1. मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव ।
जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव ।।1।।
शब्दार्थ -
- छाँव - छाया
- अमंगल - अशुभ
- मंगलमय - मंगल से युक्त
- परस्पर - आपस में
अर्थ - सभी प्राणियों का जीवन मंगलमय बने। सभी के जीवन में सुख रूपी छाया हो जाए। सभी के जीवन से अशुभ भाव समाप्त हो जाए। ।।1।।
2.'ही' से 'भी' की ओर ही, बढ़े सभी हम लोग।
छह के आगे तीन हो, विश्व शान्ति का योग ||2||
शब्दार्थ -
- ही - एकान्त का प्रतीक
- भी - अनेकान्त का प्रतीक
- छह के आगे तीन होना- परस्पर प्रेम भाव से रहना
- योग - जोड़, उपाय, युक्ति
अर्थ - हम सभी लोग एकान्त से अनेकान्त की ओर बढ़े चलें। परस्पर प्रेम भाव से रहने से ही विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है ।।2।।
3. यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर।
हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ||3||
शब्दार्थ -
- वीर - महावीर
- अनुनय - नम्रता
- कर - हाथ
- हरी-भरी - खुशहाली और समृद्धि
अर्थ - भगवान महावीर से हम हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक यही प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन्! हमारी यह धरती हमेशा चारों ओर हरी-भरी दिखती रहे अर्थात् चारों ओर इस धरती पर खुशहाली और समृद्धि का वातावरण छाया रहे ।।3।।
4. गुरु चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास।
अक्षय सुख के विषय में, संशय का हो नाश ||4||
शब्दार्थ -
- अक्षय सुख - शाश्वत सुख (हमेशा रहने वाला सुख)
- संशय - सन्देह
अर्थ - जो व्यक्ति गुरु चरणों की शरण में आ जाता है उसे प्रभु पर विश्वास हो जाता है। फलतः शाश्वत सुख के विषय में उसके संशय का भी विनाश हो जाता है। ।।14।।
5. मेरा-तेरा पन मिटे, भेदभाव का नाश।
रीति-नीति सुधरे सभी, वेदभाव में वास ।।5।।
शब्दार्थ -
- मेरा-तेरा पन-अपने-पराये का भाव
- वेद भाव - अपनी आत्मा का भाव
- रीति – रस्म रिवाज, नियम
- नीति - व्यवहार का ढंग
अर्थ - हे भगवन! अपने -पराये का भाव मिटे और अंतरंग में समस्त भेदभाव का नाश हो। सभी प्रकार की रीतियों और नीतियों में सुधार हो और सभी अपने भाव में रमण करें अर्थात् अपनी आत्मा में वास करें ।।5।।
6. ऊधम से तो दम मिटे, उद्यम से दम आय।
बनो दमी हो आदमी, कदम-कदम जम जाय। ||16 ||
शब्दार्थ -
- ऊधम - उत्पात
- उद्यम - पुरुषार्थ
- दम - शक्ति
- दमी - इन्द्रियों का दमन करने वाला
- कदम - कदम जम जाय-प्रत्येक कदम पर प्रगति होना
अर्थ - उत्पात् करने से तो शक्ति का ह्रास होता है किन्तु पुरुषार्थ करने से जीवन-शक्ति में वृद्धि होती है। इसलिये पुरुषार्थ करके इन्द्रियों का दमन कर सही आदमी बनो ताकि तुम प्रत्येक कदम पर प्रगति करो ।।6।।
7. मरहम पट्टी बाँध के, वृण का कर उपचार।
ऐसा यदि न बन सके, डंडा तो मत मार ||7||
