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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. यों तो ख्यात था पूर्व से ही शहर ‘अजमेर इन दिनों विशेष प्रसिद्धि पा गया संसार के मानचित्र पर; क्योंकि मुनि द्वय का समागम हो गया युगल रवि शशि का प्रकाश हर कोई अपनी आँखों में समेट लेना चाहता, पर हर आँखों पर 'आई फ्लू' ने अपना प्रभाव जमा लिया। क्रोध किये बिना ही आँखें लाल-लाल हो आयीं एक के बाद एक सभी की बारी आयी। शिष्य मुनि की आँखें जलते अंगारों-सी । दुःसह पीड़ा देने लगीं दो महीने बीत गये। गुरू-मुख से शास्त्र सुनते उन्हीं के समीप बैठे रहते, एकांतर उपवास रखते मेरू से अकंप रहते। चिकित्सक ने कहा-लगाना पड़ेगा चश्मा पर वे ठहरे दृढ़ संकल्पी महात्मा ज्ञात थी उन्हें विज्ञान की क्षुद्रता और धर्म की महानता! छोटे से डबरे को खलबला देती दो-चार मीन ही, पर कहाँ परवाह करता सैकड़ों मगरमच्छों की भी विराट रत्नाकर वह!! इसीलिए तर्क न करके सतर्क रहते... जानते थे वे कि विज्ञान ने विराट को अणु बना दिया और धर्म ने लघु को प्रभु बना दिया। दोनों में आखिर कौन है महान जो क्षुद्र को श्रेष्ठ बना दे वह या जो श्रेष्ठ को क्षुद्र बना दे वह? इस तरह वंद्य-निंद्य की पहचान कर गुरु-चरणों को निरखकर वीतराग-विज्ञान पर विश्वास रखकर असाता को दे दी विदाई। तन को एकान्तता मन को एकाग्रता वचन को मौन साधना से मिलती है शांति, सहज अवतरित होती है तब आत्मानंद की अनुभूति अनुभव की अमराइयों से गूंजती हैं अंतराकाश में श्राव्य मधुर कविताएँ। सुखद आनंद के क्षणों में बनता है अनुभवी कवि दुखद विरह-वेदना के पलों में बनता है लौकिक कवि। सच है ‘बन जाता है तब मानव कवि जब संसार रुलाता उसको तभी ढूंढ़ता वह 'अपनों' को पर ठुकरा देते जब वे भी व्यथा सुनाता है निज मन को पर जब उसकी कायरता पर मुस्काता है उसका मन भी। बन जाता है तब मानव कवि। यहाँ तो आत्मानुभवी कवि की बात ही निराली थी, पा भेदज्ञानी गुरू की सन्निधि हर पल दीवाली थी। तभी प्रथम कविता उभरी... श्रीज्ञानसागर गुरू-स्तुति के रूप में फिर तो आचार्य शांतिसागरजी ‘वीरसागरजी' और 'शिवसागरजी' की हो गई स्तुति तैयार... नित प्रतिदिन नई-नई भावानुभूति से अध्यात्म की गहराई में, शब्द तैरते रहते तरह-तरह के पिरोकर उन्हें तैयार हो जाती आत्मिक कविता। जो कोई धीमान् प्रज्ञावान पढ़ता उसे भर जाता आनंद से, यों ज्ञान-समंदर में डूब-डूब आगम मोती चुनते-चुनते समय बीतता पता न चलता श्री मुनिवर का... विद्या का भंडार भरता रहता...। ज्ञान की यही तो गरिमा है। जिनवाणी ने गायी इसकी महिमा है, तभी तो वे ज्ञानी गुरु-संग छाया की भाँति । विहार करते अंतर में निज ज्ञान-गुण-बाग में विचरण करते। पहुँचे नसीराबाद वहीं दर्शनार्थ आये ‘सोनीजी’ साथ में समाज गणमान्यों ने किया निवेदन “आचार्यपद' ग्रहण करने का पाना है जिन्हें मात्र शिवपद वे भला कैसे चाह सकते? फिर भी अति आग्रह करने पर संघ की सम्मति से संघ की सन्निधि में आचार्यपद पर श्री ज्ञानसिंधु मुनिवर को होना पड़ा आसीन... हर्षोल्लास से धर्म प्रभावना पूर्वक समारोह मनाया गया, स्वर्णाक्षरों से लिखा एक और पृष्ठ सात फरवरी उन्नीस सौ उनहत्तर का इतिहास में जुड़ गया।
  2. जिन्होंने ज्ञान-रसायन किया तैयार बरसों की साधना से पिलाने को सत्पात्र मिल ही गया ज्ञान-दान का करके अति श्रम श्रमण नाम सार्थक कर लिया। चाहे दिन हो या रात शिष्य तो बस गटागट पीता ही गया, तत्त्व ज्ञानामृत पीकर एक ने पिलाया अनेकों को भेदज्ञान का आहार लेकर एक ने खिलाया अनेकों को। अजमेर नगर में हुआ वाचन समयसार पर गहन प्रवचन श्रोतागण भाव विभोर हो ग्रंथ श्रवण करते, किंतु गुरु-शिष्य संगम देख प्रत्यक्ष समयसार पढ़ लेते। सीखा गुरु से तर्क छोड़ना है, सतर्क रहना है। साधना अवश्य सफल होगी, विकल्प तजना है, संकल्प करना है। मंज़िल अवश्य मिलेगी। पिता-पुत्र की भाँति गुरू व शिष्य बैठे आपस में चर्चा करने कि अचानक पूछा एक प्रौढ़ ने मुनिवर! दीक्षा कब ली आपने? अकस्मात् प्रश्न पूछने से समझ नहीं पाये किसके लिए पूछा जा रहा है? तत्क्षण सजग हो अपनी प्रज्ञा से द्वि अर्थी बोध कराते हुए बोले बड़े गुरु अभी-अभी।'' नासमझी से पूछ लिया फिर महाराज! चिर दीक्षित हैं आप तो फिर कैसे अभी-अभी? जानना चाहता हूँ सही-सही।" लो सुनो! सुनाता हूँ अंतर की बात अभी-अभी करके प्रतिक्रमण अंदर से आया हूँ बाहर दोषों की कर आलोचना निर्दोष त्याग-भावना यही तो कहलाती है दीक्षा'। सुन तर्क युक्त उत्तर श्रावक संग शिष्य भी मुदित हो गये, सबको निरूत्तर करने वाला उत्तर सुन पुलकित हो गये। अंकुरित होने भूमि नरम होनी चाहिए। तो ज्ञानार्जन के लिए। मन की धरती कोमल होनी चाहिए इसे भली भाँति जानते थे शिष्य मुनिवर।
  3. अथक परिश्रम करके विद्यार्जन किया बनारस में सरस्वती के वरद पुत्र श्री ज्ञानसिंधु ने अपने सत्पाण्डित्य से जयोदय, दयोदयादि संस्कृत ग्रंथ रचकर और भी अनेक ग्रंथ लिखकर अद्वितीय साहित्य का सृजन किया, बड़े-बड़े विद्वानों ने उनके सद्ज्ञान को नमन किया; ‘आचार्य श्रीशिवसागरजी' से जयपुर में मुनिव्रत धर प्रथम शिष्य बनकर धर्मध्वजा को फहराया। अपने व्रतों के प्रति दृढ़ता भव्य पिपासु जनों के प्रति मृदुता नवनीत वत् हृदय दूसरों के दुख में तत्काल बह जाती करुणा मारवाड़ में रहकर ही की अपार धर्म प्रभावना, सरस प्रवचन शैली सुनकर जग जाती सुषुप्त चेतना मिट जाती दुष्कर्मों की वेदना, जीवन साधारण, ज्ञान असाधारण बाल ब्रह्मचारी, गहन चिंतन-मनन सरल स्वभावी, रचनात्मकता निस्पृहवृत्ति, आध्यात्मिकता। देख शिष्य की चर्या गुरू के गुणों का अनुमान किया जा सकता है, शिष्य श्री विद्यासागरजी को देख गुरु श्री ज्ञानसागरजी को जाना जा सकता है।
  4. इस भाँति पर पदार्थों के विकल्प से परे विशुद्ध उपयोग से स्पर्श करते जो निजातम का पर के परस से परे कर ‘स्पर्शेन्द्रिय पर जय' आत्मीय आनंद का चखते रस 'रसनेन्द्रिय जय प्रफुल्लित वदन हो। सुरभि-दुरभि विरहित गं धातीत स्वीय चेतना की अनंत गुण की अपूर्व सुगंध लेते बिन नासा के, ऐसे घ्राणेन्द्रियजयी' को अगणित वंदन हो...। दृश्य को नहीं दृष्टा को देखते अंतर दर्शन से पल-पल अवलोकते, स्व-सन्मुख दृष्टि की यही है महिमा लगते हैं गुरुवर इन क्षणों में मानो हैं कोई जीवंत प्रतिमा। जो आगम चक्षु से देखते हैं देखनहार को ज्ञानचक्षु से जानते हैं जाननहार को कहता है भक्त-‘चक्षु इन्द्रिय जयी देख आपकी विराग मुद्रा को आप ही मेरे अंतर्नयन हो! श्रवण के 'व' का विकार हटा महिमावंत मोक्ष का ‘मकार' लगा हो गया महाश्रमण। आस्था में अक्षर की। श्रद्धा में शब्द की भावों में भाषा की समर्पण में साहित्य की आवश्यकता ही कहाँ? तभी तो भक्त के भावों को श्रवण कर लेते बिना यंत्र ही कोसों दूर से इसीलिए शिष्य का गाता है मन... हे 'श्रवणेन्द्रियजयी आप ही माँ जिनवाणी के श्रवण हो आपको मेरे अनंत नमन हो!! भूल सकते सब कुछ, पर आवश्यक नहीं स्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल पग-पग पर चुभते हों शूल या