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जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं


संयम स्वर्ण महोत्सव

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जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं

 

जिन बातों के होने से प्राणी, प्रजा का विप्लवकारी साबित हो ऐसी हिंसा, असत्यभाषण चोरी, व्यभिचार, असन्तोष आदि को दुर्गुण समझना चाहिए। जहां दया होती है वहां पर इन दुर्गुणों का लेश मात्रा भी नहीं होता परन्तु जहां इनमें से कोई भी एक तो वहां पर फिर दया नहीं रह सकती है। हमारे यहां एक कथा आती है कि एक राजा था उस के दो लड़के थे। तो राजा के मरने पर बड़े लड़के को राजा और छोटे को युवराज बनाया गया। दोनों का समय परस्पर बड़े प्रेम से कटने लगा। परन्तु संयोगवश ऐसा हुआ कि एक रोज राजा ने युवराज्ञी को नजर भर देख लिया। युवराज्ञी युवती थी और बड़ी सुन्दर थी। अत: उसे देखते ही राजा का विचार बदल गया। वह उसके साथ अपनी बुरी वासना को पूरी करने की सोचने लगा।

 

अत: उसने युवराज को तो किसी सीमान्त दुष्ट राजा पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया और युवराज्ञी को फुसलाने के लिए उसने अपनी दूतों द्वारा पारितोषक भेजा किन्तु वह राजी न हुयी। राजा ने सोचा भाई को मार दिया जाए, फिर तो वह लाचार होकर अपने आप मेरा कहना करेगी। वसन्तोत्सव का षडयंत्र रचाया गया, सब लोग अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर वन-विहार को गये। युवराज भी युवराज्ञी के साथ अपने बगीचे में पहुंच गया और सोचा कि आज की रात यहां ही आराम से काटी जाये। उसे क्या पता था कि रंग में भंग होने वाला है। राजा के मनचाही बात हुई,

 

अत: वह घोड़े पर चढ़ कर युवराज के विश्राम स्थान की ओर रवाना हुआ। पहरा लग रहा था, परहेदारों ने राजा को आगे बढ़ने से रोककर युवराज को सूचना दी कि महाराज आपके पास आना चाहते हैं। युवराज बोले, आने दो। युवराज्ञी समझ गई और बोली प्रभो। आप क्या कर रहे हैं? होशियार रहिये, आपके भाई साहब का विचार मुझे आपके प्रति ठीक प्रतीत नहीं हो रहा है। युवराज ने उसके कहने पर भी ध्यान नहीं दिया। राजा साहब आये और उचित स्थान पर युवराज के पास बैठ गये। युवराज बोला भाई साहब! आज इस समय कैसे आना हो गया, ऐसा क्या काम आ पड़ा? आपने आने का कष्ट क्यों किया, मुझे सूचित कर देते तो मैं ही आपके पास आ सकता था।

 

राजा बोला- बताऊँगा, परन्तु मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अतः पहले पानी पिलाओ। युवराज को क्या पता था कि इनके अन्तरंग में क्या है? वह तो एकान्त भ्रातृ-स्नेह को लिए हुए था अत: बड़े भाई को पानी पिलाने के लिए गिलास-उठाने को लपका कि पीछे से राजा ने उसकी गरदन पर कटार मार दिया, और उन्हीं पैरों उलटा लौट चला। सिपाहियों से हल्ला मचा कर उसे पकडना चाहा, मगर युवराज्ञी ने सोचा कि स्वामी मरणासन्न हैं अगर हम लोग इसी धर पकड़ में लगे रहे तो संभव है कि स्वामी का अन्त समय बिगड़ जाये अतः उसने सिपाहियों को ऐसा करने से रोका और अपने दिल को कड़ा करके समयोचित अन्तिम संदेश - “हे स्वामिन इस संसार में अनादिकाल से जन्म-मरण करते रहने वाले इस शरीरधारी की अपनी भूल ही इसका शत्रु है। और स्वयं संभल कर चलना ही इसका मित्र है, बाकी ये सब दुनिया के लोग तो परिस्थिति के वश होकर जो आज शत्रु हैं वे ही कल मित्र, और मित्र से फिर शत्रु होते दिखाई देते हैं। जो भाई साहब आपके लिए जान तक देने को हर समय तैयार रहते थे वे ही आज आपकी जान के ग्राहक बन गये, ऐसा होने से यदि विचार कर देखा जावे तो प्रधान निमित्त मैं ही हूं, मेरे ही रूप के पीछे पागल होकर उन्होंने ऐसा किया, अत: एक तरह से देखा जावे तो मैं ही आपकी शत्रु हूँ, जिसको आप अपनी समझ रहे हैं।

 

वस्तुत: कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं है न कोई अपना है और न कोई पराया। सब लोग अपने-अपने कर्मों के प्रेरे हुए यहां से वहां चक्कर काट रहे हैं। कोई किसी का साथ देने वाला नहीं है, ओरों की तो बात ही क्या, इस मनुष्य का शरीर भी यहां का यहीं रहा जाता है जबकि वह परलोकगमन की सोचता है। हां, उस समय यदि भगवान का स्मरण करता है तो वह स्मरण अवश्य उसके साथ रहता है एवं गड्ढे में गिरने से बचाता है। अतः आप तो क्या अच्छे और क्या बुरे सभी प्रकार के संकल्पों को त्याग कर परमात्मा के स्मरण में मन को लगाइये और इन नश्वर शरीर का प्रसन्नता पूर्वक त्याग कर जाइये।

 

जैसे कि सर्प कांचली को छोड़ जाता है, इस प्रकार कह कर अन्तिम श्वास तक नमस्कार मंत्र उसे सुनाती रही उसने भी भगवान् के चरणों में मन लगाकर इस पामर शरीर का परित्याक किया, एवं वह दिव्य देहधारी देव बना ओर उसी युवराज के रूप में पानी लेकर राजा के पास आया तथा बोला कि लो पानी पी लो- चले क्यों आये, तुम तो प्यासे थे? परन्तु वस्तुत: तुम पानी के प्यासे न होकर जिस बात के प्यासे हो वह तुम्हारी प्यास, जो मार्ग तुमने अपना रखा है उससे नहीं मिट सकती देखों तुमने मेरे कटार मार दी थी, वह भी उस सती के सन्देश मंत्र से ठीक हो गयी है। जिस महासती को लक्ष्य कर तुम बुरी वासना के शिकार बन रहे हो। अत: अब तुमको चाहिए कि तुम सन्तोष धारण करो, उस सती के चरण छुओं एवं भगवान् का नाम जपो, बस इसी में तुम्हारा कल्याण है।

 

इस पर होश में आकर राजा ने भी अपने दुष्कृत्य का पश्चाताप करके ठीक मार्ग स्वीकार किया।'' मतलब यह कि दया के द्वारा ही मनुष्य मानवीय बनता है। दया ही परम धर्म है, जिसको अपनाकर यह शरीरधारी ऊपर को उठता है। परन्तु जो कोई भी दया को भूल जाता है या अहंकार के वश में होकर उसकी अवहेलना करता है वह जीव इस दुनियां में घृणा का पात्र बन जाता है जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं

 

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण॥

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