1. जीवन समझो मोल है, ना समझो तो खेल।
खेल-खेल में युग गया, वहीं खिलाड़ी खेल ||1||
शब्दार्थ -
- मोल - मूल्यवान
- युग - काल, समय
अर्थ - जिसने जीवन को समझा उसके लिये जीवन अनमोल है। और जिसने नहीं समझा उसके लिये खेल और फिर खेल-खेल में कई युग बीत गये लेकिन खिलाड़ी और खेल वहीं के वहीं हैं ।।1।।
2. खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल।
आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल ||2||
शब्दार्थ -
- अनोखा - अनूठा, अदभुत
अर्थ - जीवन एक अनोखा खेल है, यदि तुम खेल सकते हो तो खेल लो। इस खेल में न केवल खिलाड़ी बल्कि खिलौना और खेल भी आप स्वयं ही होते हैं ।।2।।
3. किस-किस का कर्ता बनूँ किस-किस का मैं कार्य।
किस-किस का कारण बनूँ यह सब क्यों कर आर्य ।।3।।
शब्दार्थ -
- आर्य - सज्जन पुरुष
- कर्ता - करने वाला
अर्थ - मैं किस-किस का कर्ता बनूँ, किस-किस का कार्य बनें और किस-किस का कारण बनू और बनूँ भी तो किस लिये? ।।3।।
4. पर का कर्ता मैं नहीं, मैं क्यों पर का कार्य ।
कर्ता कारण कार्य हूँ, मैं निज का अनिवार्य ||4||
शब्दार्थ -
- पर - दूसरा
- निज - अपना
- अनिवार्य - जरूरी
अर्थ- जब मैं पर का कर्ता नहीं हूँ तो पर का कार्य कैसे हो सकता हूँ। मैं तो स्वयं का अनिवार्य कर्ता, कारण और कार्य हूँ ।।4।।
5. घुट-घुट कर क्यों जी रहा, लुट–लुट कर क्यों दीन।
अन्तर्घट में हो जरा, सिमट-सिमट कर लीन ||5||
शब्दार्थ -
- दीन - दरिद्र, गरीब
- घुट-घुट कर - असह्य पीड़ा सहते हुए
- अन्तर्घट - अपनी आत्मा
- लीन - संलग्न
अर्थ- घुट-घुट कर क्यों जीना और लुट-लुटकर गरीब भी क्यों होना? इससे तो अच्छा है तू बाह्य जगत से अपने को समेट कर अन्तर्जगत में लीन हो जा अर्थात् अपनी आत्मा में लीन हो जा ।।5।।
6. खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल।
खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ।।6।।
शब्दार्थ -
- खोया - लीन है या फूला हुआ है।
- अहम - अहंकार
- खोया - खोना
- अनमोल - अमूल्य
अर्थ - जो अहंकार में फूला हुआ है उसने सब कुछ खो दिया है। और जिसने अहंकार को खो दिया है उसने अनमोल धन प्राप्त कर लिया है ||6||
7. यान करे बहरे इधर, उधर यान में शांत।
कोरा कोलाहल यहाँ, भीतर तो एकान्त ||7 ||
शब्दार्थ-
- कोलाहल- शोर
- यान - वायुयान
- कोरा - व्यर्थ
- भीतर - अपनी आत्मा में
- एकांत - पूर्ण शांति
अर्थ - वायुयान से बाहर में इतनी भीषण आवाज होती है कि सुनने वाले भी बहरे हो जायें, किन्तु वायुयान के अन्दर पूर्ण शान्त वातावरण रहता है। इसी भाँति बाह्य जगत में तो व्यर्थ का कोलाहल होता रहता है किन्तु साधक के अन्तर्जगत में पूर्ण शांति बनी रहती है ।।7।।
8. स्वर्ण बने वह कोयला, और कोयला स्वर्ण।
पाप-पुण्य का खेल है, आतम में ना वर्ण। ||18 ||
शब्दार्थ -
- स्वर्ण - सोना
- आतम - आत्मा
- वर्ण - रंग।
अर्थ - कर्म के उदय से स्वर्ण भी कोयला बन जाता है और पुण्य कर्म के उदय से कोयला भी स्वर्ण बन जाता है। जो इससे ऊपर उठकर शुद्धात्म स्वरूप हो चुका है उसका कोई वर्ण नहीं होता है ।।8।।
9.प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार।
प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ।।9।।
शब्दार्थ -
- प्रमाण - ज्ञान
- आकार - आकृति
अर्थ - प्रमाण अर्थात् ज्ञान का कोई आकार नहीं होता, बल्कि प्रमाण में समस्त ज्ञेय आकार को प्राप्त करते हैं। प्रकाश का कोई आकार नहीं होता बल्कि प्रकाश में सभी पदार्थ आकार को प्राप्त करते हैं।।9।।
10. जिनवर आँखें अधखुली, जिनमें झलके लोक।
आप दिखे सब देख ना, स्वस्थ रहे उपयोग ||10||
शब्दार्थ -
- अधखुली- आधी खुली हुई (नासा दृष्टि)
- उपयोग - जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है। |
- झलके - झलकता है।
- लोक - तीनों लोक (संसार)
अर्थ- जिनेन्द्र भगवान की नासा दृष्टि में समस्त संसार स्पष्ट झलकता है। हे मानव! तू भी अपने में देख, संसार को नहीं, ताकि तेरा उपयोग स्वस्थ रहे ||10।।
11. अलख जगाकर देख ले, विलख-विलख मत हार।
निरख निरख निज को जरा, हरख–हरख इस बार ||11||
शब्दार्थ -
- अलख - भाग्य
- विलख - चिल्लाकर रोना ।
- निरख - ध्यानपूर्वक देखना
- हरख - प्रसन्न होना/हर्षित होना