शब्दार्थ -
- वृण - घाव
- डंडा तो मत मार- कठोर व्यवहार न करना
- मरहम पट्टी बांध- सहानुभूति का व्यवहार रखना।
अर्थ - किसी भी व्यक्ति के घाव का उपचार मरहम पट्टी बांध करके करना चाहिए अर्थात् प्रत्येक जीव के प्रति सहानुभूति का व्यवहार रखना चाहिए। यदि हम मरहम पट्टी बांध के घाव का उपचार नहीं कर सकते हैं तो उसके घाव को कुरेदना नहीं चाहिए अर्थात् यदि हम जीवों के प्रति सहानुभूति का व्यवहार नहीं कर सकते हैं तो उनके प्रति कठोर व्यवहार भी नहीं रखना चाहिए ।।7।।
8. नम्र बनो मानी नहीं, जीवन वरना मौत।
बेंत बनो ना वट बनो, सुर शिव सुख का स्रोत ।।8।।
शब्दार्थ-
- मानी - अहंकारी
- वट - बड़/बरगद का पेड़
- सुर - स्वर्ग
- शिव - मोक्ष ।
अर्थ - हे मानव! तू बेंत के समान विनम्र बन, वटवृक्ष के समान अहंकारी मत बन। क्योंकि नम्रता जीवन है और अहंकार मृत्यु। बेंत तूफान में झुककर अपनी रक्षा कर लेता है। जबकि वटवृक्ष को तूफान जड़ से उखाड़कर धराशायी कर देता है। अतः जीवन का वरण करो, मृत्यु का नहीं । यही स्वर्ग एवं मोक्ष सुख का स्रोत है ।।8।।
9. तन मन से और वचन से, पर का कर उपकार
रवि सम जीवन बस बने, मिलता शिव उपकार ||9||
शब्दार्थ-
- उपकार - भलाई
- रवि - सूर्य |
- शिव - कल्याण
- सम - समान
अर्थ - हे मानव! तुम तन, मन और वचन से दूसरों का उपकार करो। सूर्य की तरह समान रूप से सभी का उपकार करो, इसमें ही सब का कल्याण होता है ।।9।।
10. दिखा रोशनी रोष न, शत्रु मित्र बन जाये।
भावों का बस खेल है, शूल फूल बन जाये ||10||
शब्दार्थ-
- रोष - वैर - विरोध
- रोशनी - प्रकाश
- शूल - काँटा
अर्थ - शत्रु पर रोष न करके उसे ज्ञान का प्रकाश प्रदान करें ताकि वह शत्रुता को छोड़कर मित्रभाव को धारण करे। यह सब भावों का खेल है जिससे काँटों के समान पीड़ा भी फूल के समान सुखद हो जाती है ।।10।।
11. धोओ मन को धो सको, तन को धोना व्यर्थ ।।
खोओ गुण में खो सको, धन में खोना व्यर्थ ।।11।।
शब्दार्थ -
- तन - शरीर
- व्यर्थ - बेकार
अर्थ - यदि धो सकते हो तो मन को धोओ, तन को धोना व्यर्थ है। यदि खोना चाहते हो तो गुणों में खोओ, धन में खोना व्यर्थ है ।।11।।
12. निर्धनता वरदान है, अधिक धनिकता पाप।
सत्य तथ्य की खोज में, निर्गुणता अभिशाप ||12||
शब्दार्थ -
- निर्धनता - गरीबी
- धनिकता - धनाढ्यता (धन का अधिक संग्रह)
- तथ्य - यथार्थ
- निर्गुणता - गुणहीनता
- अभिशाप - लांछन
अर्थ - निर्धनता वरदान है तथा धन का अधिक संग्रह अभिशाप है। और सत्य तथ्यों की खोज में अज्ञानता (गुणहीनता) एक अभिशाप है ।।12।।
13. अर्थ नहीं परमार्थ की, ओर बढ़े भूपाल।।
पालक जनता के बनें, बनें नहीं भूचाल ।।13।।
शब्दार्थ -
- अर्थ - धन
- भूपाल - शासक, राजा
- भूचाल - विध्वंसक, भूकम्प
- पालक - पालन करने वाला
अर्थ - शासक को धन की ओर नहीं अपितु परमार्थ की ओर बढ़ना चाहिए। वे जनता के पालक बनें, विध्वंसक नहीं ।।13।।
