किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आजकल समाज में लेखक साहित्यकार कम और व्यंग्यकार एवं आलोचक अधिक हो गए हैं। वे व्यक्ति, समाज, साधु, मंदिर, आदि। सभी की आलोचना करते रहते हैं एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख, भी प्रकाशित करते रहते हैं। इन्हें क्या समझना चाहिए एवं इनसे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि- एक अच्छा आलोचक दर्पण की तरह होता है, जो हमारे जीवन की कमियों को दिखाकर हमें साफ-सुथरा एवं निर्मल बनने को प्रेरित करता है। आगे आचार्य श्री जी ने कहा किआलोचक तो मोक्षमार्ग में अपना परम मित्र है उनसे कर्म की निर्जरा होती है। मोक्षमार्गी को आलोचकों के प्रति क्रोधित नहीं होना चाहिए बल्कि आलोचना को शांति से सहन करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो आलोचकों को हमारे क्रोध करने या विरोध करने से और अधिक मटेरियल मिल जाता है और अपने समता परिणाम एवं शांत प्रवृत्ति को देखकर वह जल्दी शांत हो जाता है। किसी ने कहा भी है कि- मेरे दुश्मन अमर रहें ताकि मैं सावधान बना रहूँ। इस बात में सकारात्मक दृष्टिकोण भरा हुआ है जिसमें दूसरे के अहित की कामना भी नहीं की गई एवं स्वयं के दोष को दूर करने की बात कही गयी है। सच बात तो यह है कि कोई यदि हमें बुरा-भला कहता है तो किसी के कहने से हम बुरे–भले नहीं हो जाते, क्योंकि मूर्ख, अज्ञानी, पापी, ज्ञानी, पुण्यात्मा यह सब टाइटल हमें अपनी करनी से मिलते हैं, किसी के देने से नहीं।