अर्थ - हे मानव! पुरुषार्थ द्वारा भाग्य को जगाने का प्रयास कर, केवल भाग्य-भाग्य चिल्लाकर रुदन मत कर। इस मानव जन्म को पाकर हर्षित होकर तनिक अपने निज स्वरूप को देखने का प्रयास कर ।।11।।
12. कर्तापन की गंध बिन, सदा करे कर्त्तव्य।
स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव पर हो मन्तव्य ।।
शब्दार्थ -
- गंध - सुगन्ध
- कर्तापन - करने का भाव
- कर्त्तव्य - कर्म
- ध्रुव - स्थिर, केन्द्रित
- मन्तव्य - संकल्प
- स्वामीपन- मालिकपन, स्वामित्व
अर्थ - मनुष्य को कर्ताभाव मन में लाये बिना सदैव अपने कर्तव्य करते रहना चाहिए। जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है उसे स्वामित्व तो स्वयं ही प्राप्त हो जाता है।।12।।
13. चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव ।
चेतन की फिर हार क्यों, भाव हुआ दुर्भाव |13||
शब्दार्थ -
- चेतन - आत्मा
- छाँव - छाया
- दुर्भाव - खराब भाव/खोटे भाव
- हार - पराजय
अर्थ - चेतन में न भार है और न ही उसकी छाया पड़ती है। चेतन की पराजय फिर कैसे सम्भव है। मन में चेतन की पराजय का भाव आना भी दुर्भाव है। ।13।।
14. धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण।
तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन ||14 ||
शब्दार्थ -
- वतन - देश ।
- गौण - अप्रधान, मूल अर्थ से भिन्न होना
- तन - शरीर
- सहज - आसान, सरल
अर्थ - धन जब बीच में आ जाता है तो व्यक्ति देश को भी भूल जाता है और जब शरीर बीच में आ जाता है तो चेतन को गौण कर देता है। ||14||
15. फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग।
तभी फूल का पतन हो, राग त्याग तू जाग ||15।।
शब्दार्थ -
- विराग - वैराग्य
- राग - प्रीति, प्रेम
- पतन - च्युत होना, गिरना
अर्थ - फूल राग का कारण है और काँटा विराग का यही वजह है। कि फूल का पतन होता है। अतः हे मानव! तू जाग और राग का परित्याग कर ||15 ।।
16. मोह दुखों का मूल है, धर्म सुखों का स्रोत।
मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत।।16।।
शब्दार्थ -
- मोह - ममत्व, परिणाम |
- मूल - जड़
- स्रोत - साधन
- पीयूष - अमृत
- विष - जहर
अर्थ - मोह दुखों की जड़ है और धर्म सुख का स्रोत है। अमृत का मूल्य तभी समझ में आता है जब विष मृत्युदायी हो जाता है।।16।।
17. पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़।
पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़।।17।।
शब्दार्थ -
- तज - छोड़कर
- नीड़ों - घोंसलों
- पंछी - पक्षी
- निज - अपना
अर्थ - सम्पूर्ण जगत अन्तर्जगत को छोड़कर बाहर की दौड़ में क्यों लगा हुआ है। क्या कभी पक्षी अपने घोंसले को छोड़कर दूसरे के घोंसले में प्रवेश करता है? अर्थात् कभी नहीं ।।17।।
18. विषय-विषम विष है सुनो, विष सेवन से मौत।
विषय-कषाय विसार दो, स्वानुभूति सुख स्रोत ||18 ||
शब्दार्थ -
- विषय - पंचेन्द्रिय के भोग
- विषम - प्रतिकूल
- विष - ज़हर
- विसार - छोड़कर
- स्वानुभूति- अपनी आत्मतत्त्व में रमण का अनुभव
- स्रोत - साधन
अर्थ - हे भव्य जीव सुनो! पंचेन्द्रिय के विषय विष के समान प्रतिकूल है। जिस प्रकार विष के सेवन से जीव की मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार यह पंचेन्द्रिय विषय भी इस जीव को संसार में भटकाने वाले हैं। इसीलिए विषय रूपी कषाय को छोड़कर हमें अपनी आत्मतत्त्व में रमण करना चाहिए जो कि सुख का साधन है।।18।।
19. हल्का लगता जल भरा, घट भी जल में जान।
दुख-सुख सा अनुभूत हो, हो जब आतम ज्ञान।।19।।
शब्दार्थ -
- घट - घड़ा
- अनुभूत - अनुभव किया हुआ
- जान - जानना
- आतमज्ञान-आत्मा का ज्ञान
अर्थ - जिस प्रकार जल से भरा घड़ा जल में हल्का लगता है उसी प्रकार जब दुःख भी सुख के समान अनुभूत होने लगे तभी आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।।19।।
20. कुन्द कुन्द को नित नर्मू, हृदय कुन्द खिल जाय।
परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ।।20।।
शब्दार्थ -
- कुन्द - कमल
- महक - सुगन्ध
- मम - मेरा
अर्थ - मैं आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को नित्य नमस्कार करता हूँ। जिससे मेरा हृदय रूपी कमल भी खिल जाए। आचार्य कुन्द-कुन्द के गुणों की महक परम सुगन्धित है। मेरा जीवन भी उसमें आत्मसात् हो जाए।।20।।