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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

परिस्थिति की विषमता


संयम स्वर्ण महोत्सव

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परिस्थिति की विषमता

 

किसी भी देश और प्रान्त में ही नहीं किन्तु प्रत्येक गांव तथा घर में भी आज तो प्राय: कलह, विसंवाद, ईर्षा, द्वेष आदि का आतंक छाया हुआ पाया जा रहा है। इधर से उधर चारों तरफ बुराइयों का वातावरण ही जोर पकड़ता जा रहा है, इसलिये मनुष्य अपने जीवन के चौराहे पर किकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ खड़ा है। वह किधर जावे और क्या करे? सभी तरफ से हिंसा की भीषण ज्वालायें आकर इसे भस्म कर देना चाहती हैं। असत्य के खारे पानी से सन कर इसका कलेजा पुराने कपड़े की तरह चीर-चीर होता हुआ दीख रहा है। लूट-खसोट के विचार ने इसके लिए हिलने को भी जगह नहीं छोड़ी है। व्यभिचार की बदबू ने इसके नाक में दम कर रखा है। असन्तोष के जाल में तो बुरी तरह जकड़ा हुआ पड़ा है। घर में ओर बाहर में कहीं भी इसे शान्ति नहीं है। क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध में आकर इसने अपना विश्वास गला डाला है। अपनी चपलता के वश में होकर यह किसी के लिये भी विश्वास का  कर्तव्य पथ प्रदर्शन पात्र नहीं रहा है। और न इसे ही कोई ऐसा दीखता है जिसके कि भरोसे पर यह धैर्य धारण कर रह सके।

 

साँप से सबको डर लगता है कि वह कहीं किसी को काट न खाये, तो सांप भी हर समय यो भयभीत बना ही रहता है कि कोई मुझे मार न डाले। बस यही हाल आज मनुष्य का मनुष्य के साथ में हो रहा है। एक को दूसरा हड़प जाने वाला प्रतीत होता है। अतएव मनुष्य, मनुष्य के पास जाने में संकोच करता है। हां, किसी भी वृक्ष के पास वह खुशी से जा सकता है, क्योंकि उसे विश्वास है वह भूखे को खाने के लिये फल, परिश्रान्त को ठहरने के लिये छाय, शयन करना चाहने वालों को फूल पत्तों की सेज ओर टेककर चलने आदि के लिए लतड़ियां देगा।

 

वह मनुष्य की भांति धोखे में डालने वाला नहीं है अपितु सहज रूप से ही परोपकारी है। बस इसी विचार को लेकर मनुष्य वृक्ष के पास जाने में संकोच नहीं करता। परन्तु मनुष्य मनुष्य के पास न जाकर उससे दूर रहना चाहता है। क्योंकि वह सोचता है कि आज मनुष्य दूसरे का बुरा करने का आदी बना हुआ है। उसके पास जाने पर मेरा बिगाड़ के सिवाय सुधार होने वाला नहीं है, मेरी कुछ न कुछ हानि ही होगी अपितु कुछ लाभ होने वाला नहीं है। बस इसीलिये वह उससे दूर भागता है। परन्तु गाड़ी का एक पहिया जिस प्रकार दूसरे पहिये के सहयोग बिना खड़ा नहीं रह सकता उसी प्रकार दुनियादारी का मानव भी किसी दूसरे मानव के सहयोग से रहित होकर कैसे जीवित रह सकता है? अतः मानव को अपना जीवन भी आज दूभर बना हुआ है।

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