बिखरे हों सुगंधित फूल, मनः स्थिति को करके संतुलित रहते सदा प्रफुल्लित। ‘समता' धरकर भव्य जीवों का तामस हरकर जिससे कटते कर्म-बंधन ऐसा करते ‘प्रभु-वंदन', मति स्तुति' को रहती तत्पर परद्रव्यों से दृष्टि हटाकर निजातम के प्रति आकृष्ट होकर, स्वदृष्टि से अपलक निहारते निज दृष्टा को यों करते ‘प्रत्याख्यान'। भव-भ्रमण का कारण... हो गया यदि व्रतों में दोषागमन करते दोषों का वारण, होने को भगवन् करें त्रियोग से प्रतिक्रमण'। देह-नेह से रहित, सिद्धालय गेह पाने विदेह पद साधने सुमेरू-सम निश्चल रहकर करें ‘कायोत्सर्ग' आवश्यक मुनिवर। जो सागर में रत्न देख सके कीचड़ में कमल देख सके बीज में वृक्ष देख सके पतझड़ में बसंत देख सके, वह देह के भीतर विदेह आत्म को अंतर्नयन से देख ही सकते हैं। अपने आवश्यकों में भला वह कमी कैसे कर सकते हैं!! शेष सप्त गुणों को पालते आत्म विहार हेतु दिन में एक बार आहार करते वह भी खड़े-खड़े कर को पात्र बना, निर्ममत्व भाव धारी धन्य है इनकी क्रिया बहुजन हितकारी। आगमानुकूल है इनकी चर्या क्लेश तज करते केशलोंच पल-पल नहलाते क्षमा-नीर से ज्ञानोपयोग से सहलाते । अकेले में स्वयं चेतना को प्यार से। तन न्हवन नहीं दंत धोवन भी नहीं कर्म अंत करने धोते मलिन आत्मा को । अनुभव करने स्वयं में छिपे परमात्मा को, रिझाने शिवसुंदरी को करते भूशयन। जिनके पास ओढ़ने को आस्तरण नहीं पहनने को कोई वसन नहीं नग्नता से बढ़कर नहीं कोई श्रृंगार भा गया जिन्हें परमात्मा सर्व सुंदर, अब उनके आगे क्या पहनना तरह-तरह के अंबर? अतः हो गये दिगम्बर ज्ञान-विराग दो शस्त्र ले अष्ट कर्म विनाश करने धारे मूलगुण अट्ठाईस ‘जयवंतों भूतल पर गुरुवर' ‘जिनशासन की शान हो गुरूवर ‘हम सबके भगवान हो गुरूवर' । भक्त यों नारे लगाते तरह-तरह के संत-चरण में नमन करके स्वयं को भाग्यशाली मानते...।
  5. सीकर जिला ग्राम ‘राणोली पिता चतुर्भुज, मात घृतवरी द्वितीय पुत्र होकर भी थे अद्वितीय अधर के नीचे तिल, कल था कमनीय रंग गोरा होने से लोग कहते भूरामल परम स्वाभिमानी परिणामों से निर्मल, दूर करने को कर्ममल । चल पड़े निष्क्रमण पथ की ओर पाने भव-सिंधु का छोर ऐसे हैं गुरु ज्ञानसागर तो शिष्य क्यों न हो विद्यासागर!! जिनका ज्ञानोपयोग निजात्मा का करता है स्पर्शन फिर भला क्यों न हो सविद्या का वर्षण! जितने-जितने स्वानुभव के समंदर में डूबते चले गये, उतने-उतने ज्ञानार्णव की गहराई में विद्या-मोती मिलते गये। आगम के अभ्यास से मात्र स्वयं के दोष दिखते हैं ऐसा नहीं मिटते भी हैं, मात्र सुकृत बँधते हैं ऐसा नहीं संवरित होकर दुष्कर्म झरते भी हैं। फिर प्रबल स्वात्म रूचि लगन निज प्रतीति स तत ज्ञानाभ्यास गुरु की महत् कृपा हो साथ तो कहना ही क्या... लोहे के चने चबाने जैसे न्यायशास्त्र भी लगने लगे मिष्ट मोदक सम, ‘प्रमेयरत्नमाला' प्रमेयकमलमार्तण्ड अष्टशती अष्टसहस्री को भी मिष्टसहस्री मानकर हृदय-पुस्तिका पर उतार लिया सहज प्रतिभा-संपन्न तीक्ष्ण बुद्धि शिष्य लख गुरू हुए अति प्रसन्न... कारण स्पष्ट है जहाँ इष्ट है वहाँ कष्ट नहीं जिससे संतुष्ट हैं उससे रुष्ट नहीं तो शिष्य मुनि भी ज्ञान को पुष्ट करते गुरु को संतुष्ट रखते। दर्शन के गूढ़तम रहस्य जानने में सक्षम प्रश्न करते गुरु तो समाधान करते शिष्य पढ़े अध्यात्म ग्रंथ 'समयसार 'नियमसार’ और ‘पावन प्रवचनसार ‘अष्टपाड़', 'पंचास्तिकाय' रत्नत्रयधारी ने पंचरत्न ग्रंथ का सम्यक् निग्रंथपन का किया आस्वादन, सूक्ष्मता से चउ अनुयोग का किया अध्ययन। जीत लिया मन ज्ञानी गुरू का मीत बन गया शिष्य गुरु का अनंत प्रीत का गीत गूंजने लगा आनंद का झरना फूटने लगा, गुरू-आज्ञानुसार चलने वाला। पात्र बनता है पुरस्कार का गुरू को अपने अनुसार चलाने वाला पात्र बनता है भव-भव तिरस्कार का। जब शिष्य स्वयं पंचमहाव्रतधारी हैं। चारित्र की प्रतिमूर्ति अहिंसा के पुजारी हैं, अपने-परायों के भेद से परे सर्व जीवों से आत्मीय भाव धरें, जीवन है निश्छल तेरे-मेरे के भाव से दूर प्रतिपल तब असत्य होना या असत्य बोलना लेश मात्र भी रहा कहाँ इनमें!! संयोग-वियोग के भाव से परे निजात्मा ही अपना है। शेष सब सपना ही सपना है, यह मान लिया जिनने अचौर्य भाव प्रगट हो गया जिनमें वस्तु और व्यक्ति के प्रति निर्मोही मिट्टी, हवा, पानी के सिवा । बिना दिये न लेते एक तिनका भी स्वानुभूति रमणी में करते रमण शील-झील में तैर... करते आनंद का अनुभवन। भाता जिन्हें निज चैतन्य का भोग लक्ष्य है जिनका निष्काम योग वे भला भ्रम में क्यों पड़ेंगे... ब्र ह्म में लीन क्यों न रहेंगे? किञ्चित् भी मूर्च्छा नहीं जिन्हें चिंतित वे क्यों रहेंगे? मूर्छित नहीं पर वस्तु में परिग्रह का आग्रह नहीं जिनमें, नौ ग्रह क्यों करें परेशान उन्हें! गृह ही तज दिया जिनने... नूतन चिन्मय गृह में प्रवेश पा लिया है जिनने, अपने आप में परिपूर्ण हैं। ज्ञान घन से सघन अन्य का प्रवेश अणुमात्र भी नहीं जिनमें। धन्य हैं शिष्य मुनिव्रत गुणधारी यह सब गुरू-कृपा की है बलिहारी शिष्य है इतना महान तो गुरु की महानता का कहना ही क्या! शिष्य ही है अति गुण-धाम तो दाता गुरु के गुणों का कहना ही क्या!! दिन के प्रकाश में मुक्ति की आस ले देख चार हाथ जमीं प्रत्येक कदम पर सर्व जीवों पर आत्मीयता अति यही है इनकी ईर्या समिति'। हित-मित-प्रिय वचन स्वयं पर पूर्ण अनुशासन अमृतपायी अमर भी करते हैं जन्म-मरण, मगर श्रवण कर इनके अमृत वचन मिटा देते भविजन संसार का परिभ्रमण, गूढ़ रहस्य के उद्घाटक अनेकों उलझे प्रश्न सुनकर इनकी वचनावली सुलझते झट ऐसी है इनकी ‘भाषा समिति'। निराहार स्वरूप की लगन ले अनासक्ति से निर्दोष आहार ले नीरस में भी स्वानुभूति का रस घोल सरस बना लेते मोक्षनगर तक जाने के लिए तप वृद्धि कर देह टिकाने के लिए ‘एषणा समिति' से करते आहार। उपकरणों को उठाने में करते प्रथम अवलोकन फिर करते परिमार्जन ‘आदाननिक्षेपण समिति पालन करते यूं… मलमूत्र आदि का प्रासुक निर्जन्तुक स्थान पर करते विसर्जन, पीड़ा न हो किसी जीव को प्राणी मात्र के प्रति है प्रीति इसीलिए पालते ‘प्रतिष्ठापन समिति'।
  6. लक्ष्य का निर्धारण करो या न करो उद्देश्य को वरो या न वरो पुरुषार्थ साध्य हैं। सर्व उपलब्धियाँ। मनन कर यों... अहर्निश बीत रहे गुरु सन्निधि में पुण्य भाव रूप परिणति में लो! अब तो एक माह ही पूरा होने को है, मगर अब सब कुछ खोने को है, सदलगा जाने का दिन आ गया नयन भीगे से सबके अब बरसने को हैं...। प्रस्थान होने पर भी मुड़-मुड़ कर देखते नयन उन्हें, जो देखते तक नहीं, बहुत कुछ कहना चाहते हैं वचन उनसे, जो कुछ कहते तक नहीं। | यही तो विशेषता है मन की जो बोलता नहीं उससे बोलना चाहता है जो मिलता नहीं उसे ही पाना चाहता है। जो पाता है वह भाता नहीं जो भाता है वह पाता नहीं। तभी तो सुख साता नहीं।' सुनी थीं ये पंक्तियाँ इन्हीं गुरू-मुख से सो परिवार को स्मृति हो आयी जाते-जाते कदम उठ नहीं रहे पैरों की गति बोझिल हो आयी। परिवार आया, गया लेकिन संत का मन सहज रहा अब गम नहीं रहा क्योंकि अवगम हो गया!
