नेमावर में ग्रंथराज समयसार की वाचना के समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोक्षमार्ग में मन एवं पंचेन्द्रियों का व्यापार (विषयों की ओर जाना) कम होना चाहिए। मोक्षमार्ग में मन के द्वारा पंचेन्द्रिय विषय न आवे यह महत्त्वपूर्ण है। यह सुनकर किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी पंचेन्द्रिय के विषय चारों ओर भरे पड़े हैं, उस ओर मन चला ही जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा- हम सभी पंचेन्द्रिय के विषयों के बीच में बैठे है जब हम पंचेन्द्रिय रूपी खिड़की एवं मन रूपी दरवाजा खोलेगे तभी अन्दर आ सकते हैं वरन् नहीं। उदाहरण देते हुए कहा कि एक व्यक्ति की तेल की दुकान है। वह दिन- रात तेल बेचता है, उसका स्वयं का तेल का त्याग है। वह घी का सेवन करता है ग्राहकों से तेल अच्छा है ऐसा भी कहता है, लेकिन स्वयं रुचि नहीं रखता। वह तो घी का ही स्वाद लेता है एवं उसे ही अच्छा मानता है।उसी प्रकार वीतराग-विज्ञानी होते हैं। वह आत्मानन्द रूपी घी का स्वाद लेते रहते हैं। कर्मोदय द्वारा प्रदत्त पंचेन्द्रिय विषय रूपी तेल का सेवन कदापि नहीं करते। पंचेन्द्रिय विषय अवग्रह तक ही सीमित रहेना चाहिए अर्थात् देखने में आ जाये तो कोई बात नहीं ईहा का विषय नहीं बनना चाहिए। अर्थात् विषयों की ओर दृष्टि नहीं ले जाना चाहिए, उन्हें पाने की इच्छा नहीं रखना चाहिए। हमारा मन बच्चे के सामान है। जैसे बच्चे को बाजार में नहीं भेजते, क्योंकि वह कुछ भी खरीदकर खा सकता है और ठगा भी जा सकता है। वैसे ही अपने मन पंचेन्द्रिय विषयो के बाजार में मत ले जाओ। यदि ले जाना हे तो समझाकर ले जाओ। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी मन का बाजार कौन-सा है ? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि मन का खुब बड़ा बाजार है। पूरा तीन-लोक ही मन का बाजार है, क्योंकि तीनलोक में कहीं भी चले जाओ हर जगह पंचेन्द्रिय के विषय भरे पड़े हैं।