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बाल जीवन की विशेषता


संयम स्वर्ण महोत्सव

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बाल जीवन की विशेषता

 

एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इसे इस बात की भी चिन्ता नहीं कि यहां पर क्या हो रहा है और आगे क्या होने वाला है।

 

वह तो सिर्फ दो ही बातें जानता है खुद करना एवं बुजुर्ग लोगों का अनुकरण करना। अत: चोरी, जारी, झूठ पाखण्ड आदि बुरी बातों से प्राकृतिक रूप से वह परे रहता है। आप किसी बच्चे, से पूछिये कि आज क्या खाया था, तो वह जैसा खाया है कहता है कि सिर्फ मट्ठे के साथ रूखी जुबार की रोटी खाई थी। क्योंकि वह इस बात से परे है कि उसे ऐसा कहने से मेरे कुटुम्ब वालों की बेइज्जती होवेगी। वह तो अपने सरल भाव से जैसा कुछ खाया है तो बतायेगा। फिर उसकी अम्मा भले ही इस बात की मरम्मत करती हो कि क्या करूं, बच्चे को पेचिश हो रही है इसलिये मुझे भी यही खानी पड़ी और इसे भी यही खिलाई।

 

अस्तु, बच्चा उपर्युक्त रूप से सरल और स्पष्ट बातें करता है इसीलिये उसकी बोली सबको मीठी लगती है। जो भी सुनता है उसका चित्त बड़ा प्रसन्न हो उठता है। अगर उसका हिसाब सदा के लिये ऐसा ही बना रहे तो वह मनुष्यता का सौभाग्य समझना चाहिए। किन्तु वह जब अपने जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ता है और अपने माता-पिता आदि को या अड़ोसी-पड़ोसी को नाना प्रकार की बहानेबाजी की चालाकी भरी बातें करते हुए देखता है तो अनुकरणशीलता के कारण आप भी वैसा ही या उनसे भी कहीं अधिक चालाक हो लेता है।

 

भारत माता की गोद में पला हुआ होने के नाते से समाज का स्वयं सेवक होकर रहने के बदले, इन इन्द्रियों का दास बनकर जनता के जीवन पथ में कण्टक स्थानीय प्रमाणित होता है, औरों को घोर कष्ट पहुंचाकर भी अपने स्वार्थ की पूर्ति करने ही तत्पर रहना, हर एक के साथ पेचीदा बातें करके केवल अपना मतलब गांठना, दूसरे के हक को हड़प करने में कुछ भी संकोच न करना, अश्लील भद्दी चेष्टायें कर के अपने आपको धन्य समझना और गुरुजनों की बातों को भी ठुकरा कर अपना उल्लू सीधा करना, किसी को भी अपनी चालाकी के आगे कुछ भी नहीं समझना इत्यादि रूप से एकान्त कठोरता को अपना कर प्रत्युत मानवता के बदले दानवता को स्वीकार कर बैठता है।
 

हां यदि उसको शुरू से ही तुली हुई प्रमाणित बात करने वाले महापुरुषों का संसर्ग प्राप्त होता रहे तो बहुत कुछ संभव है कि उपर्युक्त बुराईयों से सर्वथा अछूता रहकर दया क्षमाशील सन्तोषादि सद्दगुणों का भण्डार बनते हुए वही बालक से पुरुषोत्तम भी बन सकता है।

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