14. दूषण ना भूषण बनो, बनो देश के भक्त।
उम्र बढ़े बस देश की, देश रहे अविभक्त ||14||
शब्दार्थ -
- दूषण - विनाशक
- आभूषण - आभरण
- अविभक्त - समूचा, एक
अर्थ - देशभक्त बनकर आभूषण बनने का प्रयास करो, विनाशक मत बनो। ताकि देश चिरकाल तक अविभाजित रहते हुए सुरक्षित रहे।14 ||
15. धर्म धनिकता में सदा, देश रहे बल जोर।
भवन वही बस चिर टिके, नींव नहीं कमजोर ||15||
शब्दार्थ-
- बल जोर - पुष्ट आधार
- भवन - मकान
- चिर - लम्बा ।
- टिके - स्थिर रहना
अर्थ - जिस प्रकार वही भवन चिरकाल तक स्थिर और सुरक्षित रह सकता है जिसकी नींव कमजोर नहीं होती है। उसी प्रकार वही देश सदा सुरक्षित रह सकता है जिसमें धर्म और धन का पुष्ट आधार है।।15।।
16. कब तक कितना पूछ मत, चलते चल अविराम।
रुक-रुको यूँ सफलता, आप कहे यह धाम ||16।।
शब्दार्थ -
1. अविराम - निरन्तर, लगातार
2. धाम - चरम लक्ष्य
अर्थ - हे मोक्ष के राही! यह मत पूछ कि संयम के पथ पर कितने समय तक और कितनी दूर तक चलना है बल्कि निरन्तर आगे बढ़ता रह, जब तुम अपने गन्तव्य तक पहुँच जाओगे तो सफलता स्वयं बोल उठेगी कि तुमने अपना चरम लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।16।।
17. गुण ही गुण पर में सदा, खोजू निज में दाग।
दाग मिटे बिन गुण कहाँ, तामस मिटते राग।।17।।
शब्दार्थ -
- पर - दूसरा, पराया
- दाग - दोष
- तामस - अज्ञान
अर्थ - मेरी भावना है कि मैं सदा पर में गुणों को देखें और निज में दोषों को खोजें, क्योंकि अपने दोषों को नष्ट किये बिना गुणों का प्रकट होना संभव नहीं है। जिस तरह अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट होते ही राग स्वयं समाप्त हो जाता है ।।17।।
18. पंक नहीं पंकज बनूं, मुक्ता बनूं न सीप।
दीप बनूं जलता रहूँ, प्रभु-पद-पद्म समीप||18 ||
शब्दार्थ
- पंक - कीचड
- पंकज - कमल
- मुक्ता - मोती
- सीप - शंख
- पद - चरण
- पद्म - कमल
अर्थ - हे प्रभो! मैं कीचड़ नहीं, कमल बनना चाहता हूँ। सीप नहीं, मोती बनना चाहता हूँ। मेरी भावना है कि मैं सदा दीपक बनकर प्रभु के चरण कमलों के निकट जलता रहूँ। ।।18।।
19. यही प्रार्थना वीर से, शांति रहे चहुँ ओर।
हिल-मिलकर सब एक हों, बढ़ें धर्म की ओर ||19।।
शब्दार्थ -
- चहुँ ओर - चारों ओर
- वीर - भगवान महावीर
अर्थ - मेरी वीर प्रभु से यही प्रार्थना है कि इस विश्व में सब जगह शांति का वास हो, सब लोग मिल-जुलकर एक साथ निवास करें और धर्म की ओर नित्य बढ़ते रहें ||19।।
20. गोमटेश के चरण में, नत हो बारम्बार ।
विद्यासागर कब बनँ, भव सागर कर पार ।।20।।
शब्दार्थ -
- गोमटेश - गोमट के स्वामी भगवान बाहुबली
- भव - संसार
- सागर - समुद्र
- बारम्बार - बार-बार
अर्थ - मैं गोमटेश बाहुबली के श्रीचरणों में बार-बार नमन करता हूँ यही भावना भाता हूँ कि मैं विद्यासागर जैसा बनकर कब इस संसार रूपी सागर को पार कर सकूँ। ||20 ||