. यह बात नेमावर क्षेत्र की है, गर्मी के समय संघ वहाँ साधनारत था। मेरे पैर में हरपिश रोग हो गया। उस दिन पैर में तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी। आचार्य महाराज मेरे पास आये और मुझसे पूँछने लगे- क्यों कुंथु, कैसी है तकलीफ! उनका कक्ष में आना मानो सौभाग्य का उदय। मेरा हृदय तो उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया और उनकी यह संवेदनशील बात को सुनकर कण्ठ भर आया। मैंने कहा - आचार्य श्री !तकलीफ बढ़ती ही जा रही है। तब आचार्य महाराज का हृदय भी दया से भर गया और बोले इसमें औषधि तो काम करती ही नहीं है, इसे तो सहन करना होगा, समता ही रखनी होगी। फिर कुछ सोचकर बोले - मूलाचार में साधु को सबसे बड़ी औषधि बतलाई है बताओ-कुंथु वह क्या है ? मैंने तत्काल कहा -आचार्य श्री जी ‘समता'। यह सुनकर आचार्य महाराज बहुत खुश हुए और बोले - बहुत अच्छा, समता रखना। मैंने कहा-आपका आशीर्वाद बना रहा तो सब ठीक हो जावेगा, सब सहन हो जावेगा। आप आ जाते हैं तो साहस बढ़ जाता है, आधा दर्द आपके पूँछ लेने से वैसे ही चला जाता है। आचार्य श्री जी बोले - भैया और मैं क्या कर सकता हूँ, पूँछ सकता हूँ या आशीर्वाद दे सकता हूं। मैंने कहा-आपके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हो जाता है। आचार्य भगवन् कोमलता के साथ, वात्सल्यता के साथ स्वयं अपने दर्द के प्रति कठोर होने, समता रखने का उपदेश दे रहे थे। किसी भी परिस्थिति में हमें अधीर नहीं होना चाहिए बल्कि साहस रखना चाहिए। औषधि की ओर दृष्टि न ले जाकर आत्मा की ओर दृष्टि मोड़ लेना चाहिए, ताकि शरीर से उपयोग हट जावे और तकलीफ का भान ही न हो सके। मैं तो यही मानता हूँ कि गुरुदेव के आशीर्वाद में उठा हाथ हो या सिर पर स्पर्श हुआ उनका हाथ हो, यही परम औषधि है। (सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर 2002)
  22. इंदौर गोम्मटगिरि चातुर्मास के बाद समस्त संघ सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर की ओर जा रहा था। हाटपीपल्या से होते हुए खातेगाँव पहुँचे। अब नेमावर पास ही था। प्रातः काल गुरुदेव के पास बैठे थे। वे हमेशा अनियत विहार ही किया करते हैं कभी किसी को पूर्व सूचना नहीं मिलती कि गुरुदेव का विहार कहाँ हो रहा है। पास में बैठे हुए महाराज लोगों ने कहा - अब तो यात्रा पूरी होने वाली है नेमावर पास में ही है। आचार्य श्री मुस्कुराकर सहसा बोले - कि नहीं ! अभी यात्रा पूर्ण नहीं होगी। मोक्षमार्गी संयमी जीव की यात्रा जीवन भर चलती है उसकी तो जीवन ही यात्रा है जब तक मोक्ष मंजिल नहीं पहुँचते तब तक यात्रा ही होती है/मानी जाती है। ध्यान रखो हम सभी मोक्षमार्ग के यात्री हैं। यह एक छोटी-सी लेकिन बहुत ही गम्भीर बात जो कि एक साधक को अपने जीवन के ध्येय के प्रति सचेत करती है कि कहीं मार्ग को ही मंजिल मत समझ लेना, मार्ग सो मंजिल नहीं। संसार में रहना एक पड़ाव है अभी हमें और कहीं जाना है स्टेशन को स्टेशन ही मानें मंजिल नहीं तभी हम अनवरत यात्री बने रह सकते हैं और अपनी मंजिल को पा सकते हैं। आचार्य गुरुदेव हमेशा अपने मार्ग के प्रति, मोक्ष की यात्रा के प्रति सजग बने रहते हुए अपने शिष्यों को, साधकों को भी मार्ग की यात्रा के प्रति सचेत करते हुए अनवरत आगे की ओर बढ़ते ही जा रहे हैं। वे कहाँ तक पहुँच गये हैं यह कल्पनातीत है। धन्य हैं ऐसे वीतरागी संत जिन्हें देखकर ही महावीर के मार्ग का भान हो जाता है। (खातेगाँव 2002)
  23. श्री धवलाजी ग्रंथ की वाचना चल रही थी। आचार्य महाराज श्री ने कहा- पंडित जगन्मोहन लाल जी कटनी वालों ने एक दिन मुझे बताया कि- एक कोई वृद्ध महान ग्रंथ को पढ़ रहे थे तो मैंने पूँछा - समझ में आ रहा है, जो आप पढ़ रहे हैं। वृद्ध ने कहा - हाँ, इतना समझ में आ रहा है कि-हम पढ़ रहे हैं, हमें तो स्वाध्याय करना है, बस। गुरुदेव ने आगे बताया कि - बात सच है, जो केवलज्ञान के द्वारा जाना गया है वह हम पूर्ण नहीं जान सकते इसलिए यह प्रभु की वाणी है। ऐसा श्रद्धान रखकर पढ़ते जाना चाहिए क्योंकि ये तो मंत्र जैसे हैं। "आचार्यों के प्रत्येक शब्द मंत्र हुआ करते हैं।'' मैंने मंगलाचरण किया, एक विद्वान वहीं बैठे थे। मैंने मंगलाचरण में णमो अरिहंताणं बोला - तो वे विद्वान बोले आपके मुख से ये मंत्र सुनने में भी आनंद आता