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साधु समागम


संयम स्वर्ण महोत्सव

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साधु समागम

 

अपने विचारों को निर्मल बनाने के लिए जिस प्रकार से सत्साहित्य का अध्ययन जरूरी है उसी प्रकार अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना उससे भी कहीं अधिक उपयोगी होता है। मनुष्य के मन के मैल को धोने के लिए उत्तम साहित्य का पठन पाठन, जल और साबुन का काम करता है। परन्तु पुनीत साधुओं का समागम तो इसके जीवन में चमत्कार लाने के लिए वह जादू का सा कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकड़े के लिए पारस का संसर्ग। अत: विचारशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर्क प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे और प्राप्त हो जाने पर यथाशक्य उससे लाभ उठाने में न चूके। ऐसा करने से ही मनुष्य अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।

 

आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले की बात है कि भगवान महावीर के शिष्य सुधर्म स्वामी देश देशान्तर में भ्रमण करते हुए और अपने सदोपदेशामृत से जनता का कल्याण करते हुए आकर राजगृह नगर के उपवन में ठहरे। उनके आने का समाचार सुनकर राजगृह की जनता उनके दर्शन को आयी और उनके धर्मोपदेश को सुनकर एवं अपनी योग्यतानुसार मनुष्योचित नियम व्रत लेकर अपने-अपने घर को गयी। उन्हीं में एक जम्बूकुमार नाम का साहूकार का लड़का था, उसने सोचा स्वामीजी जब यह फरमा रहे हैं कि मनुष्य जन्म को पाकर इसे एकान्त क्षणिक विषय वासना के चक्कर में ही नहीं बिता देना चाहिए किन्तु कुछ परमार्थिक कार्य तो करना ही चाहिए अहो! यह भोला मनुष्य जिस भौतिक विभूति के पीछे लगकर चल रहा है, एक न एक दिन तो इसको उसे छोड़ना ही होगा। अगर यह उसे न छोड़ेगा तो अन्त में वह इसे अवश्य छोड़ ही देगी। परन्तु यह उसे छोड़ दे और वह इसे छोड़े इन दोनों बातों में उतना अन्तर तो कम से कम अवश्य है जितना मनुष्य के टट्टी जाने में तथा उल्टी हो जाने में हुआ करता है।

 

अर्थात् आप जब प्रातः जंगल होकर आते हैं तो आपका चित्त प्रसन्न होता है। किन्तु समुचित भोजन करें और भोजन करने अनन्तर ही किसी कारण से कै हो जावे तो आपका जी मिचलावेगा, बस यही हिसाब सम्पत्ति के छोड़ देने और छूट जाने में है, अत: प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर दूर होना ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर है एवं जिस दलदल से निकलना दुष्कर होकर भी आवश्यक है, तो फिर अधिक समझदारी तो इसी में है कि उसमें फँसना ही क्यों चाहिए। बस मैं तो अब चलू और माता-पिता से आज्ञा लेकर आकर इन गुरुदेव के चरणों की सेवा में ही अपने आपको लगा दें, ऐसा सोचकर जम्बूकुमार घर पर गया ही था

 

कि माता-पिता ने पूछा कि इतनी देर कहाँ रहे? जम्बू कुमार बोला कि “एक साधु महात्मा के पास बैठ गया था और मैं अब सदा के लिए उन्हीं के पास रहना चाहता हूँ।'' माता-पिता यह सुनकर आवाक् हो रहे। कुछ देर सोच कर फिर बोले कि - ‘बेटा तू यह क्या कह रहा है? देखो हम तो तेरी शादी की तैयारियां कर रहे हैं और तू ऐसी बात सुना रहा है जिससे कि हमारा कलेजा कांप उठता है, कम से कम तुझे शादी तो कर लेनी चाहिए तू खुद समझदार है, तुझे हमारी इस प्रसन्नता में तो गड़बड़ी नहीं मचानी चाहिए।'

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