  7. तेजपुंज पुण्यधर श्री विद्यासागरजी को देख प्रकृति चुप न रह सकी। अपनी प्रसन्नता का संवरण न कर सकी। पुण्यानुसार आनंदवृष्टि करने लगी, श्रावक श्रमण का कर रहे पड़गाहन तो नूतन मुनिवर कर रहे अंतर में सिद्धों का पड़गाहन। श्रावक स्वगृह ले जा रहे मुनिवर सिद्धों को निजगृह ला रहे त्रय शुद्धि बोलकर उच्चासन दे। पद प्रक्षालन कर, की पूजन, मुनि ने भी त्रियोग से विशुद्धि धरकर सिद्धों को बिठाया हृदयासन पर, रत्नत्रय जल से क्षालन कर स्वातम का ज्ञानोदक लगा निजात्म प्रदेश पर भाव रूप द्रव्यों से की पूजन। ज्ञान दर्शनोपयोग की लगा अंजुलि चिंतन करते निराहार स्वरूप का देह को दे आहार, साक्षी भाव से स्वयं दृष्टा बने निज भावों के सृष्टा रहे... आहार देने वालों की लगी है भीड़ भारी । बारी-बारी से दें आहार नर और नारी अपने भाग्य को सराहते उमंग से भर आये, बार-बार देख निज हाथों को फिर मुनिवर की शांत निश्छल छवि को निरख-निरख कर हर्षित हो आये। मानो आहार देकर सब कुछ पा लिया, अपनी कलुषित चेतना को प्रशस्त पुण्य नीर से आज धो दिया। टाल कर छियालीस दोष निरीहता से ले आहार संपन्न हुआ। प्रथम आहार निरंतराय... जयनाद से गूंज उठी अजमेर की धरा, परम पूत की पद-रज स्पर्श कर। भाग्यशालिनी मान रही वसुंधरा। सतत सत् तत्त्व की साधना में लीन साधक की सुनने वार्ता सदलगा वासी जब कभी चले आते महावीर के निवास पर घिर गया घर विद्या के अपनों से, सुन-सुन कर दीक्षा की बातें कभी आँख तो कभी नाक पोंछते अपने रूमाल से, हर दिन भीड़ जमती पूजनीय हो गये सारे नगर में मल्लप्पाजी और श्रीमंति...। जो भी सुनकर जाने लगता अपना मस्तक उनके चरणों में नवाता, मंदिर की तरह बन गया घर जो भी गुजरता उस राह से देख विद्या का निवास श्रद्धा से निकलता हाथ जोड़कर। आस्था से अभिभूत जनता जनार्दन की सघन वर्णगाओं ने इधर परिवार के दर्शन की प्यास ने आखिर तय कर ही लिया अजमेर जाने का मन बना ही लिया, दीक्षा लिये आज दिन हो गये हैं सत्रह तैयारी हो चुकी पूरी तरह, कहा भरे गले से श्रद्धा की भाषा में ‘चढ़ाने को चरणों में रख लेना कुछ कहकर श्रीमति ने ‘जी' । रख लिया बहुत कुछ...। ‘जो कभी झुकते थे पिता के चरणों में वे स्वयं पिता के लिए वंदनीय हो गये जो रहते थे घर में संतान की तरह वे संन्यास ले दर्शनीय हो गये। परिवार के संग था बाल सखा मारूति भी जैन न था तो क्या था वह विद्या के बचपन का साथी। गुरूगंगा तक पहुँचने का रास्ता लंबा लग रहा है । रह-रहकर नयनों में भरता नीर गंगा को यहीं से अघ्र्य चढाने का आयाम प्रारंभ कर रहा है...। आँसू चाहे सुख के हों या दुख के मिलन के हों या विरह के अतिरेक के द्योतक हैं, आँसू बनते हैं आसरा सिर को हल्का करने में पर ये मोह के संकेतक हैं...। जैसे शंका के प्रभाव में श्रद्धा गौण हो जाती है। बुद्धि के उद्वेग में संवेदनाएँ गौण हो जाती हैं। धन के प्रभाव में धर्मात्मा गौण हो जाता है, वैसे ही मिलन की उत्कंठा में कितनी ही दूरी हो... सब दृश्य गौण हो जाता है। सब कुछ अदृश्य हो जाता है। यही हो रहा यहाँ इतनी लंबी यात्रा पूरी कर आ गया परिवार अजमेर शहर, करते ही प्रवेश मंदिर के प्रांगण में । दृष्टि पड़ी नव दीक्षित मुनिवर पर; नूतन साधक, आत्म आराधक नूतन अनुभूति, स्वात्म की प्रतीति नूतन चिंतन, भाव आकिञ्चन नूतन चर्या, आगमिक क्रिया । नूतन भावना, अदभुत प्रभावना नूतन वृत्ति की पवित्रता, दृष्टि की निर्मलता नूतन जीवन, जन-जन के संजीवन तन न, चेतन का पोषण!! यों पल-पल नव-नव परिवर्तन देख मुनिवर श्री विद्यासागरजी को । झुक गया सिर, हो गया वंदन दूर थे तो व्याकुल था हृदय निकट हैं तो व्याकुल हैं नयन, देखना चाहते जी भर पर देख नहीं पा रहे, कहना चाह रहे बहुत कुछ पर कह नहीं पा रहे, बैठना चाह रहे जाकर निकट पर कदम आगे नहीं बढ़ रहे, सुनना चाहते दो वचन मुख से पर निवेदन का साहस नहीं जुटा पा रहे, अपने होकर भी परिवार की पकड़ से परे हो गए इतने दूऽऽऽ र कि त्वरित गति से शिवधाम जा रहे... न कोई बात, न कोई संकेत मात्र करते दर्शन, बीते दिन अनेक... दिया परिचय संपूर्ण परिवार का एक दिन मल्लप्पाजी ने महामुनिवर श्री ज्ञानसागरजी को यह माँ है विद्या की विरह में विद्या के आँसू बिसारती रहती...।' विद्या से छोटा यह है ‘अनंतनाथ' जिम्मेदारी से देता है परिवार का साथ इन दिनों चुप्पी साधे न जाने क्या सोचता? यह इससे छोटा 'शांतिनाथ' स्वभाव से ही है शांत इन दिनों रहने लगा पूर्ण शांत दीक्षा के दिन से लगी है अजमेर आने की शांता अब दर्शन में हिचकिचाती है। यह सुवर्णा दुखी है यहाँ आकर भी। भैया बोलते क्यों नहीं? सोचकर वह रोती रहती है… यह मारुति, विद्या का सहपाठी सखा बचपन का सुनते ही नाम मित्र का... हँसकर बोले श्री ज्ञानसागरजी मुनिवर मीत वही जो प्रीत निभाए नित रीत नहीं यह अच्छी कि मुनि बन जाये मीत और घर में रहे सखा!'' देख मित्र को मुनि के भेष में मारूति भूत की भंवरों में घिर गये खेत की मेड़ पर खड़े विद्या दिखने लगे... हरी-भरी फसलों से बात करते पकी फसल को पंछी खा रहे। फिर भी उदारमना यह कुछ न कहते... विचारों में खोये मारुति को अतीत के अंधकूप से निकाल बोले ज्ञानी गुरूवर- कहाँ खो गये? सँभलकर हाथ जोड़ कहने लगे मारुति मैं अज्ञ हैं जानता कुछ नहीं चाहता हूँ मैं भी दीक्षा जैसा कहेंगे भैया विद्या वैसा ही कर लूंगा....” अरे! न कहो इन्हें भैया! 'विद्या ये हैं अब ‘विद्यासागर सुन ज्ञान-सिंधु मुनि की बात तत्क्षण क्षमा माँगी; क्योंकि भूल हुई ज्ञात कुछ सोच बोले मुनिवर “लेकर व्रत ब्रह्मचर्य रहो अपने घर समर्पित हृदय से जोड़ कर हर्षित हुए व्रत स्वीकार कर। गुरु ने आज्ञा दी शिष्य मुनि को परिवार से वार्तालाप की तभी विरागी दृष्टि उठाकर टिका दी सर्वप्रथम माँ श्रीमति की ओर...। आनंदातिरेक से रोम-रोम पुलक गया श्वासों का स्पंदन पल भर को थम गया मोही मन बेटे का परस करने मचल गया। दूसरे ही पल सँभालती स्वयं को सामान्य नहीं वह माँ महान योगी की जननी देखती रही बस लगाये टकटकी... अनबोले ही बहुत कुछ कह दिया मेरे हठीले लाल! तूने यह क्या कर लिया? दुख मिश्रित मोह के अश्रु सोखकर आँखों में ही झुक गई मात्र बोल पाई ‘नमोऽस्तु... पीड़ा अंतर्मन की छिपी न रह सकी विरागी संत ने निर्मोही होने का दिया आशीष तन हल्का हुआ तनिक, हलकी-सी खुशी झलकी। होने से राग का विराग में परिवर्तन कितना कुछ बदल गया है!! कल तक आशीष का हाथ उठता था माँ का आज बेटे का माँ के लिए उठ रहा है। बारी-बारी से सभी ने किया नमन। अनंत के अंतर्मन में उठते प्रश्नों का कोई समाधान नहीं मिला आखिर आपने हम सबको बीच मॅझधार में क्यों छोड़ दिया? मुझसे, सबसे, सारे सदलगा से नाता क्यों तोड़ दिया? इसका समाधान था मात्र एक निर्मोही नज़र... ना कुछ कह पाये अनंतनाथ ना ही कुछ बोले मुनिवर...। चौका लगा है मल्लप्पाजी का सौभाग्य से आज आहार हुआ श्री विद्यासागरजी का खुशी का पार न रहा आहारोपरांत पूरे परिवार का शीश मुनि चरणों में झुक गया!! अनंत व शांति का शीश देर तक झुका रहा कहा मुनिवर से हमें अच्छा आशीर्वाद दो'' बोले मुनिवर श्री विद्यासागरजी ‘शांतिसागर' आचार्य के बनो पथगामी अनुभवो अनंत शांति..." । मिटे मिथ्या भ्रांति, कर्म क्लाति वीतराग भाव में हो सदा विश्रांति यही है आशीर्वाद...। करके पद में प्रणिपात समझ नहीं पाये वे पूरी बात, किंतु प्रसन्न भाव से भर गये। भावी मुनि होने के बीज बो दिये...। संध्या वेला में परिवार सहित मल्लप्पाजी निकले जिनालय वंदना करने ‘नसिया सोनीजी' की देखी बारीकी से आँखें अपलक देखती रह गईं...। सोने-से मंदिर में प्रतिमा देख स्वर्ण की हृदय कली चटक-चटक कर खिलने लगी, मल्लप्पाजी की ममता कहने लगी। यह तो जड़ सोना है। मेरा विद्या अनमोल चेतन सोना है; जो जाग गया है सदा के लिए औरों को सोते से जगाने के लिए!! यों सुधियों के समंदर में डूबे ही थे कि पूछ लिया श्रीमति ने क्या सोच रहे हैं? देखो इधर ऊपर गगन चूमते शिखर पर स्वर्ण कलश त्रिलोकीनाथ का मानो गा रहा यश, समवसरण मंदिर का नज़ारा देखते ही बनता बड़े धड़े की नसिया हुई थी दीक्षा विद्याधर की जहाँ अब मन कहीं जाने को नहीं कहता।'' श्रीमंत न जाने कहाँ खो गई कुछ पल को अपनी सुध भूल गई... महावीर ने कही थी जो कथा यह वही दीक्षा का स्थल था, रह-रहकर मानस पटल पर दिल के टुकड़े को देखती चलचित्र की भाँति... ब्रह्मचारी विद्याधर केशलोंच करते हुए। हज़ारों लोगों के बीच, । श्री ज्ञानसागर जी मुनि संस्कार करते हुए। त्याग कर वस्त्राभूषण सदा के लिए हो गये अनंबर श्रमण सद्यःजात शिशु सम हो दिगम्बर अन्वर्थ नाम धरा विद्यासागर। " उठाकर रज पावन धरा की अपने माथे लगा ली, मानकर कृतार्थ स्वयं को हृदय में राहत पा ली। बचपन में कभी-कभी पहन लेते थे जो अँगूठी स्वर्ण की। उसे अब रखने का औचित्य क्या? जब पहनने वाला ही चला गया... स्वर्णिम अवसर है यह स्वर्ण चढ़ाने का स्वर्णाभा वाले सपूत साधु के पद में इसीलिए स्वर्ण-मुद्रिका एक सौ आठ स्वर्ण-सुमनों में परिवर्तित कर मारुति ने भी कुछ रजत-पुष्प लाकर । प्रभु-संग गुरु की पूजा कर जब पुष्प समर्पित किया सभी का मन भक्ति से विभोर हो गया। उत्तम पात्र को उत्तम द्रव्य चढ़ाकर स्वर्ग-सा सुख पा लिया, पूजनोपरांत दंपत्ति ने पूर्व से संकल्पित व्रत ब्रह्मचर्य गुरु-चरण में विधिवत् ग्रहण कर लिया...। देख संपूर्ण दृश्य भागचंद सोनी स्वयं को धन्य मानने लगे। ‘वंदनीय हैं यह निर्विकार मुनि सौभाग्यशाली हैं यह परिवारजन गुणी कहकर यूं सभी को जय जिनेन्द्र' करने लगे नसिया के कण-कण को साथ ही अपने जीवन को कृतार्थ हुआ-सा मानने लगे। काल के कदम रुकते कहाँ एक पल भी? चलते हुए भी दिखते कहाँ सामान्य जन को भी? जड़ है यह अचतेन भी। जानता नहीं कुछ भी पाओ या खोओ... जागो या सोओ... कुछ कहो या न कहो
  8. यशोधरा अजमेर की वसुंधरा भारत के मानचित्र पर आ उभरी, लोगों की भीड़ विरागी विद्यासागरजी के दर्शन को आ उमड़ी। विद्याधर ने छोड़ी एक श्रीमति माता तो गुरु-कृपा से पाँच समिति तीन गुप्तिमय पा ली आठ-आठ माता, व ह एक माता तो करती मात्र तन की रक्षा, किंतु अष्ट प्रवचन मातृका ने। इनके तन की ही नहीं चेतन की भी कर ली कर्मों से सुरक्षा। लेकिन इधर... सदलगा की माता श्रीमंती का बुरा हाल था बड़ी दूर था नयनों का तारा जो प्राणों से भी । था अति प्यारा, अब नहीं आयेगा वो यहाँ कमान से निकला हुआ तीर लौटकर आता है कहाँ? केवल समाचार ही सुनने को मन बेचैन था महावीर के लौटने की प्रतीक्षा समूचा परिवार कर रहा था... अति आतुरता से दीक्षा का वृत्तांत सुनने, जबसे घर छोड़ गये विद्या हर पल हो रही प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा… दिन-रात न जाने कितनी ही बार हृदय के द्वार पर देते हैं दस्तक स्मृतियों की अंगुलियों से... लेकिन कब आयेंगे वे द्वार पर? यूँ सोच ही रही थी माँ कि... लो! किसी आत्मीय की अंगुलियों ने द्वार पर दी दस्तक... देखा खड़े हैं दरवाजे पर महावीर शून्य मनस्क। ऐसे लग रहे हैं जैसे कुछ पाकर बहुत कुछ खो आये हैं। दीपक हाथ में लाकर उगते सूरज को छोड़ आये हैं, एक लहर की शीतलता पा समूचे समंदर से मुख मोड़ आये हैं। अग्रज महावीर को देख ‘अनंत' और 'शांति' आनंद से उछलते हुए आये... इधर-उधर कहीं न देख भैया विद्या को... अपने विश्वास के महल को ढहता हुआ देख...। ये अकेले ही लौट आये? यों विचारकर वे दोनों ठगे रह गये अनमने से काया पड़ी निष्क्रिय-सी प्राण निकल गये मानो देह से...। समूचे गाँव की जनता का सैलाब उमड़कर आ गया देख दीक्षा संबंधी चित्रों को दर्शन को मन लालायित हो गया, माता-पिता के संस्कारों की करने लगे लोग सराहना । मुनि विद्यासागर को देखने हो गया मन उतावला। एक-एक करके सुनाया दीक्षा का वृत्तांत सुन सभी जन रोमांचित हो गये, बड़ी विचित्र थी परिवार जन की स्थिति सुनकर अजमेर की चर्चा सब अतीत में खो गये भैया के मुनि बन जाने से जी भर कर रो लिये। मन भाई-बहनों का अवसाद से भर गया अब भैया के घर लौट आने का कोई आसार न रह गया...। जल की प्रत्येक बूंद में शीतलता है। अग्नि की प्रत्येक चिनगारी में दाहकता है। नीम के कण-कण में कटुता है। मिश्री के प्रत्येक कण में मिष्टता है। सागर की प्रत्येक बूंद में लवणता है, तो मोहीजन के जीवन में अनिष्ट के संयोग में भी वेदना है । और इष्ट-वियोग में भी वेदना है। लेकिन ज्ञानी के संवेदन में संयोग-वियोग ही नहीं, जानते हैं वे कि हो नहीं सकता स्वभाव में पर का प्रवेश संयोग ही नहीं निश्चय से फिर वियोग कैसे? तभी तो इधर मुनि विद्यासागरजी के जीवन का स्वर्णिम संयम-कलश शांति के अमृत से छलाछल भर रहा है… अमर तत्त्व का अनुभव कराता स्वानुभव का झरना सहज झर रहा है… सौभाग्यशालिनी अजमेर नगरी का कैसे बयान करें? जन-जन के मुँह पर नव दीक्षित मुनिवर का ही नाम है... अन्य दिनों की अपेक्षा । आज चौके कई ज्यादा हैं। दीक्षार्थी के बने माता-पिता पत्नी सहित हुकुमचंदजी लुहाड़िया खड़े हैं सोनीजी के चौके में ज्यों ही पड़गाहन हो गया। बधाईयों से भूतल पूँज गया... जय-जय के नाद से खिल गई धरा तभी गगन से मंद-मंद हुई वर्षा मानो कुबेर ने खोल दिया खजाना!!
