1. सागर का जल क्षार क्यों, सरिता मीठी सार।
बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार ||1||
शब्दार्थ -
- क्षार - खारा
- सरिता - नदी
- संग्रह - संचय
- सार - यथार्थ बात हेतु (ऐसा)
- अरुचि - स्वाद की इच्छा न होना
- रुचिकर - सुखद
- उपकार - भलाई
अर्थ - समुद्र का जल खारा होता है और नदी का मीठा ऐसा क्यों? क्योंकि समुद्र को बिना परिश्रम के जल की प्राप्ति हो जाती है और नदी को निरन्तर कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जिन्हें बिना परिश्रम के धन की प्राप्ति हो जाती है उन्हें उसका स्वाद पता नहीं चलता और जो श्रम करके धन कमाते हैं उन्हें वही धन अधिक सुखद लगता है।।1।।
2. उन्नत बनने नत बनो, लघु से राघव होय।
कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय ।।2।।
शब्दार्थ -
- नत - विनम्र
- उन्नत - विकास
- लघु - छोटा
- राघव - राम
- कर्ण - कुन्ती का एक पुत्र
- धर्म - धर्मराज युधिष्ठिर
अर्थ - यदि उन्नति करना चाहते हो तो विनम्र बनो । जो लघु होता है, वही राम के समान पूज्य होता है। जिसके पास धर्म होता है, वह विजयी होता है। जैसे शक्तिशाली कर्ण के न रहते हुए भी एकमात्र धर्मराज के बल पर पाण्डव विजयी हुए थे ||2||
3. नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना ही परमार्थ।
देख गिरे को हम जगें, सही करें पुरुषार्थ ।।3।।
शब्दार्थ -
- व्यर्थ - बेकार
- सर्वथा - हमेशा
- परमार्थ - परोपकार
- पुरुषार्थ - पुरुष के उद्देश्य एवं लक्ष्य का विषय, पौरुष
अर्थ - मानव का पतन भी हमेशा व्यर्थ नहीं होता, कभी-कभी परमार्थ भी होता है। क्योंकि पतित व्यक्ति को देखकर भी व्यक्ति सचेत होकर सही पुरुषार्थ करने लगता है ।।3।।
4. कौरव रौरव में गये, पांडव क्यों शिवधाम।
स्वार्थ और परमार्थ का, और कौन परिणाम ||4||
शब्दार्थ -
- कौरव - कुरू वंश में उत्पन्न होने वाले धृतराष्ट्र के पुत्र
- रौरव - नरक (रव-रव एक नरक का नाम)
- शिवधाम - मोक्ष
- स्वार्थ - अपना हित साधने की उग्र भावना या अपना मतलब
- परमार्थ - दूसरों की भलाई, परोपकार
- परिणाम - फल, नतीजा
अर्थ- कौरव अपने स्वार्थवश सातवें नरक को प्राप्त हुए तथा पांडव परमार्थ के कारण मोक्ष को गए। स्वार्थ और परमार्थ का इसके अतिरिक्त और क्या परिणाम निकल सकता है ||4||
5. भूल नहीं पर भूलना, शिव पथ में वरदान।।
भूल नदी गिरि को करे, सागर का संधान।।5।।
शब्दार्थ -
- शिवपथ - मोक्षमार्ग
- वरदान - देवता, ऋषियों आदि से मांगी गई वस्तु
- गिरि - पर्वत
- संधान - खोज
अर्थ - भूल करना नहीं बल्कि भूल जाना मोक्षमार्ग में वरदान स्वरूप है। नदी भी पर्वत को भूलकर सागर की खोज में निकल जाती है ।।5।।
6. दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर।
आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर।।6।।
शब्दार्थ -
- दुराशय - दुर्भावना
- सदाशय - सद्भावना
- आश्रय - शरण, सहारा
- अभय - निर्भयता
अर्थ- हे मानव! तू हमेशा दुर्भावना से दूर और सद्भावना से पूर्ण रह। जो आश्रय विहीन हैं उन्हें आश्रय, धन और अभय प्रदान कर।।6।।
