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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

व्यर्थवादी की दुर्दशा


संयम स्वर्ण महोत्सव

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व्यर्थवादी की दुर्दशा

 

जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला। 

 

एक लम्बी सरल लकड़ी लाये ओर कछुवे से कहा कि तुम अपने मुँह से इसे बीच में पकड़ लो, हम दोनों इसके इधर-उधर के अन्त भागों को अपनी चोंचो से पकड़ कर ले उड़ते हैं, यह ठीक होगा।'' इस प्रकार तीनों आसमान में चलने लगे। चलते-चलते धरातल पर मध्य में एक गांव आया। गाँव के लोग नया दृश्य देखकर अचम्भे में पड़े और आपस में कहने लगे कि “देखो यह कैसा विचित्र खेल है।” यों कल-कल मचा देखकर कछुवे से न रहा गया, वह बोल बड़ा कि क्यों चक-चक करते हो, बस फिर क्या था, धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा और पकड़ा गया।

 

मतलब यह कि मनुष्यों में अपने भले के लिए शारीरिक संयम के साथ-साथ वाणी का भी संयम होना चाहिए। शारीरिक संयम उतना कठिन नहीं है जितना कि मनुष्य के लिए वाक् संयम एवं मानसिक संयम तो उससे भी कहीं अधिक कठिन है। वाणी का संयम तो मुंह बन्द किया और हो सकता है, किन्तु मन तो फिर भी चलता ही रहेगा।

 

मनुष्य का मन इतना चंचल है कि वह क्षण भर में कहीं का कहीं दौड़ जाता है। इसके नियंत्रण के लिए तो सतत साधु-संगति और सत्साहित्यावलोकन के सिवाय और कोई भी उपाय नहीं है। यद्यपि साधुओं का समागम हरेक के लिए सुलभ नहीं है फिर भी उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़कर अपना जीवन सुधारा जा सकता है।

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