  9. देख गुरु-शिष्य को एक-सा एकसाथ प्रकृति पुलकित हो आयी बीज वपन से जो अंकुर उग आये थे वही चारित्र रूपी पौध बनकर लहलहायी ज्ञानधारा ने अपनी गति बढ़ाई, कहीं हो न जाये दृश्य यह ओझल देखती गई दृश्य... और लिखती गई ज्ञान कलम से जन-जन के हृदय-पृष्ठ पर विद्या से विद्यासिंधु की सच्ची कहानी मोक्ष तत्त्व के रसिकों को दे गई अपूर्व निशानी। दीक्षादिवस यह श्रमण संस्कृति के इतिहास में अमर हो गया। जो कल तक थी एक लहर वह आज रत्नों से भरा समंदर हो गया, इस तरह अंतर्जगत् की यात्रा का यह सुखद तृतीय चरण हो गया। गुरु-शिष्य दोनों का गमन अपनी जल की परछाई में देख ज्ञान-धारा उल्लसित हो इठलाती हुई प्रफुल्लित हो। बहती जा रही... बहती जा रही... दोनों के संयमाचरण सहित चरण का अनुगमन, अनुकरण करती ध्रुवगामिनी...वीतरागिनी... ज्ञाऽ ऽ ऽ न धा ऽऽऽ रा ऽऽऽ
  10. हल्की-सी हवा में भी उड़ने वाले । कोमल घने काले रेशम-से केश का कर रहे निर्मोही हो हाथों से लोंच, क अर्थात् आत्मा के स्वयं के ईश होने के लिए कर रहे केशलोंच साथ ही क्लेश का भी कर रहे लोंच। निर्मम हो बाल खींचे जा रहे हैं। देखने वाले आह पर आह भरते जा रहे हैं, कई स्थानों से बह रहा है रक्त, किंतु देह के प्रति होने से विरक्त अंतरात्मा में आनंद बह रहा है। बाहर से उखड़ रहे हैं बाल अंतर में उखड़ रहे हैं कर्म के जाल...! प्रारंभ हो गया दीक्षा संस्कार अपनी समग्र ऊर्जा को उँडेलकर मुनिश्री ज्ञानसागरजी पूर्ण मनोयोग से उत्कृष्ट शुभ उपयोग से । मानो कोई गढ़ रहा शिल्पी मूरत, चित्रकार दत्तचित्त हो । बना रहा हो मानो अपनी-सी सूरत, विधि-विधान पूर्वक मंत्र द्वारा दे संस्कार विद्याधर का सपना हो रहा साकार, आज्ञा पाते ही गुरू की ज्यों सर्प उतारता है काँचली त्यों वस्त्राभूषण उतार हो गए दिगम्बर... करते ही वसन त्याग तीन मिनट तक हुई वर्षा मंद-मंद बहने लगी बयार...। संकल्प ले महाव्रत का अट्ठाईस मूलगुण धारण कर खड़े ही थे... कि इधर अधर में... मानो ऐसा लगा... विद्या की धारिणी विद्याधरी हाथ में ले अष्ट द्रव्य की थाली जा रही थी अपने स्वामी विद्याधर के साथ, तभी यकायक हुआ एक करिश्मा अष्ट द्रव्य से सज्जित पूजा की थाल से पुष्प-राशि का नीचे की ओर बिखरना जल-पूरित कलश का तिरछा होना अक्षत-पुंज का हवा से उड़कर धरा की ओर गिरना, देख यह दृश्य विद्याधरी विस्मित हो आयी दुखित मन से सोचने लगी। पूजा की थाली हो रही क्यों खाली? विज्ञ विद्याधर समझ गया अतिशय सस्मित हो बोला ‘दुखी मत हो मेरी भार्या! यह जल कहीं और नहीं गिरा अजमेर नगर में हो रही जिनकी दीक्षा भावलिंगी शुद्धोपयोगी हैं वह संतात्मा उन्हीं के चरणों का हो रहा प्रथम पादाभिषेक पुष्पवृष्टि समेत... द्रव्य स्वयं हो रहे उतावले उत्तम पात्र की करने को पूजन। ' सुनते ही विद्याधरी फूली न समायी वहीं से ‘नमोऽस्तु' निवेदित कर आनंद से भर गयी। शुभ वचनावली खिर गयी हर बेटी की माँ करती है कन्यादान पर धन्य हैं श्रीमंत माँ, कर दिया दान जिसने जिनशासन हेतु विद्या-सा लाल!! लोगों के मुँह से शब्द गूंजने लगे कि... शुभ संकेत दे इन्द्र देवता प्रसन्न हो गया जैनेश्वरी दीक्षा में वर्षा कर वह भी सम्मिलित हो गया...। उद्बोधन में कहा श्री ज्ञानसागर गुरू ने जलवृष्टि कर तपन मिटा दी ज्यों इन्द्र ने, यह साधक भी वर्षा करके धर्मामृत की करेगा तपन शांत जन-जन की।'' ज्यों ही दिया नाम आज से हो गये ये विद्याधर' से 'विद्यासागर ‘विद्यासागर' - ‘विद्यासागर...' दिव्यघोष से गूंज उठी धर्म-पर्षदा जय ध्वनियाँ मँडराने लगी क्षितिज में । अपार जनमेदनी एकटक देखती रह गई देखते ही देखते... सदलगा की माटी चंदन बन गई। जब प्रदान की गुरु ने हाथ में संयमोपकरण मयूर पिच्छिका उस वक्त की अनुभूति का क्या कहना...!! ‘सीधा स्पर्श किया सप्तम गुणस्थान भीतर में ज्ञान की ज्ञान से हुई मुलाकात अप्रमत्त आत्मा की स्वात्मा से हुई बात, गौण हो गया बाह्य दृश्य शेष रह गया मात्र दृष्टा, था जो अदृश्य । पर ज्ञेय हो गये गौण निज ज्ञाता में हो गये मौन। संयोग-वियोग से परे उपयोग का उपयोग से मिलन हो ज्ञान का सदुपयोग हो गया अहा! अनंत कालोपरांत अपूर्व आनंद पा लिया! बाहर में ज्ञान का विद्यासागर से और विद्या का ज्ञानसागर से चरम को पाने परम मिलन हो गया ज्ञान और विद्या दोनों हैं एक जगत को आज यह विदित हो गया, ज्ञान का संस्कार विद्या में और विद्या का समर्पण ज्ञान में एकाकार-सा हो गया लगा मानो गुरू-शिष्य का नया संसार बस गया, किंतु यह मुक्ति का आधार बन गया। मूंद कर चर्मचक्षु खोलकर ज्ञानचक्षु आत्मा में छिपे परमात्मा को रत्नत्रय के दिव्य प्रकाश में निरखा है पहली बार बंदकर पापासव द्वार खोलकर निर्जरा द्वार दूर कर विकार हो गए निर्विकार... अंतर्मुहुर्त बीत गया आत्मलाभ का शुभ मुहूर्त आ गया। गुरू से अनुपम सौगात पा गया...। व्याकरण में यदि महिमा है पूर्ण विराम की । तो जीवन में भी महिमा है निज में विश्राम की स्वीकार कर शिष्य का समर्पण गुरु ने दे दिया दीक्षा का प्रमाण, योग्य पात्र को सुयोग्य दाता ने दिया संयम का दान... तभी हाथ में ले पिच्छी शिष्य ने गुरुपद में किया नमन और गुरू के साथ किया शिवपथ की ओर मंगल गमन।
  11. ज्यों-ज्यों रात गहराती जा रही चिंतन की गहराई बढ़ती जा रही, बाहर में तमस घना घिर आया है। अंतर में मुक्तियात्रा के अभियान में आत्मोल्लास का प्रकाश भर आया है। अनवरत जग रहे नयन सोना नहीं चाहते पाकर गुरु की शरण, अब और किसी के होना नहीं चाहते महाव्रत अंगीकार कर भव-बीज को अब बोना नहीं चाहते। तभी तो निशा भी लग रही ऊषा-सी दीक्षा की प्रतीक्षा में… आज की मंगल प्रभात में हुआ संवेदन सामायिक में जो षष्ठम-सप्तम गुणस्थान के अति निकट पहुँच गये हैं वे, एक-एक पल लग रहा सागर-सा कब आयेगी वह घड़ी जब हाथ में होगी पिच्छिका!! रत्नत्रय को धारण कर स्वातम का अनुभवन कर ठहर जाऊँगा ज्ञान-गुफा में, अनंत गुणों का जो धाम है। वहीं मेरा चिर विश्राम है, देह पर धागा भी एक अब लग रहा है भार; क्योंकि होकर निर्विकार अतिशीघ्र होना चाहता हूँ निराकार। सिद्धत्व रूप लक्ष्य की लगन में होकर मगन अपन में समय का पता ही नहीं चला। उग आया तिग्म दूर-दूर क्षितिज तक प्रसारित कर अपनी रश्मियों को कह दिया है उसने । आते-जाते जाने-अनजाने चेतन-अचेतन चराचरों को कर दो सूचित अपने प्रकाशमान शब्दों से... लौकिक नहीं पारलौकिक जगत में ज्ञानाकाश में आज एक पुण्य प्रकाश-पुंज विद्या-रवि उदित हो रहा है, आश्चर्य है। सूर्य को ईष्र्या नहीं है। स्वयं सूर्य होकर । दूसरे सूर्य का कर रहा प्रकाशन; क्योंकि जानता है यह कि मुझमें वह प्रकाश कहाँ? जो उस रवि में है। मैं तो करूंगा मात्र बाह्य उजाला वह भेदकर मिथ्यात्व का तमस देगा अनेकों को सम्यक्त्व का उजियाला, गुणी का गुणानुवाद करना ही चाहिए। कुछ तो सूरज से लोगों को सीखना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मैं किसी से ईष्र्या क्यों करूं? यदि गुणीजन हैं तो गुणों का बखान करूँ और है यदि दोषी तो उसके प्रति हीनभाव न करूँ, निश्चय से कर्म निरपेक्ष है प्रत्येक आत्मा स्वभाव से है निर्दोषी अनंत गुण कोषी, इस भाँति सूर्य कार्य करके अपना चल पड़ा अपनी यात्रा की ओर...। यहाँ विद्याधर प्रातः गुरु के चरण-स्पर्श कर लग गये अपने नियमित कार्य में करके प्रभु की पूजन द्रव्य से आज अंतिम बार… किया निवेदन प्रभु से “हे वीतरागी जिनेन्द्र! कल से अनवरत कर सकें भाव पूजन ऐसे भावों का द्रव्य विशेष मुझे देना, त त्त्वज्ञान का जल, चर्या का चंदन निज आनंद का अक्षत, श्रद्धा के सुमन निर्विकार भावों का नैवेद्य दिव्य शक्तियों की अनुभूति का दीप धीरता से धर्म-भावना की खेऊँ धूप पुण्प-पाप रूप कर्मफल में साम्यधर शिवफल की आशा लेकर... अनर्थ्य पद की भावना, और न कोई चाह। भवदधितारक हे प्रभो! पकड़ो मेरी बाह॥ इस तरह भक्ति-सरवर में डुबकी लगाकर बाहर आये विद्याधर मुक्तिवधू को चाहने । संयम-दूती को रिझाने तप-मण्डप में आने को प्रतीक्षित निग्रंथ होने को लालायित, गगनांगन पूँज रहा था जयघोषों से यद्यपि मौसम था प्रतिकूल, फिर भी संख्या बढ़ती जा रही श्रद्धालुओं से जाति-पंथ का कोई भेद न रहा सारा नगर उमड़ रहा पाण्डाल जन-समूह से भर गया। आसपास की गली, दहलान और छत पर खड़े हो गये हैं लोग जगह घेर कर सबके नयन केन्द्रित हैं उस स्थान पर आने ही वाले हैं अब गुरु और शिष्य विद्याधर! प्रांगण नसिया का लग रहा मनोरम मानो वीर का समवसरण आ रहे हैं राजसी पोशाक में अनेकों गुरूभक्त हैं साथ में, देखते ही बिनौली, खुली रह गईं आँखें सोचते रहे भ्राता महावीर अष्टगे वस्त्राभूषण देख लग रहा सम्राट, किंतु चेहरे पर झलक रहा अपूर्व विराग। हर गली में लगे तोरणद्वार चौराहे पर सुंदर से वंदनवार रंग-बिरंगे झंडों से सजाया नगर झूमते हुए कुछ गज चले आये अंतिमवें गज पर दीक्षार्थी विराजे, इन्द्र के ऐरावत गज की भाँति सजाया है इसे घेर कर चल रहे अनेकों श्रेष्ठी, मंगल कलश ले चल रहीं पीछे-पीछे सुहागिन नारियाँ फिर महिला और कुमारियाँ। आते ही निकट नसिया के धरा वहाँ की गौरव से भर आई मंद-मंद हवा के बहाने अभ्यागत का स्वागत कर हर्षायी, भ्राता के नयन देख रहे अनिमेष यह सच है या सपना है एक...? इतने में ही ध्वनि विस्तारक यंत्र से आवश्यक घोषणाएँ हुईं भागचंदजी सोनी से पधार रहे हैं... गुरुदेव! पीछे-पीछे क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी संभवसागर व सुखसागरजी । पीछे गजगामिनी चाल से चले आये विद्याधर, मानो शिववधू वरने आ रहे दूल्हा बनकर जयकारों से गूंज उठा पाण्डाल, प्रारंभ हो गया दीक्षा का कार्यक्रम देख प्रथम दृश्य जनता हो गई निहाल। राजा जैसे दिखने वाले अब होने जा रहे महाराज प्रजा का शासक होता राजा स्वयं में स्वयं के अनुशासक होते महामुनिराजा, राजा के पास होता बाह्य वैभव भव-भव का जो वर्द्धक है, कर्मबंधक है। महाराज के पास होता आत्मिक वैभव जो भव विनाशक कर्म-रोधक है। राजा के होते सेवक; क्योंकि होते वे प्रमादी, किंतु महाराज होते निष्प्रमादी सेवक की आवश्यकता नहीं उन्हें, शत्रु होने से राजा रखता सेना स्वार्थवश रणांगण में अनेकों को मार शस्त्र से दुर्ग में छिप जाता है स्वयं के प्राण बचाने, कोई शत्रु नहीं महाराज का परमार्थवश विकारी भावों का विनाशकर धर्मयुद्ध में शास्त्रानुसार चलकर त्रिगुप्ति के सुरक्षित दुर्ग में लीन हो जाते भगवन् बनने। संपत्ति का अम्बार लगाता राजा अनेकों रानियों संग करता क्रीड़ा दण्डित करता औरों को स्वयं शान से रहता, जबकि मुनिराजा विपत्ति मान जड़ संपत्ति को एकमात्र शिववधू के प्रत्याशी होकर जिनाज्ञा पालन में भूल होने पर प्रायश्चित ले स्वयं को दण्डित कर । औरों से करते साम्य व्यवहार। धन्य है। ऐसे महाराज की तुलना कैसे हो सकती राजा से! मणि की तुलना हो नहीं सकती काँच के टुकड़े से! तभी खड़े होकर विद्याधर गुरु-चरण की वंदना कर कर जोड़कर करते हैं दीक्षा का अनुरोध... गुरु का आदेश पाकर वैराग्य से ओतप्रोत सारगर्भित वचनों से दिया जनता को उद्बोधन...।
  12. इधर सदलगा में परिजन-पुरजन में स्मृतियाँ गाढ़ होती जा रही हैं!! ज्यों-ज्यों घड़ी बीतती जा रही हैं। जाने वाले तीर्थयात्रियों से कर देते निवेदन श्रीमहावीरजी जाओगे तो जाना अजमेर भी वहाँ संघ में रहते हैं विद्याधर जी। पूछकर उनका हालचाल । पत्र से कर देना सूचित। धीरे-धीरे पहुँचने लगे समाचार लिखा एक यात्री ने अबकी बार कभी भी हो सकती है दीक्षा । कर रहे हैं कठिनतम साधना देखा है हमने करते हुए आत्म आराधना...।' पत्र पढ़ने सदलगा वासी रहते उत्सुक, एक नज़र साक्षात् देखने हो जाते इच्छुक, । सभी तत्पर रहते जाने अजमेर। सेठ-पुत्र, शिवकुमार, तम्मा, मारुति शांता, सुवर्णा सोचती रहती… उड़ते देख पखेरू गगन में काश! होते पंख उड़कर चले जाते रहते भैया संग!! कोई द्वार पकड़कर खड़ा रह जाता कोई अचानक ही धरती पर बैठ जाता कोई नींद न आने पर भी चुपचाप चारपाई पर पड़ा रहता, राह तकते-तकते आँखें थकीं, वैरागी की पवित्र नगरी भी अनुराग का स्मारक बन चुकी। प्रिय जितना दूर रहता है। हृदय के उतना ही निकट आता है। बस्ती के बड़े मंदिर के सामने रहने वाले गाँव के विशिष्ट व्यक्ति अन्ना साहिब पाटिल जो मंदिर जाते विद्या को बुलाते, फिर साथ में अभिषेक पूजन करते मन ही मन वे ले रहे थे प्रेरणा कालान्तर में ले ली उन्होंने भी क्षुल्लक दीक्षा। आसक्ति और विरक्ति दोनों हैं आपस में विरोधी, दीक्षा है मानो यम समाधि एक बार स्वीकारने पर छोड़ी नहीं जाती। लोक-परलोक बिगड़ जाते पद से च्युत होने पर, धर्म कलंकित होता पथ से भटक जाने पर। हँसते हुए बोले गुरूदेव वत्स! तू आधार है। मेरी आशा का, मेरा दायित्व है तुम्हें दीक्षा देने का, तनिक भी संदेह नहीं तुम पर मात्र आगत परिस्थिति से करा रहा हूँ परिचय। अभी बाईस वर्ष पूरे भी नहीं हुए। और बना लिया स्वयं को बाईस परीषहजय योग्य! तभी शिष्य को परख कर दीक्षा के बारे में गहन चिंतन कर प्रमुख श्रावकों के सम्मुख रख दी चर्चा। सुनते ही श्रेष्ठी गण में प्रमुख भागचंदजी सोनी । कर चरणों में अभिवादन करने लगे प्रगट अपना मंतव्य अभी अल्प वयस्क है यह अतः क्षुल्लक ऐलक बनाकर क्रमशः मुनिपद दिया जाए। बोले गुरुवर दृढ़ता से मैं उसे परख चुका हूँ। उसकी चर्या व साधना देख चुका हूँ, पढ़ा है क्या तुमने श्रमण और वैदिक संस्कृति को? आचार्यश्री कुंदकुंद” ने नौ वर्ष की ही उम्र में ली थी दीक्षा, "जिनसेन आगर्भदिगम्बराचार्य'' ने। आठ वर्ष में धारी थी दीक्षा, संत एकनाथ औ साध्वी मुक्ताबाई ने अल्पायु में करके साधना तेईस वर्ष में जल समाधि ले ली… क्या मेरा शिष्य नहीं कर पायेगा मुनिपद की रक्षा? दीक्षा के लिए कोई मापदंड नहीं आयु का, यदि है तो कौन-कौन हैं तैयार आप में से लेने दीक्षा? तुम्हें हो रही चिंता कि युवावस्था में क्यों दे रहे दीक्षा? मुझे है खेद इस बात का । बाल्यकाल से ही क्यों नहीं आया मेरे पास विद्या?? यदि तुम्हारी यह सोच है कि छोटी उम्र में नहीं होता धर्म तो कम से कम बड़े होने पर तो तुम सबको छोड़ ही देने चाहिए दुष्कर्म!! याद रखो... हर नये कार्य में पहले उपहास होता है, पर उसी उपहास के पृष्ठों पर। एक नया इतिहास होता है, जब होना होता है कुछ अच्छा। तब सारी नकारात्मक शक्तियाँ हो जाती हैं एकत्रित वहाँ मार्ग रोकना चाहती हैं उसका, किंतु दृढ़ संकल्पी बाधित होता कहाँ? ऐसा ही कुछ घटित हो रहा यहाँ। तपस्वी गुरुवर के आगे सभी थे निरूतर, एक ने कहा साहस बटोरकर हम विरोधी नहीं मात्र करने आये अनुरोध... कुछ ही दिन गुजरे थे कि एक दिन सोनीजी की नसिया के भव्य पाण्डाल में विशाल जनसमूह में हो गई घोषणा… तीस जून उन्नीस सौ अड़सठ को मुनि श्री ज्ञानसागरजी दीक्षा देंगे विद्याधर को उद्घोष यह बिखर गया हवा के कण-कण में सुनते ही छा गया सन्नाटा, यह सच है या सपना? प्रियजनों के मन में आनंद मिश्रित वेदना होने लगी, टोलियाँ बनाकर तरह-तरह की कानों कान लोगों की बातें होने लगीं। ब्रह्मचारी जी की बुद्धि में है तीक्ष्णता जीवन में सरलता प्रभु-भक्ति में एकाग्रता गुरु-भक्ति में तन्मयता स्व के प्रति कठोरता, प्राणी मात्र से कोमलता चर्या में निर्दोषता, व्यवहार में सहजता जीवन में सादगी, भावों में ताजगी साधर्मी से वात्सल्य भाव संबंधी से विरक्त भाव स्तुति में प्रशस्त राग हृदय में भरपूर वैराग्य निद्रा अल्प, गहन साधना अभ्यास में थकान नहीं आवश्यकों में आराम नहीं कंठ में मधुर झंकार । और बाईस वर्ष की युवावस्था में चारित्र स्वीकार! धन्य है दीक्षार्थी जिन्हें