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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय - 4 नीति अमृत दोहावली

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    1. हाथ देख मत देख लो मिला बाहुबल पूर्ण।

    सदुपयोग बल का करो सुख पाओ सम्पूर्ण।।1।।

     

    शब्दार्थ -

    1. बाहुबल - सबल भुजाएँ
    2. सदुपयोग - अच्छी तरह उपयोग

     

    अर्थ - अपने हाथ की रेखाओं को मत देखो बल्कि अपनी सबल भुजाओं का अवलोकन करो और अपने बल का सदुपयोग करते हुए समस्त सुखों को प्राप्त करो ||1||

     

    2. देख सामने चल अरे, दिख रहे अवधूत।

    पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत।।2।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  अवधूत - तीर्थंकर आदि महापुरुष
    2. भूत - बीता हुआ काल

     

    अर्थ -  हे मानव! सामने देखकर चल तो तुझे तीर्थंकर आदि महापुरुष के रूप में अपना उज्ज्व ल भविष्य नजर आयेगा। जो पीछे मुड़कर देखता है उसे भूत के अलावा और कुछ नहीं दिखता।।2।।

     

    3. उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर।

    आत्मबोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर।।3।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  सूरज - सूर्य
    2.  आत्मबोध - आत्मज्ञान
    3.  तुरत - तुरन्त
    4.  संयम - पाँच इन्द्रियों और मन को वश मे करना तथा षट्काय जीवों की रक्षा करना

     

    अर्थ -  वह बीज जो अंकुरित हो जाता है उसका मुख सूर्य की ओर हो जाता है। इसी तरह जीव को जब आत्मज्ञान हो जाता है। तो उसका मुख संयम की ओर हो जाता है।।3।।

     

    4. हित - मित - नियमित - मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल।

    वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा खोल ||4||

     

    शब्दार्थ -

    1.  हित - हितकारी
    2.  मित - कम, थोड़े
    3.  नियमित - सीमित
    4.  मिष्ट - प्रिय
    5.  तज - छोड़कर
    6.  खोल - आवरण
    7.  समता - साम्य भाव

     

    अर्थ - यदि मुख खोलना है तो हित मित प्रिय और सीमित वचन ही बोलें वरना सब प्रकार के सम्पर्क को छोड़कर समता की खोल में जाकर छिप जा ।।14।।

     

    5. कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप मंडूक।

    बरसाती मेंढक नाहीं, बरसो घन बन मूक ।।5।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  कूप - कुआँ
    2.  मंडूक - मेंढ़क
    3.  घन - बादल
    4.  मूक - मौन

     

    अर्थ - यदि बनना है तो कूप बनो, तालाब मत बनो और कुएँ के मेंढक भी मत बनतो। न ही तुम बरसाती मेंढक बनो बल्कि बरसने वाले शीतल मेघ की तरह मौन रहकर दूसरों का भला करते रहो ।।5।।

     

    6. हीरा मोती पद्म ना, चाहूँ तुमसे नाथ।

    तुम सा तम तामस मिटा, सुखमय बनूँ प्रभात।।6।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  तम - अंधकार
    2.  तामस - अज्ञान
    3.  प्रभात - सुबह

     

    अर्थ - हे भगवन्! मैं आपसे इस संसार में हीरा, मोती, पद्म जैसे रत्नों को नहीं चाहता हूँ। जिस प्रकार आपने अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर दिया, उसी प्रकार मैं भी अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करके अपने जीवन को प्रातःकालीन प्रकाश के समान सुखमय बनाना चाहता हूँ।

     

    7. सन्त पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप।

    उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप ||7||

    शब्दार्थ -

    1. राग - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से इष्ट पदार्थों में प्रीति रूप परिणाम होना राग है।
    2.  उष्ण - गर्म
    3.  नीर - जल

     

    अर्थ - सन्त पुरुष के प्रति उत्पन्न राग भी पाप के नाश का कारण बनता है। जिस तरह जल उबलता हुआ हो तो भी अग्नि के शमन में कारण होता है ।।7।।

