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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विशेष वाक्य

       (2 reviews)

    1. माँगने वाला परमाणु से भी तुच्छ और न माँगने वाला स्वाभिमानी अनन्त आकाश से भी महान् होता है।
    2. साधक को मूक नहीं मौनी बनना चाहिए।
    3. अपरिचित अवस्था में पास बैठा शत्रु भी शत्रु रूप नहीं लगता, अपरिचय का आनंद ही कुछ और होता है।
    4. साधक समाज से जितना दूर रहता है, समाज की आस्था भी उस त्यागी के प्रति विशेष होती है।
    5. शुद्धात्म स्वभाव के संस्कार प्रतिक्षण साधक को स्वयं में डालते रहना चाहिए, लक्ष्यभूत को प्रतिपल गुनगुनाते रहना चाहिए। ये संस्कार ही भविष्य में प्रकट परमात्म-पद को प्रदान करते हैं।
    6. स्वार्थ जहाँ से चला जाता है, वहाँ से समर्पण प्रारम्भ हो जाता है।
    7. पाप के डर से मर्यादा में रहना चाहिए, इसी का नाम अनुशासन है।
    8. हम अपने पर अधिकार न रखकर दुनियाँ पर अधिकार जमाने का भाव करते हैं, यही संसार की जड़ है।
    9. जैसी भावना शरीर के प्रति है वैसी ही आत्मा के प्रति हो जावे तो मनोभावना पूर्ण हो जावेगी।
    10. लौह के साथ जैसे अग्नि की पिटाई हो जाती है, वैसे ही इस देह की सौबत में आत्मा की पिटाई हो जाती है। शरीर और आत्मा का अभेद सम्बन्ध हल्दी चूना जैसा है ।
    11. अध्यात्म को मजबूत बनाने के लिए धर्म से पहले कर्म को देखो। कर्म विपाक को जानना ही समयसार तक पहुँचने का साक्षात् कारण है।
    12. व्रतों को निर्दोष पालन करना ही यथार्थ विनय है। 
    13. संसार से डरना चाहते हो तो शरीर का चिन्तन करो और जब डरना नहीं चाहते हो तो आत्मा का चिन्तन करो। 
    14. सिगडी सुलगाने के लिए पहले हवा से बचाना आवश्यक होता है, फिर हवा में लाकर रख देते हैं। हवा निमित्त पहले बाधक था, अब साधक हो गया। बाधक निमित्त को साधक बनायें। 
    15. ज्ञान के माध्यम से जैसे क्रोध करते हैं, वैसे ही ज्ञान के माध्यम से क्रोध छोड़ सकते हैं। बिल्ली जिस पंजे से शिकार करती है, उसी पंजे से अपने बच्चे का पालन भी करती है। 
    16. जितने क्षण आत्मानुभूति में गए वही क्षण साधु और गृहस्थ में अंतर बताते हैं, बाकी सब तो समान है। गृहस्थ भी पुण्य करते हैं और पाप से बचते हैं। 
    17. लिखने-पढ़ने में यदि आर्तध्यान होता है तो लिखना-पढ़ना बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि हम धर्मध्यान करने आए हैं, आर्तध्यान नहीं। 
    18. दूसरों की नहीं बल्कि अपनी अनुभूति अपने अनुभव से काम करो क्योंकि पचास ग्रन्थों का सार आपका स्वयं का अनुभव है। 
    19. जिस प्रकार बच्चों को खाते-पिलाते समय माता-पिता उनके समान बन जाते हैं, उसी प्रकार असंयमियों और व्रतियों को ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए बल्कि थोड़ा बहुत दे दिया और अपने आत्म हित में लग जाना चाहिए। 
    20. होनहार के साथ समझौता करना जिसने सीख लिया उसे कभी अप्रसन्नता नहीं सताती।
    21. आवश्यकता पड़ने पर कोश की किताब की तरह ज्ञानी को व्यवहार का आश्रय लेना चाहिए, कोश में उलझना नहीं चाहिए।