दीक्षा देंगे ज्ञानदिवाकर श्री ज्ञानसागरजी!! इन दिनों सदलगा में निस्तब्ध नीरवता छायी है। भाई-बहन की आँखें विद्या को देखने अकुलायी हैं, किंतु ठान लिया मल्लप्पाजी ने ना मैंने जाने की अनुमति दी है। ना ही मैं लेने जाऊँगा, विद्या को लौटा लाने का श्रीमंति कई बार कर चुकी आग्रह अश्रुधारा बहती लगातार माँ की ममता का जुड़ा हुआ था तार इतने में ही आ गया। अजमेर से तार...। पढ़ते ही ‘महावीर' हो गये हताश चेहरा पड़ गया फीका पिता ने पूछा- ऐसा क्या लिखा? दुखित मन से पढ़ सुनाया सुनकर दीक्षा का समाचार माँ का हृदय भर आया पिता ने दोनों कानों में अंगुलियाँ लगा लीं । आँखें जैसे कपाल से बाहर निकल पड़ीं, क्रोध और संताप की सीमा नहीं रही राग की आग बाहर होठों से धधक रही आँखों की पुतलियाँ थम गयीं कुछ पल धड़कन की गति रूक गयी। सुनते ही संदेश यह... विद्या के अनन्य मित्र सेठ-पुत्र शिवकुमार आकर श्रीमति के पास लगे बताने… यह पहले से ही जानता था मैं जैसे देश के नेता महात्मा गाँधी वैसे ही धर्म का नेता बनेगा मेरा साथी; क्योंकि उसके हाथ की अनामिका में था कमल का चिह्न उस पर लगाकर स्याही सफेद कागज पर देखा था मैंने छापकर, साथ में घूमते थे हम शतरंज खेलते थे हम, किंतु अब... कहते-कहते रो पड़े... घर का वातावरण शोक से भर गया आते-जाते लोग पूछ बैठते क्या विद्याधर दीक्षा ले रहे? समाधान में नयन नम हो जाते मल्लप्पाजी कुछ बोल न पाते, । अजमेर जाने का तय नहीं हुआ तभी गंभीरवृत्ति वाले ज्येष्ठ पुत्र महावीर विचारने लगे… दीक्षा के कुछ ही दिन रहे हैं शेष एक बार पुकारूँ ‘विद्या' कहकर भाई से मिलने का यह अंतिम है अवसर कहा पिता से- जाना चाहिए सारे परिवार को लौटकर नहीं आयेगा ये पल सारा परिवार जाने को है व्याकुल न मिलने पर पिता की आज्ञा हुए सब हताश अकेले महावीर ही चल पड़े तब अजमेर की ओर... सारे जैन समाज में था उत्साह बाहर में दीक्षा का आकर्षक मण्डप था भीतर से चउ आराधन का मण्डप सज रहा था बाहर जगह-जगह तोरणद्वार बँधे थे अंतर में पाप के आसव द्वार बंद हो रहे थे। बाहर में तन का श्रृंगार हो रहा था भीतर में चेतन का श्रृंगार चल रहा था, बाहर में तो उत्साहित हैं कुछ देश के लोग ही भीतर में आत्मा के असंख्य प्रदेश उत्साहित हैं। दो दिन पहले ले जाकर लोगों ने घर-घर पर आरती उतारी मंगल कामनाओं से झोली भर दी। इन दिनों अजमेर के हर गली-मोहल्ले में चर्चित दीक्षा विद्याधर की, जन-समूह के बीच भीड़ से घिरे हाथी पर निश्चल बैठे। ऐसा लगता मानो सिद्धालय की ओर जाना चाहते हों... अनेकों वीथिका व राजपथ से होती हुई ‘बिनौली' में उमड़ पड़ा जन-समुदाय सोच रहे कुछ लोग... आखिर तन को सजाकर यह जुलूस क्यों? इसीलिए कि है यदि भौतिक आकर्षण तो समय है अभी भी । दीक्षा कोई बंधन नहीं है... पहचान लेता है। इससे समाज भी समूचा आखिर कौन यह दीक्षार्थी है? हुआ भी ऐसा ही एक परदेशी ने पूछ लिया... शहनाईयों की यह ध्वनि कैसी? उत्तर मिला 'विद्याधरजी की मुनिदीक्षा की। भीड़ पार कर आ देखा भ्राता महावीर ने आभूषणों से सज्जित इन्द्र-से देख विद्याधर को हुए कीलित-से। सोचकर आये थे बहुत कुछ लेकिन देख यहाँ का माहौल भूल बैठे अपनी ही सुध-बुध ज्ञात होते ही आयोजकों ने विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता हैं ये शीघ्र ही बिठा लिया ससम्मान हाथी पर जहाँ बैठे थे दीक्षार्थी विद्याधर अंतिम बार समीप बैठे, होकर अभिभूत देख आराधकों की भीड़, स्वयं हुए नम्रीभूत। दीक्षा से पूर्व दिवस की ऊषा में प्राची में उदित सूर्य की । प्रथम किरण नृत्य कर धरा पर उतरी थी, शेष रश्मियाँ दिदिगंत तक प्रकाश प्रसारित करतीं जन-जन को संदेश दे रही थीं कि ज्ञानगगन के रवि विद्याधर । आज वस्त्रों में अंतिम भोजन करेंगे, फिर तो शिवयात्री पदयात्री करपात्री निग्रंथ मुनि हो आहार करेंगे। मंदिर के बाहर सिंहपौर के निकट श्यामपट्ट पर लिख दिया । समाचार-पत्रों में छप गया। ‘ब्रह्मचारी विद्याधर की होगी दीक्षा' सुनते ही समाचार जमाने की जनता का जमघट एकत्रित होने लगा... कर्मचारी हो या अधिकारी नौकरी वाला हो या व्यापारी नर हो या नारी प्रौढ़ हो या बूढ़ा बालक हो या युवा सबका मन लालायित है। दीक्षार्थी को देखने उनके दो वचन सुनने, और दीक्षार्थी का मन आह्लादित है। प्रतीक्षित है वह पल पाने स्वानुभूति की झील में तैरने। तभी अपनी सुध में खोये स्वयं को ज्ञानसुधा में भिगोये गुरू समीप बैठे विद्याधर से पूछा दूर से आये एक विद्वान् सेठ ने ‘नाम क्या है तुम्हारा?' इशारा पा गुरु का बोले- 'आत्मा' । लक्ष्य? ‘निराकार हो जाना प्रिय भोजन? ‘ज्ञानामृत प्रिय स्थान? ‘सिद्धालय खास मित्र?- ‘गुरु और जिनवचन पसंद क्या? ‘निजात्मा की चर्चा नापसंद क्या? ‘संसारवर्द्धक चर्चा पसंद का गीत? ‘जो आत्मा की धुन लगा दे पसंद की पोशाक? ‘दिगम्बर वेश जो गुरु की कृपा से पा लूंगा कल की पावन बेला में...। ' सुन प्रश्नों का उत्तर सेठ व अन्य श्रोतागण संतुष्ट हो गये प्रसन्न भी, अनुभूत हुआ कि कानों में कुण्डल पहनने पर भी सुख नहीं मिला इतना कभी जितना परिचय सुनकर मिला अभी। गुरु की प्रसन्नता का तो कहना ही क्या लगा उन्हें अनेक तारों के मध्य है। मानो एक चन्द्रमा या है परम प्रतापी सूरज-सा मुनि की भाँति खड़े होकर करपात्री लेकर आहार ब्रह्मचारी अब ग्रहण कर रहे उपवास गुरु दे रहे सहर्ष आशीर्वाद सामायिक उपरांत विधान कर, दिन ढल गया झट अपनी किरणों को समेट सूर्य अस्ताचल की ओर चल दिया… ज्ञात हो गया है उसे धरा पर एक रवि उदित होने जा रहा है। लेकर वीतराग छवि।
  13. फैल गई पुरवैया की भाँति खबर यह सदलगा के मंदिर से दर-दर पर हर घर-घर में प्रियजन, पुरजन, मित्रजन करते स्मरण दिनभर। जिनालय का घंटनाद सुन लगता श्रीमति को ‘विद्याऽऽ' शब्द गुंजित हो रहा; हार्न किसी वाहन का बजता वाद्य यंत्र यदि कहीं बजता कोई भी किसी को पुकारता खिड़की या दरवाजा खुलता, हर ध्वनि ‘विद्याऽऽ' रूप में। सुनाई पड़ती कानों में। देखती जब किताबें, कपड़े, कंघी तो बहनें बुदबुदातीं आँसू पोंछते हुए कहती विद्या भैया की हैं। पिता की मनःस्थिति का तो कहना ही क्या... जब भी बुलाते महावीर, अनंत, शांति को अनायास निकल पड़ता मुख से विद्याधर... तुरंत अपनी भूल सुधारते । पर अनमने से हो जाते...। रेखा और वर्तुल के बीच । अंतर है धरा गगन-सा प्रारंभ व पूर्णता हो भिन्न-भिन्न जगह से वह मानी जाती है रेखा, प्रारंभ की जगह से ही पूर्ण हो वह वृत्ताकृति मानी जाती है। मोही की दशा होती है वर्तुल जैसी झुलसता रहता मन राग की आग में दुख ही दुख पाता आतम, किंतु निर्मोही की दशा होती है रेखा-सी चलता रहता अविरल चेतन वीतराग पथ में सुख का संवेदन करता आतम प्रारंभ होता साधना से और पूर्ण होता है सिद्धत्व पर, चल पड़े हैं विद्याधर इसी पथ पर। मदनगंज किशनगढ़ में बैठ एकांत में । करते ज्ञान साधना। एक दिन आई बूढ़ी महिला पूछने लगी प्रश्न, देखते ही आई अन्य महिलाएँ । लग गई भीड़ रहे मौन ब्रह्मचारी विद्या, दूसरे दिन से उन्होंने अपना स्थान बदला 'एकांत वासा झगड़ा न झाँसा' कहावत जो पसंद थी उन्हें। दादिया ग्राम में दे दिया विवेक का परिचय, आहार-पूर्व शुद्धि हेतु पहुँचे जब गुरूवर गाय सींग ताने खड़ी हो गई मारने ही वाली थी कि तुरंत शिष्य ने सामने पड़ी डाल दी घास शांत हुई गाय यही था उनका विवेक चातुर्य। गुरु-सेवा कर धन्य हुए विद्याधर! एक दिवस देख एकटक गुरूवर । ज्ञान पिपासु विद्या को लगे कहने अनेक ग्रंथों में मति-गति प्रखर हो गई है तुम्हारी; अब पढ़ना चाहिए ‘सर्वार्थसिद्धि आचार्य 'पूज्यपाद स्वामी' रचित जैन दर्शन की महान है यह कृति!! बस फिर क्या था? उसी दिन गुरुवार से ज्ञानदाता गुरू ज्ञानसागर जैसे और विद्या पिपासु विद्याधर जैसे, भर-भर अंजुलि