     

    8. लगाम अंकुश बिन नहीं, हयगय देते साथ।

    व्रत श्रुत बिन मन कब चले, विनम्र करके माथ।।8।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  लगाम - घोड़े के मुँह में लगाया जाने वाला बाग समेत छड़
    2.  अंकुश - हाथी को वश में रखने का विशेष लोहे का काँटा
    3.  हय, गय - हाथी - घोड़े
    4.  व्रत - नियम, उपवास
    5.  श्रुत - शास्त्र
    6.  विनम्र - झुका हुआ, विनीत और सुशील
    7.  माथ - मस्तक

     

    अर्थ - जैसे अंकुश के बिना हाथी और लगाम के बिना घोड़ा साथ छोड़ देते हैं उसी तरह व्रत और श्रुत के बिना मन विनम्रता पूर्वक सिर झुकाकर चलने की अनुमति नहीं देता ।।8।।

     

    9. भले कूर्मगति से चलो, चलो कि ध्रुव की ओर।

    किन्तु कूर्म के धर्म को, पालो पल-पल और ||9||

     

    शब्दार्थ -

    1.  कूर्म - कछुआ
    2.  ध्रुव - लक्ष्य, अटल, अचल
    3.  पल - क्षण

     

    अर्थ - भले ही मंदगति से चलो लेकिन अपने लक्ष्य से कभी भी विमुख मत होओ। कछुए की चाल से चलना भी श्रेष्ठ है, यदि लक्ष्य से विमुख न होने का कछुए का दूसरा धर्म भी याद रहे ।।9।।

     

    10. खुला खिला हो कमल वह, जब लौं जल संपर्क।

    छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क।।10।।

     

    शब्दार्थ -

    1. सम्पर्क - संयोग, संसर्ग
    2. नर - मनुष्य
    3. फर्क - अन्तर 

     

    अर्थ - कमल जब तक जल के संपर्क में रहता है तब तक खुलकर खिला रहता है जैसे ही उसका जल से संपर्क छूटता है वह सूख जाता है। इसी तरह मनुष्य जब तक धर्म के संपर्क में रहता है कमल की तरह विकसित रहता है और धर्म का संपर्क छूटते ही उसमें और पशु में कोई फर्क नहीं  रहता ।।10।।

     

    11. भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग।

    निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग।।11।।

     

    शब्दार्थ -

    1. भू - पृथ्वी
    2. नाग - सर्प

     

    अर्थ - जिस प्रकार सर्प मेंढक को जल में नहीं किन्तु पृथ्वी पर ही निगलता है उसी प्रकार कर्म प्राणी को निज में रहते हुए नहीं बाहर आने पर ही प्रभावित करते हैं अर्थात् जब मनुष्य अन्तर्जगत को छोड़कर बाह्य जगत की ओर दृष्टि करता है।  तभी कर्म उसे सताते हैं ।।11।।

     

    12. पेटी भर ना पेट भर, खेती कर ना आखेट।

    लोकतन्त्र में लोक का, संग्रह हो भरपेट ||12||

     

    शब्दार्थ -

    1.  आखेट - शिकार
    2. संग्रह - संचय, इकट्ठा करना 

     

    अर्थ  - हे मानव! पेटी भरने के लिए अनावश्यक संग्रह मत कर अपितु पेट भरने के लिए कृषि कार्य कर, शिकार मत कर मांसाहार का त्याग कर।प्रजातंत्र में लोगों को अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही पर्याप्त संग्रह करना चाहिए ||12||

     

    13. सार–सार का ग्रहण हो, असार को फटकार |

    नहीं चालनी तुम बनो, करो सूप सत्कार ||13||

     

    शब्दार्थ -

    1.  असार - सारहीन 
    2.  फटकार - निकालकर दूर करना
    3.  चालनी - छलनी
    4.  सूप - अनाज पछोरने के लिए बॉस के छिलके से बना एक पात्र, छाज

     