     

    परमार्थ देशना विशेष वाक्य

    1. उपयोग की भूमिका में राग-द्वेष का उत्पन्न न होना ही सही स्वाध्याय है।
    2. निमित्त बनता नहीं, बनाया जाता है। सिद्धों को असंख्यात गुणी निर्जरा का निमित्त बना सकते हैं।
    3. भीतरी साधना के लिए विशेष क्षयोपशम की नहीं, किन्तु रुचि की आवश्यकता होती है।
    4. समता ही परम ध्यान है, शास्त्र का विस्तार समता के लिए ही है।
    5. सम्यग्दृष्टि से संयम दृष्टि और संयम दृष्टि से साम्य दृष्टि अति दुर्लभ है।
    6. कुछ भी ज्ञान न होने पर चिन्ता न करना यही धर्मध्यान है।
    7. तत्त्व ज्ञान के क्षेत्र में एक श्लोक भी पर्याप्त है।
    8. दूसरों के निमित्त अपने परिणामों को बिगाड़ना, सबसे बड़ी मूर्खता है ।
    9. मोक्षमार्गी की शोभा प्रवृत्ति नहीं निवृत्ति है।
    10. मोक्षमार्ग में मन की भूख मिटाने के लिए ही पुरुषार्थ है।
    11. व्यवहार की उलझनों के कारण ही हम अपने परिणाम बिगाड़ लेते हैं। पर पदार्थों से निर्लेप होना ही आध्यात्मिक साधना का फल है।
    12. हमारे लिए ध्यान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि भेद-विज्ञान, भेद-विज्ञान हमेशा रहना चाहिए।
    13. कर्म उतना बलवान नहीं जितनी की असावधानी।
    14. अध्यात्म में ज्ञान का उतना महत्त्व नहीं जितना संवेदन का, ज्ञान पर का हो सकता है, किन्तु संवेदन स्व का ही।
    15. ज्ञानी वही है, जो गलती को न दोहराये।
    16. व्रती को एकान्त प्रिय होना चाहिए, कोलाहल नहीं।
    17. दुनियाँ की ओर से आँख बन्द करना ही अध्यात्म की सही पहल है।
    18. अध्यात्म में उतरने वाले को जाति, लिंगादि से दूर रहना चाहिए।
    19. स्पर्धा नहीं करना चाहिए, स्पर्धा में शांति नहीं मिलती है, स्पर्धा में सुख आधा हो जाता है । वर्तमान सुख संतोष भी मिट जाता है।
    20. पर द्रव्य का अध्यवसान के द्वारा कर्तृत्व, भोक्तृत्व और स्वामित्व के रूप में स्वयं को स्वीकार नहीं करना ही समयसार का सार है। इनसे सम्पर्क ही संसार और इनसे छूटना ही मुक्ति है।
    21. जीवन के हर क्षण समान नहीं होते, ज्यों जल का बहाव हर जगह एक जैसा नहीं होता।
    22. साधना धारणा के ऊपर ही आधारित है, भीतर की शक्ति पर बाहरी ढांचा खड़ा हो जाता है।
    23. निष्पृहता और निरीहता ही साधना में उतरने के लिए वरदान है, न कि दान।
    24. साधना का सूत्र प्रतीक्षा करना है, जल्दबाजी नहीं।
    25. अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की कोशिश करना ही आर्तध्यान है।
    26. जो स्वयं सम्हला है, वही दूसरों को सम्हाल सकता है।
    27. आत्मा अजर-अमर है, संयम के लुटने पर रोड पर आ जाता है।
    28. मोक्षमार्ग में मात्र कर्तव्य है और गृहस्थ के पास कर्तृत्व व भोक्तृत्व भी है।
    29. ज्ञान के साथ जो अनुभूति होती है, वह अपनी मानी जाती है । संकेत को अनुभव मानना गलत धारणा है।
    30. मोक्षमार्ग में बाहरी साधनों से नहीं भीतरी साधनों से शान्ति मिलती है।
    31. सहना मोक्षमार्ग है प्रतिकार करना नहीं, क्योंकि प्रतिकार के समय प्रतीति/अनुभव समाप्त हो जाता है।
    32. ज्ञान अर्जन से ज्यादा ज्ञान प्रयोग में प्रयत्न करना चाहिए।
    33. तत्त्व चिन्तन कीजिए, विषय चिन्तन नहीं, तत्त्व चिन्तन में अर्थ-अर्थान्तर भाव होता है, राग द्वेष नहीं।
    34. मोक्षमार्ग में मित्रता प्रमाद का रूप धारण कर सकती है।
    35. तत्त्वानुकूल मन ही सबसे बड़ा साथी है एवं विषयानुकूल मन ही सबसे बड़ा शत्रु है।
    36. प्राण टिकते हैं तो व्रत पाल लेंगे, व्रत नहीं तो प्राण की कोई आवश्यकता नहीं, यही तत्त्व दर्शन है।
    37. उपदेश देना आदेश नहीं, आदेश मृत्यु तुल्य होता है।
    38. अपने मन को जीतो, दूसरों को नहीं, दूसरों को कभी जीता नहीं जा सकता, सबसे बड़ी भूल दूसरों को जीतूँ यही भाव है।
    39. राग-द्वेष रूपी घास के कारण ही ज्ञान का बीज पुष्ट नहीं हो पाता है, इसलिए चित्त रूपी खेत से राग-द्वेष रूपी घास को अलग करते रहना चाहिए।
    40. किसी के कहने पर नहीं, अपने कल्याण के लिए करना, धार्मिक कार्य वही है जो बाहर कम किन्तु भीतर से ज्यादा सम्बन्ध रखता है।