पीने लगे वर्षों में पढ़ने योग्य विषय महीनों में ही पढ़ गये!! यहाँ लेखनी भी कुछ लिखने को हो गई उतावली कि वियोग जिसे न हो स्वीकार उसे संयोग की तमन्ना नहीं करना चाहिए। पंक जिसे न हो स्वीकार उसे पानी बरसने की इच्छा नहीं करना चाहिए। शूल जिसे न हो स्वीकार उसे सुमन की चाहत नहीं रखना चाहिए। अस्ताचल जिसे न हो स्वीकार । उसे अर्यमन्” से दूर रहना चाहिए। दुख जिसे न हो स्वीकार उसे इन्द्रिय सुख छोड़ देना चाहिए। विनय, परिश्रम, लगन जिसे न हो स्वीकार उसे ज्ञानार्जन की भावना नहीं करनी चाहिए। किंतु विद्याधर थे स बसे निराले, गुरु के नयन सितारे, हृदय के प्यारे!! वे... अभ्यास चाहे ज्ञान का हो या चर्या का करते लगन से, होकर दुनिया से बेखबर अपने आवश्यक में रहते मगन से, ब्रह्मचर्य अवस्था में ही करने लगे केशकुंचन, क्लेश नहीं किञ्चित् भी रखते प्रफुल्लित मन। सहपाठी ‘भागचंदजी बज' पढ़ते विद्याधर के संघ मानते स्वयं को भाग्यवान पाकर गुरु से ज्ञान, किंतु विद्या-सी साधना कहाँ कर पाते? एकटक उन्हें देखते ही रह जाते। ज्ञान के भंडार ज्ञानी गुरू को देख। जनता होती प्रभावित, तो विनम्र लजीले ब्रह्मचारी विद्याधर के अतिसुंदर रूप को देख लोग होते आकर्षित। उनके बड़े-बड़े विकसित कमल सम नेत्रों को लख हर कोई जुड़ना चाहता, प्रत्येक पिता उनकी छवि में अपने पुत्र को देखना चाहता, हर बहन खोजती उनकी मूरत में अपने भाई का चेहरा!! जन-जन के प्रिय विद्याधर को कुछ न कुछ देना चाहते सब कोई, नहीं लेते किंतु वे कोई वस्तु दुखी होकर अंततः यों ही लौट जाते श्रावक भाई। एक दिन कहा सेठ ने बदल लीजिए पुरानी मोटी धोती अच्छी कोमल कीमती पहन लीजिए ब्रह्मचारी जी! आज्ञा ले ली है मैंने गुरूवर से, तभी बोले स्वाभिमानी विद्याधर जी मुझे अभी आवश्यकता नहीं; क्योंकि यह फटी नहीं!! सोचने लगे मन ही मन सेठ, धर्मात्मा, श्रावकगण... होने वाला है यह तपस्वियों का नायक, चलायेगा श्रमण श्रेष्ठ परंपरा को अपरिग्रह भाव ले दिगम्बर हो गौरवान्वित करेगा भारत की वसुंधरा को। जिसके शीश रूपी नभ में है। ज्ञान की तलैया, नाभि के मध्य में सहनशीलता की शैय्या, हृदय-समंदर में है। नम्रता की नैया, समर्पित जीवन में हैं। गुरु से खिवैया!! लक्ष्य है जिनका निजगृह पाने का क्यों रखें फिर वे परिग्रह? होता है पर का ग्रहण इसमें भटकता है पर-गृह में। सत्पथ-पंथी, सत्यग्राही, ब्रह्मचारीजी ने । नहीं स्वीकारा आग्रह, अपनी सत् ज्ञान संज्ञा से मधुर स्वर में देकर उत्तर नहीं रखना चाहते अधिक परिग्रह जिनकी वचनावली के आगे विविध व्यंजन भी लगते फीके, प्रकृति भाव से सहज जीना चाहते हैं जो, शीघ्र ही धारेंगे निग्रंथ पद वो विराग भाव से विकारों का करना है विसर्ग जिन्हें, पर से करके संबंध-विच्छेद स्वयं से करनी है संधि जिन्हें...। सोनीजी की नसिया के प्रांगण में । जहाँ भव्य-दिव्य जिनालय है, कीर्ति जिसकी सारे देश में व्याप्त है। कर बैठे प्रार्थना एक दिन गुरु से दीक्षा लेना चाहता हूँ जैनेश्वरी वस्त्र भार लग रहे हैं, कृपा हो जाये आपकी तो समझेंगा मुक्ति के द्वार खुल गये हैं। गंभीर वचन से बोले गुरूवर अभी अल्पकाल ही बीता है संघ में आये साधना का होता है कुछ क्रम अक्रम से हो सकता है लोकापवाद उत्पन्न तलवार की धार पर चलने के समान है जैनेश्वरी दीक्षा, बालू के ग्रास और लोहे के चने चबाने के समान है दीक्षा, दिशा बदल लेने का नाम है दीक्षा दीनता का क्षालन है दीक्षा, यह मुक्ति का राजमार्ग है। सिद्धालय जाने का प्रवेश पत्र है!! यह मंज़िल नहीं माध्यम है, साध्य नहीं साधन है, तन के अनावरण का नाम दीक्षा नहीं, चेतन के विकारों का अनावरण होता है इसमें अंतर प्रवेश का नाम है दीक्षा, जिसमें इच्छा निरोध की मिलती शिक्षा आत्म परिणामों की हो परीक्षा तभी सार्थक होती है दीक्षा!! विनीत हो कहने लगे विद्याधर ऐसे कई उदाहरण पढ़ाये हैं आपने मुझे, दर्शन को आये थे गुरू के । दीक्षित होकर रह गये, जैसे भौतिक सुख में मग्न सुकुमाल श्रमण बन गये...। पैनी दृष्टि से देख बोले गुरुवर विद्याधर बहुत चतुर हो गये हो मेरे ज्ञान का प्रयोग मुझ पर ही कर रहे हो...!! कहते ही अधरों पर स्मित हास्य उभर आया। दीक्षा के लिए आयु ही नहीं वैराग्य-भाव आवश्यक है, मैं तुम्हें अवश्य देंगा दीक्षा यह वचन गुरू-मुख से निकल गये। गुरू-वाणी ही मंत्र है, कृपा दृष्टि ही तंत्र। जग में गुरु आशीष ही, माना रक्षा यंत्र।" दोपहर सामायिक उपरांत । बैठे थे गुरू-शिष्य शांत... तभी पूछ लिया गुरु ने क्या देख रहे हो वत्स? विद्याधर बोले पिच्छी की तरफ करके इशारा मैं इसमें देख रहा हूँ अपना भविष्य।'' ‘‘क्या कभी बनाई है पिच्छिका?" । शिष्य ने 'नहीं' के लिए हिला दी ग्रीवा। उसी वक्त खोलकर पिच्छी बिखेर दिये पंख दिया आदेश बनाकर दिखा दो पिच्छिका...। पाते ही आदेश गुरु का कोमल, नाजुक लाल हथेलियों से समेट दिये सुंदर ढंग से सुडौल व्यवस्थित बनाकर संयमोपकरण गुरू के पावन करों में प्रदान कर बैठे ही थे कि आत्मीय स्नेह-पूरित हो कहने लगे पिच्छी लेने के पहले बनाना भी जानते हो? समझदार हो चुके हो, किंतु नाजुक हो सर्दी-गर्मी कैसे सहोगे? शिष्य गंभीरता से बोले गुरूवर! दीमक होती है बहुत कोमल फिर भी काट देती है लकड़ी-पत्थर गुरू-कृपा से पंगु भी चढ़ जाता है पर्वत अहं का विसर्जन कर बन जाता है अर्हत् ...!! सुन शिष्य की शब्दावली गुरु सोचने लगे ‘‘है यह दृढ़ संकल्पी ..." देख गुरु की मुख मुद्रा हो गए आश्वस्त, "निश्चित निकट भविष्य में परिग्रह रूपी गृह को करके ध्वस्त रहूँगा जीवनभर स्वस्थ...।"
  14. अजमेर की नसिया में चल रहा चातुर्मास, नित्य प्रवचन में आते अनेकों श्रोतागण जब आया पर्व दशलक्षण बिना शास्त्र खोले, कंठस्थ मोक्षशास्त्र का किया शुद्ध वाचन गुरू हुए प्रसन्न श्रोता हुए चकित, विद्याधर थे सहज । अभी बहुत सीखना है शेष... चारित्र को पाना है विशेष। व्रती विद्याधर की ज्ञान-गरिमा में लगे चार चाँद, किंतु मन को छू न पाया ज्ञान का मान। गुरु की वृद्धावस्था साथ ही रोग था 'सायटिका' गर्मी का था मौसम हवा में वर्जित था शयन अतः बंद कक्ष में करते शयन विद्याधर भी रहते वहीं गुरु के संग दर्द होने पर बार-बार दबाते । खुली हवा में सोने को कहते, किंतु गुरु के सोने पर वे वहीं सो जाते सेवा में त्रियोग से तत्पर गुरू का हृदय से रहता आशीष उन पर...। पूछा कजौड़ीमल से एक दिन विद्या रात में पढ़ता है या सोता रहता है? बोले वह लगता तो है पढ़ता ही होगा लेकिन ध्यान नहीं दिया। अब से ध्यान दूँगा, संत-निवास में ही रहकर देर रात में उठकर... जब देखा तब पढ़ रहा था ज्यों ही देखा घड़ी की ओर पूरा एक बज रहा था...। उठकर आये पास में बोले बड़े प्यार से ब्रह्मचारी जी! बंद करो पढ़ाई अभी कोई परीक्षा नहीं आई देर तक जगना अच्छा नहीं, बात उनकी मान शीघ्र समेटे शास्त्र सो गये बिछाकर चटाई। प्रभात में बैठे ही थे दर्शन करके पूछा मुनिवर ने कुछ पढ़ता है रात में? बोले गुरूभक्त कजोड़ीमल एक बात समझ नहीं आई हीरा भी लाकर दूँ और परख भी मैं ही करूं।' महाराज! आपका शिष्य है होनहार... बड़ी लगन है उसमें; रात्रि आठ से एक बजे तक पढ़कर, प्रातः साढ़े चार बजे उठकर सामायिक पाठ आदि करता है। सुनकर प्रशंसा शिष्य की गुरु आनंद से भर गये। स्वयं मन ही मन कहने लगे पहले क्यों नहीं आ गये! क्यों इतनी देर कर गये!! नित-प्रतिदिन नया विषय ज्ञान के खजाने से निकल रहा था लगन के साथ पढ़ते हुए विद्या का विकास हो रहा था...। सच ही कहा है ‘‘विद्या योगेन रक्ष्यते विद्या की रक्षा होती है अभ्यास से इसीलिए विद्यार्जन कर रहे पूर्ण लगन से। दो माह बीत गये पढ़ाने लगे अब आठ घंटे, चाहते थे संपूर्ण ज्ञानामृत शिष्य के हृदय में भर देना वह भी अपना चित्त-कटोरा करके रखते सदा