आचार्य श्री जी त्याग का उपदेश दे रहे थे कि- राग-द्वेष का त्याग करना ही सच्चा त्याग है। वर्तमान में पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके जो मोक्षमार्ग को अपनाता है, वह अविनश्वर सुख को प्राप्त करता है। पंचेन्द्रिय विषयों में सुख मानना अज्ञान का प्रतीक है। यदि पंचेन्द्रिय के विषयों में एवं संसार में सुख होता तो तीर्थंकर क्यों त्याग करते। इन्हें त्याग कर वैराग्य धारण क्यों करते? इससे सिद्ध होता है कि- संसार में सुख नहीं है।
तब किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि महाराज अभी वर्तमान का सुख छोड़कर त्याग अपनाया तो बाद में क्या मिलेगा ? आचार्य श्री जी ने कहा कि- जुआ, लॉटरी में सबसे पहले जेब का पैसा लगाया जाता है। आगे का कोई भरोसा नहीं रहता कई पार्टियाँ तो इस खेल में बर्बाद हो जाती है। यह जानते हुए भी आप लोग जुआ खेलते हैं कुछ मिले या नहीं आगे पीछे कुछ नहीं सोचते लेकिन त्याग के मार्ग में नियम से अनंतगुण फल मिलता है। श्रावक के व्रत पालने वाला ही 16 वें स्वर्ग तक पहुँच जाता है। लॉटरी में एक के हजार मिलते होगें पर त्याग के क्षेत्र में अनंतगुणा मिलता है। दुनिया की कम्पनी, बैंक आदि फेल हो सकती हैं, लेकिन धर्म की बैंक कभी फेल नहीं होती।
आचार्य श्री जी ने "आत्मानुशासन" ग्रंथ का उदाहरण देते हुए कहा कि- "तपस्विनः सुखी” तपस्वी साधु ही सुखी है, गृहस्थ तो हमेशा दुःखी रहता है। साधु हमेशा सुखी इसलिए रहता है, क्योंकि उन्हें विश्वास रहता है कि धीरे-धीरे कर्मबंध से छूट रहा हूँ, मोक्षमार्ग पर चल रहा हूँ। एक न एक दिन सच्चा सुख अवश्य प्राप्त होगा। उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे किसान कर्ज लेकर दाना मिट्टी में मिला देता है। इस विश्वास पर कि- फसल आवेगी, थोड़ी मेहनत करो, संतोष रखो फल अवश्य मिलेगा। तपस्वी भी ऐसे ही होते हैं जो वर्तमान पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग कर तपस्या करते हैं। वे साधु महान् वैज्ञानिक हैं जो सत्य की एवं सुख की खोज में लगे रहते हैं। सुखी ही जिनका नाम है। वे है तपस्वी जो कभी भी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ते।