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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शर्त के साथ करे सामायिक

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    रत्नकरण्डक- श्रावकाचार की कक्षा में सामायिक शिक्षाव्रत का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री ने कहा कि- पंचेन्द्रिय के विषयों से, पापों से दूर हटकर अपने मन को पंचपरमेष्ठी एवं आत्मा के चिन्तन में लगाना ही सामायिक ध्यान है। पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों का नाम ही संसार है, इन दोनों से ऊपर उठने का नाम ही मोक्षमार्ग है। इन विषयों की हमेशा उपेक्षा करनी चाहिए। साधु तो हमेशा पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त रहते हैं। श्रावकों को भी आगे चलकर साधु बनना है तो उन्हें भी पंचेन्द्रिय के विषयों से दूर हटना चाहिए। रेहट की घटियों के समान विषयों का क्रम चलता रहता है। एक के बाद एक विषय आते रहते हैं। पंचेन्द्रिय के विषयों की उपेक्षा नहीं की तो आत्मा का ध्यान नहीं लग सकता।

     

    तभी किसी श्रावक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि हम श्रावकों से पंचेन्द्रियों के विषय छूटते ही नहीं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- वस्तुतः आप लोगों ने पंचेन्द्रिय विषयों को विष के रूप में माना ही नहीं, इसलिए यह विषय छूटते नहीं हैं। एक बात यह भी है कि बड़े घाव का निशान जैसे एकदम ठीक नहीं होता, वैसे ही पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति एकदम नहीं छूटती है। किसी ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- सामायिक के समय माला फेरते ही मुझे नींद आने लगती है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- माला फेरते वक्त जैसे ही नींद आ जाए तो पुनः प्रारंभ से माला फेरना शुरू करो। बार-बार ऐसा करोगे तो नींद भाग जाएगी।

     

    इस प्रकार की शर्त के साथ चलते हैं, तभी निर्दोषता आती है। दूसरी बात यह है कि अधिक भोजन करने वालों को एवं आलसियों को सामायिक, ध्यान नहीं होता। इसलिए सामायिक करना चाहते हो तो ऊनोदर तप करो एवं आलस्य का त्याग करो। यह सुनकर किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी सामायिक में हमारा ध्यान तो लगता ही नहीं है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- आपके पास संकल्प नहीं है। जब तक संकल्प ना लिया जाए तब तक ध्यान हो ही नहीं सकता। संकल्पित मन से ही ध्यान होता है, क्योंकि संकल्पित मन इधर -उधर नहीं जाता एकाग्र हो जाता है। मुनिराज अपने छः आवश्यकों में लीन रहते हैं तो उनका मन (उपयोग) अपने पास ही बना रहता है। गृहस्थ की कुछ शक्ति इधर-उधर मन के द्वारा व्यर्थ चली जाती हैं।

     

    तब किसी ने कहा- आचार्य श्री जी हमें नींद भी नहीं आती, आलस्य भी नहीं करते, माला पूर्ण फेर लेते हैं। फिर भी मन इधर-उधर जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा- मन जाता है तो जाने दो, शरीर और वचन को संयत बनाकर रखे धीरे-धीरे मन भी वश में हो जाएगा। इसी बीच मुनिश्री प्रवचन सागर जी महाराज ने एक दोहा सुनाया

     

    मन जाय तो जाय, तू मत जाय शरीर।

    उतरी धरी कमान, तो क्या करेगा तीर।।

     

    यह दोहा सुनकर आचार्य श्री जी ने कहा- बहुत अच्छा, इस दोहे को हमेशा याद रखो। मन भटके तो भी माला फेरना मत छोड़ो।


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