     

    अन्य संकलन विशेष वाक्य

    1. अनुप्रेक्षा का चिन्तन परीषहों के साथ होता है तो ही संवर निर्जरा का कारण होता है, अन्यथा नहीं।
    2. साधक स्व के लिए प्रमाण होता है, अन्य के लिए नहीं।
    3. माँगने से महत्त्व कम होता है, सहन करने से कर्म निर्जरा और संवर होता है । तिल तुष मात्र परिग्रह भी रौद्रध्यान है।
    4. तुम किस-किस को हटाओगे? किस-किस को घर से निकालोगे? इसलिए स्वयं निकल जाओ । स्वयं हटना बहुत सरल है, इसलिए साधु संसार को नहीं हटाता स्वयं हट जाता है।
    5. जब हम अपने को दूसरों का स्वामी मानते चले जाएंगे, तो अपनी रक्षा कभी नहीं कर पाएंगे।
    6. मनुष्य नेतृत्व की भूख के कारण भटक जाता है, नेतृत्व की भूख को शान्त करने का कोई साधन नहीं है।
    7. विषयों से रहित होने के पश्चात् ही कषाएँ शान्त होती हैं।
    8. निर्भीकता के साथ बोलना तो बहुत सरल है, पर निरीहता के साथ चारित्र पालन करना बहुत कठिन है।
    9. मौखिक उपदेश देने की अपेक्षा, आचरण से उपदेश देना कहीं अधिक प्रभावशाली होता है।
    10. साधना नैमित्तिक नहीं होनी चाहिए।
    11. सहनशीलता सफलता प्राप्ति का बहुत बड़ा साधन है।
    12. हमेशा प्रमाद की भूमिका पकड़ने का प्रयास करना चाहिए।
    13. सत्य को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करना ही सबसे उत्तम है, अन्यथा सत्य पर भी संदेह होने लगता है। 
    14. ज्ञान की आराधना सामायिक की साधना के बिना अधूरी है।
    15. जो व्यक्ति निमित्त पर आरोप लगाएगा उसका मोक्षमार्ग डगमगा जायेगा।

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    It is beneficial to those SWA-ADHAYEE, we could learn more about JAINISM. Triwar Namostu Achary Guruvar.

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