7. सूरज दूरज हो भले, भरी गगन में धूल।
सर में पर नीरज खिले, धीरज हो भरपूर ।।7।।
शब्दार्थ -
- दूरज - दूर जन्म लेने वाला
- सूरज - सूर्य
- गगन - आकाश
- सर - सरोवर, तालाब
- नीरज - कमल
- धीरज - धैर्य
- भरपूर - पूर्ण
अर्थ - सूर्य चाहे कितनी भी दूर हो तथा आकाश (वायुमण्डल) में
धूल भरी हुई हो फिर भी सरोवर में कमल खिलते ही हैं यह
पूर्ण धैर्य का ही परिणाम है।7।।।
8. ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिये अभंग।
ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग ।।8।।
शब्दार्थ -
- ईश - ईश्वर
- अभंग - अटूट
- ससूत्र - सूत्र सहित, डोर सहित
- नभ - आकाश
- आस्था - विश्वास, निष्ठा
अर्थ - जिस प्रकार बालक के हाथ में डोर रहती है तथा पतंग आकाश में जैसे - जैसे ऊपर उड़ती चली जाती है वैसे-वैसे बालक की प्रसन्नता बढ़ती चली जाती है। उसी प्रकार हे ईश! आप भले ही दूर हैं पर अटूट आस्था के सूत्र से जुड़ा होने के कारण मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ।।8।।
9. प्रभु दर्शन फिर गुरु कृपा, तदनुसार पुरुषार्थ।
दुर्लभ जग में तीन ये, मिले सार परमार्थ ।।9।।
शब्दार्थ-
- कृपा - आशीर्वाद
- तदनुसार- उसके अनुसार
- पुरुषार्थ - पुरुष के उद्देश्य एवं लक्ष्य का विषय
- दुर्लभ - कठिनता से प्राप्त होने वाला
- परमार्थ - उत्कृष्ट वस्तु
अर्थ - नित्य जिनेन्द्र, देव के दर्शन, गुरुदेव का आशीर्वाद और उसके अनुसार पुरुषार्थ, ये तीन बातें मनुष्य को दुर्लभता से प्राप्त होती है। जिसे ये तीनों मिल जाती हैं उसे सारभूत परमार्थ की प्राप्ति हो जाती है। |9।।
10. अन्त किसी का कब हुआ, अनन्त सब हे सन्त।
पर सब मिटता सा लगे, पतझड़ पुनः बसन्त ||10||
शब्दार्थ -
- अनंत - अक्षय
- पतझड़ - शिशिर ऋतु। (इसमें पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं)
- वसन्त - वर्ष की छः ऋतुओं में से एक (इसमें पेड़ की पत्तियाँ खिल जाती हैं)
- अन्त - नाश
अर्थ - हे सन्त! यद्यपि तुझे सब कुछ क्षणभंगुर नजर आता है पर वास्तव में ऐसा है नहीं। सत्य तो यह है कि द्रव्य दृष्टि से किसी का भी अन्त नहीं होता, सब कुछ अनन्त है। पतझड़ के आने पर पेड़ों के सारे पत्ते झड़ जाते हैं लेकिन बसन्त ऋतु के आते ही पेड़ पुनः हरे-भरे हो जाते हैं ।।10।।
11. ज्ञायक बन गायक नही पाना है विश्राम ।
लायक बन नायक नहीं, जाना है शिवधाम।।11।।
शब्दार्थ -
- ज्ञायक - सब जानने वाला
- गायक - गाने वाला
- विश्राम - सुख
- लायक - योग्य
- शिवधाम - मोक्ष
- नायक - स्वामी
अर्थ - हे साधक! यदि तू चिर विश्राम चाहता है तो गायक नहीं, ज्ञायक बन । यदि तुझे शिवधाम (मोक्ष) प्राप्त करना है तो नायक नहीं, लायक बन ।।11।।
12. सूक्ष्म वस्तु यदि ना दिखे, उनका नहीं अभाव।।
तारा राजी रात में, दिन में नहीं दिखााव ||12||
शब्दार्थ -
- सूक्षम - बहुत छोटा
- राजी - सहमत
- दिखाव - दिखाई देती