है। आचार्य श्री ने बताया कि-मानसिक मंत्र तो और भी अधिक आनंद देता है क्योंकि, मन की एकाग्रता से वचन, काय में भी एकाग्रता आ जाती है। जब वीतरागी गुरु का दर्शन ही आनंददायी होता है और फिर जब उनके मुख से शब्द, मंत्र सुनने मिल जावे तो फिर कहना ही क्या। गुरुओं ने हमारे ऊपर महान उपकार किया है जो करुणा भाव से ग्रंथों की रचना की। इसलिए हमारा भी कर्त्तव्य बनता है कि हम भी समय निकालकर शास्त्रों का स्वाध्याय अवश्य करें क्योंकि, स्वाध्याय और साधुसंगति हमारे मन को धोने के लिए साबुन और पानी का काम करते हैं। वर्तमान समय में विपरीतताओं में जीवन को सम्बल मात्र ‘स्वाध्याय' से ही प्राप्त हो सकता है। साधु सन्त कृत शास्त्र का, सादा करो स्वाध्याय। ध्येय, मोह का प्रलय हो, ख्याति लाभ व्यवसाय॥ (21 नबम्बर 2002)
  24. विहार करते हुए पूरा संघ नदी के पास पहुँचा। वहाँ एक बहुत बड़ा बांध बंधा हुआ था। उस बांध में गेट लगे हुए थे।यदि पूर्ण गेट खोल दिये जावे तो नदी में बाढ़ आ जाती और न जाने कितनी जन-धन की हानि हो सकती थी। वहाँ पर उस संबंधी जानकारी रखने वाले इंजीनियर, कर्मचारी वगैरह रहते थे, जो पूर्ण जानकारी रखते हैं। आचार्य महाराज ने बांध में भरे हुए पानी को देखकर कहा - बांध में भले ही कितना भी पानी भरा रहे लेकिन वह कभी भी हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकता क्योंकि उसमें। मजबूत गेट लगे हुए हैं। ठीक वैसे ही इस संसार की नदी में हमारे सामने पञ्चेन्द्रिय विषय भरे पड़े हैं लेकिन, ये हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। बस गेट मत खोलो, पञ्चेन्द्रिय एवं मन रूपी गेट को बंद रखो, मन को संयत रखो। यहाँ बांध पर सरकार आकर बार-बार नहीं देखती। यह तो यहाँ जिन्हें जिम्मेदारी दी गयी है उन सभी का कर्तव्य है - बांध को व्यवस्थित रखना। ठीक वैसे ही हम साधकों से देव-शास्त्र-गुरु बार-बार कुछ नहीं कहते यह तो आपका कर्तव्य है, आप करिये। सच है गुरु महाराज के अंतस् की पवित्रता को इन प्रसंगों के माध्यम से अनुभूत किया जा सकता है। वे अपने कर्तव्यों के प्रति कितने जागृत रहते हैं एवं अपने पास आये शरणागत को भी कर्तव्यों के प्रति हर समय सचेत करते रहते हैं। उनके प्रत्येक वाक्य में कर्तव्य की महक घुली रहती है एवं धर्म का मर्म प्रकट होता दिखाई देता है । ऐसे कर्तव्यनिष्ठ, निष्पृही, गुरुदेव के चरण सदैव वन्दनीय हैं। भू पर निगले नीर में, ना मेंढ़क को नाग। निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग।। (20 नबम्बर 2002)
  25. शीतकाल में भोजपुर क्षेत्र पर सारा संघ विराजमान था। प्रकृति के बीचों-बीच श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ भगवान का मंदिर है। मंदिर प्रांगण से ही लगा हुआ जंगल है, बहुत विशाल-विशाल चट्टानें हैं। चारो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। वहाँ बैठते ही ध्यान लग जाता है, ध्यान लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। वहीं जिनालय से कुछ दूरी पर एक दो मंजिल का महल है, जो खण्डहर हो चुका है। उसमें आज भी सुंदर कलाकृति बनी हुई हैं। एक दिन आचार्य महाराज भी उस कलाकृति को देख रहे थे उन्होंने कहा- इतना विशाल महल, इतनी अच्छी कलाकृति किसने बनवायी होगी, उसका कहीं नाम तक नहीं लिखा। “आज लोग मंदिर की दो सीढ़ियाँ लगवा देते हैं तो अपना नाम लिखवा देते हैं पर इस महल को किसने बनवाया नाम ही नहीं रहा और वे भी नहीं रहे।'' और बारह भावना की पंक्ति पढ़ने लगे “कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा''। सच बात है महान चक्रवर्ती छ: खण्ड के अधिपति का भी नाम नहीं रहा, वे भी चले गये, फिर भी आज प्राणी अपने नाम के लिए दान करता है। ध्यान रखो-नाम के लिए दिया गया दान, दान नहीं मान है। दान में समर्पण के भाव होना चाहिए, प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखना चाहिए। दान करने से दान का लोभ कम होगा लेकिन नाम का लोभ बढ़ गया और नाम की कामना से मान कषाय भी बढ़ गयी इसलिए जिससे कषाय का त्याग हो वही सही त्याग माना जाता है जिससे कषाय में वृद्धि हो वह दान नहीं माना जा सकता। मान बढ़ाई कारणे, जो धन खर्चे मूढ़। मर के हाथी होयगा, धरणी लटके सूढ़॥ (भोजपुर 2002)
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