    अर्थ - मनुष्य को वस्तु के सार को ग्रहण करने तथा निस्सार को निकाल दूर करने वाले सूप के समान बनना चाहिए, निस्सार वस्तु का ग्रहण करने वाली छलनी के समान नहीं ।।13।।

     

    14. मात्रा मौलिक कब रही, गुणवत्ता अनमोल।

    जितना बढ़ता ढोल है, उतनी बढ़ती पोल ।।14।।

     

    शब्दार्थ -

    1. मौलिक - मूल्यवान, महत्त्व
    2.  गुणवत्ता - गुण की महिमा
    3.  अनमोल - अमूल्य
    4.  पोल - खोखलापन

     

    अर्थ - किसी वस्तु की अधिक मात्रा का कोई महत्त्व नहीं होता अपितु महत्ता उसके गुण की होती है, गुण अमूल्य होते हैं। ढोल का जितना बड़ा आकार होता है उसके अन्दर खोखलापन उतना ही रहता है ।।14।।

     

     15. दूर दिख रही लाल सी, पास पहुँचते आग।

    अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग ||15।।

     

    शब्दार्थ -

    1. दाग - अस्पष्ट
    2.  आग - अग्नि

     

    अर्थ - दूर से देखने पर लाल सा कुछ नजर आता है लेकिन जब पास पहुँचते है तो ज्ञात होता है कि आग है। दूर से पदार्थ का अस्पष्ट ज्ञान होता है जबकि निकटवर्ती पदार्थों का ज्ञान स्पष्ट होता है। ।।15।।

     

    16. खिड़की से क्यों देखता, दिखे दुःखद संसार।

    खिड़की में अब देख ले, दिखे सुखद साकार ||16 ||

     

    शब्दार्थ -

    1.  दुःखद - दुःख देने वाला
    2. सुखद - सुख देने वाला

     

    अर्थ - हे साधक! तू नेत्र रूपी झरोखों से बाहर क्यों देखता है वहाँ तो तुझे दुःखद संसार ही दिखेगा। अब तू अपने अन्दर झाँक तुझे सुखद साकार आत्मा के दर्शन होंगे ।।16।।

     

    17. स्वर्ण पात्र में सिंहनी, दूध टिके न अन्यत्र।

    विनय पात्र में शेष भी, गुण टिकते एकत्र।।17।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  स्वर्ण पात्र- सोने का बर्तन
    2.  अन्यत्र - दूसरी जगह
    3. एकत्र - एक जगह

     

    अर्थ - जिस प्रकार सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही सुरक्षित रहता है अन्य किसी पात्र में नहीं, उसी प्रकार व्यक्ति के शेष सभीगुण विनयरूपी पात्र में ही एक जगह सुरक्षित रहते हैं। ||17||

     

    18. थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास।

    रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ||18 ||

     

    शब्दार्थ -

    1.  रवि - सूर्य ।
    2.  निशि - रात में
    3.  श्वास लेना - विश्राम लेना

     

    अर्थ - थक जाने का नाम हार जाना नहीं है बल्कि दो पल को विश्राम लेना मात्र है। जिस प्रकार सूर्य रात में विश्राम करता है और दिन में प्रकाश करता है। ।।18।।

     

    19. यम दम शम सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय।

    नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ||19।।

     

    शब्दार्थ -

    1.  यम - हमेशा के लिए ग्रहण किये गये व्रत
    2.  दम - इन्द्रिय दमन
    3.  शम - क्षमा
    4.  सम - समता
    5.  अनुपम - उपमा रहित, सर्वोत्तम, बेजोड़
    6.  अधिगम - ज्ञान  

     

    अर्थ - हे साधक! तुम हमेशा के लिए व्रत ग्रहण कर, इन्द्रियों का दमन कर, क्षमा और समता धारण कर तथा तुम्हारी धीरे धीरे योग की प्रवृत्ति भी कम हो। तुम इस तरह नर से नारायण बनो और तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो ।।19।।

     

    20. स्वीकृत हो मम नयन ये, जय-जय-जय-जयसेन।

    जैन बना अब जिन बनूं, मन रहता दिन रैन।।20।


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