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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

मनुष्य की मनुष्यता


संयम स्वर्ण महोत्सव

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श्री

कर्तव्य पथ - प्रदर्शन

 

इष्ट स्तवनम्

कर्तव्य पथ हम पामरों के लिए भी दिखला रहे।

हो आप दिव्यालोकमय करूणानिधे गुणधाम हे॥

फिर भी रहें हम भुलते भगवान् स्वकीय कुटेव से।

इस ही लिये इस घोर संकटपूर्ण भव वन में फंसे॥

 

मनुष्य की मनुष्यता - माता के उदर से जन्म लेते ही मनुष्य तो हो लेता है फिर भी मनुष्यता प्राप्त करने के लिये इसे प्रकृति की गोद में पलकर समाज के सम्पर्क में आना पड़ता है। वहां इसे दो प्रकार के सम्पर्क प्राप्त होते हैं- एक तो इसका बिगाड़ करने वालों के साथ, दूसरे इसका भला चाहने वालों के साथ। अतः इसे भी दोनों ही तरह की प्रेरणा प्राप्त होती है। अब यदि यह इसका भला करने वालों के प्रति भलाई का व्यवहार करता है कि अमुक ने मेरा अमुक कार्य निकाला है, मैं उसे कैसे भूल सकता हूं, इसके बदले में मेरा सर्वस्व अर्पण करके भी मैं उनसे उऋण नहीं बन सकता।

 

इस प्रकार आभार मानने वाला एवं समय आने पर यथाशक्य उसका बदला चुकाने की सोचते रहने वाला आदमी मनुष्यता के सम्मुख होकर जन से सज्जन बनने का अधिकारी होता है। हां!, अपने अपकार का भी उपकार ही करना जानता हो उसका तो फिर कहना ही क्या ! वह तो महाजन होता है। कोई-कोई ऐसा होता है जो भलाई का बदला भी बुराई के द्वारा चुकाया करता है, उसे जन कहें या दुर्जन? कर्तव्यता की सीढ़ी पर खड़ा हुआ आदमी एक जगह नहीं रह सकता।

 

वह या तो ऊपर की ओर बढ़े या नीचे को आना तो अवश्यम्भावी है ही। घड़ी का कांटा चाबी देने के बाद रूका नहीं रह सकता, उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक सांस है तब तक निठल्ला नहीं रह सकता। चाहे भलाई के कार्य करे या बुराई के, उसे कुछ तो करना ही होगा। अतः बुराईयों में फंसकर अवनत बनने की अपेक्षा से भलाई के कार्य करते चले जाना एवं अपने आपको उन्नत से उन्नत्तर बनाना ही मनुष्यता है।

 

बन्धुओं!

बहुत से देश ऐसे हैं जहां भलाई के साधन अत्यन्त दुर्लभ हैं। वहां के लोगों को परिस्थिति से बाध्य होकर अपना जीवन पशुओं जैसा बिताना पड़ता है। परन्तु हम भारतवासियों के लिये तो उन भले साधनों की आज भी सुलभता है। हमारे बुजुर्ग या महर्षियों ने प्रारम्भ से ही सामाजिक रहन-सहन ऐसा सुन्दर स्थापित कर रखा है कि हम उसे अनायास ही अपने जीवन में उतार सकते हैं और अपने आपको सज्जन ही नहीं बल्कि सज्जनशिरोमणि भी बना सकते हैं। फिर भी हम उनका सदुपयोग न करके उनके विरुद्ध चलें यह तो हमारी ही भूल है।

 

लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 

(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)

1 Comment


Recommended Comments

जय जिनेंदर 
चलिये कुछ नये तरीके से सोचते है। कुछ ऐसा जो ज्ञान वर्धक हो। 
हम बुरे व्यक्ति और बुरी बात से हमेशा दूर रहना चाहते है। 
ऐसा क्यो? हमे ये अहसास की क्या बुरा है और क्या सही है ,अच्छा है कैसे होता हैं 
किसी बुरी घटना या बुरे व्यक्ति से मिल कर 
विचार करने की बात है संसार मे सामान्य मनुष्य की संख्या ही अधिक है बुरे या बहुत बुरे और अच्छे या बहुत अच्छे मनुष्य कम संख्या मे होते है। लेकिन दोनो ही तरह के मनुष्य साधरण व्यक्तियो पर बहुत प्रभाव डालते है। यदि बुरे लोग ना हो तो अच्छाई की कोई किमत नही रह जायगी किसी के खराब काम से दूर रहने की प्रेरणा हमे अच्छाई की और ले जाती है। ऐसा नही है की बुराई होनी ही चाहिये परन्तु इस संसार मे सभी कुछ पहले से ही विध्मान्ं है। ये मनुष्यों पर निर्भर करता है कि वे मिले हुए मौके को कैसे जीवन मे उतारते हैं।ल

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