अर्थ- सूक्ष्म वस्तु यदि नहीं दिखती है तो इसका अर्थ यह नहीं है। कि उसका अभाव है। तारों की पंक्ति रात्रि में दिखाई देती। है, दिन में नहीं लेकिन उसका अभाव नहीं हो जाता ||12||
13. लघु कंकर भी डूबता, तिरे काष्ठ भी स्थूल।
"क्यों मत पूछो तर्क से, स्वभाव रहता दूर।।13।।
शब्दार्थ -
- लघु - छोटा
- काष्ठ - लकड़ी
- स्थूल - मोटा
- तर्क - जानने-समझाने हेतु किया जाने वाला प्रयास या सुविचारित बात
- स्वभाव - प्रकृति
अर्थ - कंकर छोटा होते हुए भी डूब जाता है और काष्ठ स्थूल होते
हुए भी तैरता रहता है। ऐसा क्यों होता है यह मत पूछना क्योंकि यह उनका स्वभाव है और स्वभाव तर्क के अगोचर होता है।।13।।
14. कल्पकाल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प।
अल्पकाल भी मौन ले, चलता अन्तर्जल्प||14||
शब्दार्थ -
- कल्पकाल- बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण एक कल्पकाल (काल का मान) होता है।
- विकल्प - मेरे तेरे पन का भाव या मन की ऊहापोह
- संकल्प - विचार
- अल्पकाल-थोड़ी देर
- अन्तर्जल्प - मानसिक चिन्तन
अर्थ- संकल्प विकल्प कल्पकाल से चल रहे हैं। थोड़ी सी देर के | लिए मौन लेते ही अन्तर्जल्प (मानसिक चिन्तन) प्रारम्भ हो जाता है ।।14।।
15. सुचिर काल से सो रहा, तन का करता राग।
उषा सम नर जन्म है, जाग सके तो जाग ||15||
शब्दार्थ -
- सुचिरकाल - लम्बा समय
- तन - शरीर
- राग - प्रीति
- उषा - भोर, सूर्योदय की लाली
- सम - समान
अर्थ - हे मानव! तू तन से राग करता हुआ लम्बे समय से गहरी निद्रा में सो रहा है। यह मनुष्य जन्म उषा के समान है अब तो तू जाग जा ||15||
16. दिन का हो या रात का, सपना सपना होय।
सपना अपना सा लगे किन्तु न अपना होय ||16 ||
शब्दार्थ-
- सपना - स्वप्न
- होय - होता
अर्थ - सपना तो सपना होता है फिर वह चाहे दिन में देखा जाए या रात में। सपना सबको अपना जैसा लगता है लेकिन वह कभी भी अपना नहीं होता| ।।16 ।।
17. दोष रहित आचरण से, चरण पूज्य बन जाय।
चरण धूल तक सिर चढ़े, मरण पूज्य बन जाय।।17।।
शब्दार्थ -
- आचरण - व्यवहार
- चरण – पैर
अर्थ - यदि मनुष्य का आचरण दोष रहित हो तो उसके चरण पूज्य । हो जाते हैं। उसके चरणों की धूल तक को लोग अपने सिर पर चढ़ाते हैं। इतना ही नहीं, उसका मरण भी पूज्य बनजाता है। || 17 ||
18. एक साथ दो बैल तो, मिलकर खाते घास।
लोकतन्त्र पा क्यों लड़ों, क्यों आपस में त्रास ||18 ||
शब्दार्थ -
- लोकतंत्र - प्रजातंत्र (प्रजा का शासन)
- त्रास - कष्ट, पीड़ा
अर्थ - जब दो पशु एक साथ मिलकर घास खा सकते हैं तो फिर मानव लोकतंत्र को प्राप्त करके भी आपस में संघर्ष कर क्यों कष्टों को आमंत्रण देता है। ।।18।।
19. बूंद बूंद के मिलन से जल, में गति आ जाये।
सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाय||19।।
शब्दार्थ-
- गति - चाल, रफ्तार
- सरिता - नदी
- सागर - समुद्र
- समाय - समा जाती है।
अर्थ - बूंद बूंद मिलकर जल गतिमान हो जाता है। नदी का रूप धारण करके सागर में मिल जाता है। एकमात्र अपनी मिलनशीलता के कारण बूंद सागर बन जाती है। ।।19।।