सुभाषित ही संजीवन है
सुभाषित ही संजीवन है
जिसको सुनकर भूला भटका हुआ आदमी ठीक मार्ग पर आ जावे और मार्ग पर लगा हुआ आदमी दृढ़ता के साथ उसे अपनाकर अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में समर्थ बन जावे उसे सुभाषित कहते हैं। यद्यपि बिना बोले आदमी का कोई भी कार्य सुचारु नहीं होता, किन्तु अधिक बोलने से भी कार्य होने के बदले वह बिगड़ जाया करता है। समय पर न बोलने वाले को मूक कहकर उसका निरादर किया जाता है, तो अधिक या व्यर्थ बोलने वाले को भी वावदूक या वाचाल कहकर भर्त्सना ही की जाती है। तुली हुई और समयोचित बात का ही दुनिया में आदर होता है। यहां हमें महाभारत के एक प्रसंग का स्मरण हो आता है। कौरवों और पाण्डवों में घमासान युद्ध हो रहा था। इधर पाण्डव पांच भाई थे तो उधर भी कर्म, भीष्म, जयद्रथ आदि प्रमुख योद्धा थे। बल्कि द्रोणाचार्य तो बाण विद्या के अधिनायक थे जो कि कौरवों की तरफ से खड़े होकर पाण्डवों की सेना में विंध्वस मचा रहे थे। यह देखकर श्रीकष्ण के दिल में विचार आया कि अगर कुछ देर भी ऐसा होता रहा तो आज अवश्य ही पाण्डवों की पराजय हो जायेगी। इतने ही में एक हाथी मारा गया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पास जाकर पूछा कि भूपते कौन मारा गया? युधिष्ठर इसका उत्तर अनुष्टुप चरण में 'अश्वत्थामाहतोहस्ती' इस प्रकार से देने वाले थे, उन्होंने बोलना प्रारंभ करके अश्वत्थामा तो इतना ही बोला था कि उसी क्षण श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजा दिया। लोगों ने समझा कि द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा मुख्य योद्धाओं में से था, अत: इसे सुनकर पाण्डवों की सेना में उत्साह छा गया और कौरवों की सेना भंग होकर उसमें शोक छा गया और पुत्रा शोक से द्रोणाचार्य का भी भुजबल ढीला पड़ गया। इसका नाम है अवसरोचित बात, जिससे कि अनायास ही कार्य सिद्ध हो जाता है। हाँ, व्यर्थ की बकवास करने वाला आदमी अपने आप विपत्ति के गर्त में गिरता है।
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