अभिमान का दुष्परिणाम
अभिमान का दुष्परिणाम
कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना या अन्यथा होना यह उसके वश की बात नहीं है।
मान लीजिये कि एक किसान ने खेती का काम किया - जमीन को अच्छी तरह जोता, खाद भी अच्छी लगाई, बीज अच्छी तरह से बोया, सिंचाई ठीक तौर से की, और भी सब सार सम्भाल की और फसल अच्छी तरह पककर तैयार हो गयी। किन्तु एकाएक ओला पड़ा जिस से कि किया कराया सब कुछ बर्बाद। सारी खेती टूट कुचलकर मिट्टी में मिल जाती है। ऐसी हालत में अगर किसान यह कहे कि मैं ही खेती करने वाला हूं, अन्न को उपजाता हूं तो यह उसका अभिमान गलत विचार है। इस गलत विचार के पीछे स्वार्थ की बदबू रहती है यानि जब कि खेती करने वाला हूं तो मैं ही उसका अधिकारी हूं, भोक्ता हूं, किसी दूसरे का इस पर क्या अधिकार है? इस प्रकार का संकीर्ण भाव उसके हृदय में स्थान किये रहता है। इस संकीर्ण भाव के कारण से ही प्रकृति भी उसका साथ देना छोड़कर उसके विरुद्ध ही रहती है, ताकि जी-तोड़ परिश्रम करने पर भी सफलता के बदले में प्रायः असफलता ही उसके हाथ लगा करती है।
हां, जो निरभिमानी होता है, वह तो मानता है कि यह मेरा कर्तव्य है अत: मैं करता हूं। मुझे करना चाहिये। इसका फल किसको कैसा क्या होगा, इसकी उसे चिन्ता ही नहीं होती। एक समय की बात है कि किसी नगर का राजा घोड़े पर चढ़कर वायु सेवन के लिये रवाना हुआ, नगर के बाहर आया तो एक बूढ़ा माली अपने बगीचे में नूतन पेड़ लगा रहा था। यह देखकर राजा बोला कि बूढ़े तू जो ये पेड़ लगा रहा है तो कब जाकर बड़े होंगे? क्या तू इनके फल खाने के लिए तब तक बैठा ही रहेगा? बूढ़े ने उत्तर दिया कि प्रभो इसमें फल खाने की कौन-सी बात है? यह तो मेरा कर्तव्य है, अत: मैं कर रहा हूँ मैंने भी तो बुजुर्गों के लगाये हुए पेड़ों के फल खाये हैं, अत: इन मेरे लगाए हुये पेड़ों के फल मेरे से आगे वाले लोग खावें यही प्रकृति की मांग है। इस पर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और पारितोषक रूप में एक मुहर उसे देते हुये धन्यवाद दिया।
मतलब यह कि कर्तव्यशील निरभिमानी आदमी जो कुछ करता है उसे कर्तव्य समझकर विवेकपूर्वक करता है, उसे फल की कुछ चिन्ता नहीं रहती। इसी उदारता को लेकर उसे उसमें सफलता भी आशीतीत प्राप्त होती है।
श्री रामचन्द्रजी को पता लगा कि सीता रावण के घर पर है तो बोले कि चलो उनको लाने के लिए। इस पर सुग्रीव आदि ने कहा कि प्रभो! रावण कोई साधारण आदमी नहीं है। उससे प्रतिद्वन्दिता करना आग में हाथ डालना है। श्री रामचन्द्र जी ने कहा, कोई बात नहीं। परन्तु सीता को आपत्ति में पड़ी देखकर भी हम चुप बैठे रहे, यह कभी नहीं हो सकता है। हमें अपना कर्तव्य अवश्य पालन करना चाहिये। फिर होगा तो वही जो कि प्रकृति को मंजूर है। श्री रामचन्द्रजी की सहज सरलता के द्वारा उनके लिये सभी तरह का प्रक्रम अपने आप अनुकूल होता चला गया।
उधर उनके विपक्ष में रावण यद्यपि वस्तुत: बहुत बलवान और शक्तिशाली भी था, परन्तु वह समझता था कि मुझे किसकी क्या परवाह है, मैं अपने भुजबल और बुद्धि कौशल से जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। बस इसी घमण्ड की वजह से उसकी खुद की ही ताकत उसका नाश करने वाली बन गयी। इस बात का पता हमें रामायण पढ़ने से लगता है अतः मानना ही चाहिये कि अभिमान के बराबर और कोई दुर्गुण नहीं है, जिसके पीछे अन्धा होकर यह मनुष्य अपने आपको ही खो बैठता है।
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