मनोबल ही प्रधान बल है
मनोबल ही प्रधान बल है
वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं।
मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अत: उसको प्रगतिशील बनाये रखने के लिए समुचित आहार की जरूरत समझी जाया करती है और उसकी चिन्ता सभी को रहा करती है एवं अपनी बुद्धि, विवेक तथा वित्त-वैभव के अनुसार हर कोई ही उसकी अच्छी से अच्छी योजना करने में कुछ कसर नहीं रखता है। यह तो ठीक है, परन्तु वचन का अधिकार तो उस शरीर से कहीं अधिक होता है। शरीर द्वारा जिस काम को हम वर्षों से भी सम्पादित नहीं कर पाते, उसे अपनी वचनपटुता से बात की बात में हल कर बता सकते हैं।
बच्चे को जब प्यास लगती है, या उसका पेट दुखता है तो वह रोता है, छटपटाता है, हाथ पैर पटकता है। माता भी उसके दु:ख को मिटाना चाहती है, किन्तु उस की अंतवृत्ति को नहीं पहचान पाती, अत: कभी-कभी विपरीत प्रतिकार हो जाता है तो प्रत्येक वेदना बढ़ती है। बाकी वहां वश भी क्या चले, बच्चे के पास वचन तो नहीं है ताकि वह कह सुनावे और उसका समुचित उपाय कर बताया जावे। इसी प्रकार संसार का सारा व्यवहार प्राय: वचन के भरोसे पर ही अवलम्बित है, जिसकी कि खुराक स्पष्ट सत्यवादिता है, सो क्या इसकी तरफ भी सब लोगों को ध्यान कभी गया है? किन्तु नहीं। बल्कि अधिकांश लोग तो अपने वचन को कूटत्व नाम क्षय रोग से उपयुक्त बनाकर ही अपने आपको धन्य मानते हैं। उनके ऐसा करने में उनकी एक मानसिक दुर्बलता ही हेतु है। मानसिक कमजोरी से ही उनकी यह धारणा बनी हुई है कि एकान्त सत्य सरल या स्पष्ट वाक्य प्रयोग से मनुष्य का कभी निर्वाह नहीं हो सकता।
उनको अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये उसमें कुछ-कुछ बनावटीपन जरूर ले आना चाहिए। बस इसकी इस मानसिक दुर्बलता ने सम्पूर्ण व्यवहार को दूषित बना दिया, ताकि सर्वत्र अविश्वास के आतंक ने अपना अधिकार जमा लिया, एवं जीवन-पथ कष्टप्रद हो गया। मनुष्य की जीवन यात्रा में उसका मन सईस का काम करता है, वचन घोड़े का और शरीर गाड़ी का। अगर गाड़ी मजबूत भी हो और घोड़ा भी चुस्त हो किन्तु उसको हांकने वाला सईस निकम्मा हो तो वह उसे ठीक न चला कर उत्पथ में ले जावेगा एवं बरबादी कर देगा। वैसे ही मनुष्य का मन भी चंचल रहने पर किसी भी कार्य को करके भी उसमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
एक समय की बात है कि एक भट्टारकजी का शिष्य था, जो कि एक मंत्र लेकर जपने को बैठ गया। उसको जप करते हुए जब कई रोज हो गये तो भट्टारकजी ने उससे पूछा कि तू क्या कर रहा है? उसने कहा कि महाराजजी मैं अमुक रूप में यह मंत्र जप रहा हूं, फिर भी यह सिद्ध नहीं हो रहा है। क्या मेरे विधि विधान में कुछ कसर है? गुरुजी बोले- कमी तो कुछ भी नहीं दिखती है परन्तु ला देखें, जरा मुझे दे। यों कहकर भट्टारक गुरुजी ने उस मंत्र को जपना प्रारंभ किया और एक जप पूरा होते ही मंत्र सिद्ध हो गया। मंत्र का अधिष्ठाता देव आ उपस्थित हुआ। गुरुजी बोले- भाई इस लड़के को मंत्र जपते हुए आज कई रोज हो गये सो क्या बात है? देव बोला महाराज। मैं क्या करूं- इसका अपना मन ही इसके वश में नहीं है। मंत्र को जपते हुए भी यह क्षण में तो कुछ सोचता है और फिर क्षण में कुछ और ही सोचने लगता है। मतलब यह है कि हरेक कार्य को सम्पन्न करने के लिये सबसे पहले हमें अपने मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है, भले ही वह कार्य लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक। मन की एकाग्रता के बिना वह कभी ठीक नहीं हो सकाता।
व्यापार, व्यवहार, शास्त्रशोधन, भगवद् भजन आदि कोई भी कार्य हो, उनको हम जैसी मानसिक लगन से करेंगे उतना वह सुन्दर सुचारु होकर यशप्रद होगा। नेपोलियन के लिये कहा जाता है कि वह एक बाद युद्ध की व्यवस्था ठीक ठीक कर देता था और फिर आप युद्ध भूमि में ही गणित के सवाल किया करता था। डेरों, तम्बुओं पर गोले बरसते, धड़ाधड़ सैनिक मरते किन्तु नेपोलियन का मन गणित के सवाल हल करने में ही लगा रहा था।
खलीफा उमर की भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। लड़ाई के मैदान में भी जब नमाज का वक्त हो जाता, वह निडर होकर युद्धस्थल के बीच ही घुटने टेक कर नमाज पढ़ने लगता था, फिर उसे यह पता नहीं रहता था कि कहां क्या हो रहा है। एक फकीर के शरीर में तीर चुभ गया, जिससे उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। तीर को वापिस खींचने के लिए हाथ लगाने से वेदना दूनी हो जाती थी। अब क्या किया जावे। बड़ी कठिन समस्या हो गई। उसको देखकर लोग घबराये तो एक आदमी बोला अभी रहने दो, जब यह नमाज पढ़ने बैठेगा तब निकाल लेंगे। सांय का समय हुआ फकीर नमाज पढ़ने लगा, पल भर में ही उसका चित्त इतना एकाग्र हुआ कि उसके शरीर में से तीर खेंचकर निकाल लिया गया, और उसे पता भी नहीं चला।
जम्बूप्रसाद ही रईस सहारनपुर वालों के शरीर में एक भयंकर फोड़ा हो गया, डॉक्टर बोला ऑपरेशन होगा, क्लोरोफार्म सूंघना पड़ेगा। लालाजी बोले क्या जरूरत है? मैं नमस्कार मंत्र जपने लगता हूं, तुम अपना काम नि:शंक होकर करलो। सो यह सब मन को एकाग्र कर लेने की महिमा है। मन को एकाग्र कर लेने पर मनुष्य में अपूर्व बल आ जाता है। हमारे पूर्व साहित्य में हमें ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जिनमें न होने जैसी बातें भी होती हुई बताई गई हैं। जैसे - द्रोपदी को नग्न करने के लिए उसकी साड़ी पकड़ कर दु:शासन खींचता है तो साड़ी बढ़ती चली जाती है। मगर द्रोपदी नग्न नहीं होने पाती, यह सब महासती के चित्त की एकाग्रता का ही प्रभाव तो है।
हम लोग ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्य करते हैं, किन्तु जिस चित्त की एकाग्रता द्वारा यह आत्मा अपनी अनादिकालीन कर्म-कालिमा को भी क्षण भर में हटा कर परमात्मा बनता हुआ जन्म-मरण से भी रहित हो लेता है उस मन की एकाग्रता की सामर्थ्य के आगे फिर से सब बातें क्या दुष्कर कही जा सकती है?
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