जैसा कर्म सिद्धांत का वृहद विवेचन जैन दर्शन में मिलता है, वैसा अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलता। जैन दर्शन का सिद्धांत कर्म को प्रधानता देता है। जीव को सुख-दुःख, पुण्य-पाप रूपी कर्मों के फल से प्राप्त होता है, ईश्वर का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ करता है। जीव की एक अपनी स्वतंत्र सत्ता है वह चाहे तो नर से नारकी एवं नर से नारायण भी बन सकता है।
एक दिन आचार्य श्री जी ने कहा कि- प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्म सिद्धांत को समझकर कर्म बंधन से बचना चाहिए। तब किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी हम गृहस्थों को हमेशा कर्म बंध क्यों होता रहता है ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- जिसके पास राग-द्वेष है उसे हमेशा कर्म बंध होता रहता है। जैसे बैंक में पैसे जमा कर दो फिर उसका ब्याज बढ़ता ही रहता है। गृहस्थ को बंध इसलिए होता रहता है क्योंकि संयम के अभाव में मन और इन्द्रियों का असंयम बना रहता है। संयम, संकल्प के अभाव में तत्संबंधी बंध होता ही रहता है।
विषयों का सेवन हो जाना और विषयों का सेवक बन जाना इन दोनों में बहुत अंतर है। यह सब संकल्प एवं मानसिकता पर आधारित है। कर्मफल की आसक्ति जिसकी छूटी नहीं है उसकी विचित्र दशा हो जाती है उपयोग पर इसका प्रभाव न पड़े इसलिए संयम पुरुषार्थ महत्त्वपूर्ण है। कर्मफल भोगना अज्ञान स्वाभाव है। पुरुषार्थ के द्वारा इससे बचा जा सकता है, क्योंकि विष को हाथ में लेने मात्र से मृत्यु नहीं होती बल्कि उसका सेवन करने से होती है। ज्ञानी उदय में आए हुए कर्मफल को जानता है, किन्तु अज्ञानी उसे वेदता (अनुभव) करता है।
गुरुवर हमें शिक्षा देते हैं कि- कर्म बंधन से बचना चाहते हो तो राग-द्वेष का त्याग करो। राग-द्वेष का त्याग संयम धारण करने से ही हो सकता है इसलिए प्रत्येक जीव को संयम धारण करना चाहिए। यही ज्ञानी का कर्तव्य है।