सीधा गुरू-बादल से नीर बरसता मन-सीपी खुली रहती हर बूंद मोती बन जाती। इस तरह रात-दिन चिंतन-मनन-पठन चल रहा था, जो भी देते गुरू ज्ञान उसे करते उसी दिन याद छोड़ते नहीं कल पर क्योंकि वे जानते थे ‘कल कामने इच्छा के अर्थ में है कल् धातु जब तक रहेगी कल की कामना कल-कल करता रहेगा, पल-पल आकुल-व्याकुल होता रहेगा इसीलिए कल के लिए होना नहीं है विकल अकल से काम लेना है। नकल करना है अब निकल परमातम की। हे आत्मन्! कल का भरोसा नहीं आज का कार्य आज ही करना है, यों समझाते स्वयं को बढ़ते जाते आगे-आगे...। मानो मिल गया भूले को मार्ग प्यासे को समंदर भूखे को मिष्ठान्न अंधे को नयन। पाया जबसे गुरू-ज्ञान का भंडार मिल गया जीवन का आधार लगने लगा अब उन्हें... साँसों की सरगम में महागान गुरूवर हैं, हृदय-देश के शासक संविधान गुरूवर हैं, अज्ञान तमहारक अवधान गुरूवर हैं। मेरी हर समस्या का समाधान गुरूवर है...। गुरूपद में सर्वस्व अर्पण कर वरद हस्त प्राप्त कर चिंतन-मनन में ध्यान-अध्ययन में, भूल गये बाहर की दुनिया आहारोपरांत गुरू के । जो भी आते श्रावक बुलाने सिर झुकाये मौन से । चले जाते साथ उनके भोजन करने। बचपन से ही नहीं थी भोजन में गृद्धता खा लेते जो भी माँ के हाथ से मिलता, भोजन के प्रति निस्पृहता, सात्विकता देखकर गुरु ने एक दिन पूछा ठीक चल रही है साधना? कहकर- ‘हाँ । फिर हो गये मौन...। भोजन के बाद मन को थकाने वाले न करें कार्य, रखे मन प्रसन्न और शांत कर सके ताकि उत्साह से सामायिक, तब बनेगी एकाग्रता । यही साधना लायेगी ज्ञान में निखार सुनकर यों गुरु-वचन हितकार। उपयोग का उपयोग करना ही समय का सदुपयोग करना है, भोगों में उपयोग का भ्रमना ही समय का दुरूपयोग करना है, जानकर यूं स्वयं को साधना में डुबाने लगे। शब्द में छिपे छंद को मुक्त कर सुप्त संगीत को जगाकर वीणा बजाता है वादक। और इधर देह में सोये ब्रह्म को पुकार कर ज्ञानचक्षु से निहारकर विद्याधर हुए अद्भुत कलाविद्, आत्मज्ञायक, यह सब ज्ञानी गुरू का ही है चमत्कार अन्यथा कैसे मिल पाता। अल्प समय में ज्ञान का महान उपहार?? इस देश को चलाने चाहिए राष्ट्राधीश । अदालत को चलाने चाहिए न्यायाधीश विद्यालय में चाहिए अध्यापक मंच पर चाहिए संचालक और मुझे भी चाहिए पल-पल गुरू ज्ञानसागर, जो पामर को बनाते हैं परम ब्रह्म से मिला देते हैं मिटाकर भरम अहं को विसर्जित कर बना देते हैं अर्हं। ऐसे गुरु लाखों में हैं एक, जैसे पुत्र का पिता होता है एक सती का पति होता है एक गुलाम का मालिक होता है एक, यूँ मन ही मन गुरु-गुण गाते रहे आनंद-सर में गोते लगाते रहे… ‘जैसा संग वैसा रंग इस उक्ति को चरितार्थ करते रहे। छाता खोल लोग बारिश से बचते रहे, मगर ये गुरु-वचनामृत से भीगते रहे शीत में लोग देह को ढंकते रहे, मगर ये गुरू-कृपा की शीतलता अनुभवते रहे गर्मी में लोग तप्त उर्मियों से व्याकुल होते रहे। कृत्रिम हवा खाते रहे, मगर ये दिन-रात ज्ञानाचरण में तपते रहे। यूँ पता ही न चला पलक झपकते ही वर्ष बीत गया, दक्षिण का विद्या उत्तर में जा ज्ञान में खो गया।
  15. ज्ञान और विद्या नाम की धाराएँ दो होकर भी बह रही थीं साथ-साथ... दोनों का उद्देश्य एक उद्देश्य एक तो मार्ग भी एक, नियति ने दोनों को मिलाया प्रज्ञाधारा ने अपने लहर पृष्ठों पर। दोनों का एक साथ नाम लिखा। समझा रहे गुरु गूढ़ रहस्य की बातें वत्स! स्वभाव की सामर्थ्यता विभाव की विपरीतता और परभाव की पृथक्ता ये तीनों विचारने योग्य हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आचरने योग्य हैं, मोह, राग और द्वेष ये तीनों तजने योग्य हैं, हेय, उपादेय और ज्ञेय यह छोड़ने, पाने और जानने योग्य हैं। अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंग इन तीनों का रहस्य समझने योग्य हैं, इनसे दो विरोधी तत्त्वों में भी हो जाता सामंजस्य कर्म-सिद्धांत के ज्ञान से नहीं होता खेद-खिन्न... अध्यात्म ज्ञान से दिख जाता है । देह आत्मा भिन्न-भिन्न...। आप्त के द्वारा कही गणधरों से गूंथी महामुनियों से लिपिबद्ध हुई यह आगम की वाणी मूलभूत संस्कृत-प्राकृत में निबद्ध, इसे पढ़े बिना। धर्म का मर्म समझना है असंभव। यद्यपि तुम्हारी ज्ञानयात्रा है कठिन; क्योंकि भाषा है तुम्हारी भिन्न मैंने पढ़ाया है अनेकों को, किंतु आज तक तुम जैसा लगनशील, उत्साहित । विनम्र और समर्पित देखा नहीं अल्प समय में जितना अधिक दे सकें तुम्हें ज्ञान होगा संतोष मुझे अब तुम्हारी सामर्थ्य और अभ्यास पर आधारित है 'विद्याधर'! गुरू-मुख से सुन आत्मीय संबोधन हृदय बाग-बाग हो गया आज लगा पहली बार नाम सार्थक हो गया यहीं से अध्ययन प्रारंभ हो गया… प्रथम अभ्यास में समझाया प्रत्येक शब्द में होता अर्थ नहीं होता कोई शब्द निरर्थक निरर्थक का भी होता ही है आखिर कोई अर्थ ज्यों व्यवहार में चार कोने हों जिसमें वह चौकी गढ़ा जाय जो वह घड़ा चट आये सो चटाई देर से आये सो दरी जो किसी को वारे या रोके सो किवार आशु गमन करे सो अश्व त्यों आगम में चेते सो चेतना ऐसा कहा है। अतः निजात्मा का लक्ष्य हो शब्द कम, अर्थ ज्यादा गहो, अधिक बोलने से अनर्थ न हो जो करो, वही कहो...। अनमोल सूत्र दे स्नेह-भरी दृष्टि से अपने कर-कमलों से दिया ग्रंथ शिष्य के हाथों में, मिल गया अपूर्व उपहार! लगा, आज आया है। जीवन का सबसे बड़ा त्यौहार...!! मन आत्म-साधना में वचन जिनवाणी की वाचना में काया गुरू-सेवा में कर दी समर्पित...। गुरू को मिल गया योग्य शिष्य शिष्य को मिल गये ज्ञानी गुरु गुरु को मिल गया हीरा तो शिष्य को शिवराही...। देख लगन, निष्ठा और परिश्रम बढ़ा दिया अध्यापन का समय पढ़ते नियमित पाठ, करते कंठस्थ शिष्य की लगन से गुरु थे संतुष्ट...।। जिस शिष्य के पास हो हृदय की कोमलता मन की पवित्रता वचन की मिष्टता काय की सजगता और स्वभाव की शीतलता, फिर भला गुरू क्यों न हों प्रसन्न...!! रात्रि के समय पर पण्डित महेन्द्रजी शास्त्री ने व्याकरण, छंद, नीति आदि के ग्रंथ पढ़ाये उन्हें कन्नड़ भाषी होने पर भी अब संस्कृत-प्राकृत-ग्रंथ लगे सहज पढ़ने... एक दिन संस्कृत पढ़ते-पढ़ते सोचने लगे... व्याकरण में संधि भी है समास-विग्रह भी बिखरे को जोड़ने का काम करती है संधि और जुड़ों को जुदा करने का काम करता है समास-विग्रह; गुणों से करना है संधि दोषों से करना है विग्रह यों भाषा के साथ भावों का भी। करते सम्यक् अध्ययन।
  16. दो दिन से नींद नदारद थी। फिर भी तन में तनिक भी न थकावट थी, नींद आती भी तो कैसे गंतव्य के पहले... चेतन में चाहत थी सद्गुरु की भूखा-प्यासा देह होने पर भी ज्ञानामृत का भोजन और तत्त्वज्ञान का अमृतपान भीतर में चल रहा था...। ‘चकोर' की भाँति ताक रहे ‘अजमेर' अब आने ही वाला था लो ! ऐतिहासिक नगर आ ही गया... पहुँचे देवालय कर दर्शन प्रभु के पूछा श्रावक से कहाँ हैं महामूनिवजी? बोले- पता नहीं मुझे पूछो... ये हैं 'कजौड़ीमलजी घूरकर देखते हुए मारवाड़ी भाषा में आयी आवाज़ भर्रायी सी कूण है रे थें कठे सू आयो? " भाषा तो नहीं, किंतु समझ गये भाव हुई निःसृत मृदुवाणी... जी, मैं विद्याधर ब्रह्मचारी, आया हूँ दक्षिण से सदलगा कर्नाटक से... अभी तक था आचार्य देशभूषणजी के संघ में, यहाँ ज्ञानार्जन हेतु आया हूँ। ज्ञान के भंडार मुनि ज्ञानसागरजी की शरण में। पर वे अठे कोनी मदनगंज किशनगढ़ में हैं... सुनकर कजौड़ीमलजी से कहने लगे क्या आप कर सकते हैं मेरा मार्गदर्शन? शीघ्र ही मैं करना चाहता हूँ उनका दर्शन। हाथ पकड़ कजोड़ीमलजी रोकने लगे खायो-पीयो कोनी कठे चाल्यो चाल अंदर न्हाले-धोले पूजा कर ले । पाछे आय खा-पी के जाजे, किंतु पहले मैं गुरु-दर्शन चाहता हूँ। यूँ कजोड़ीमल ने जाणे कोनी या मुनियों से भक्त ही नहीं। मुनि भक्ता रो भी भक्त है। मैं थारे साणे चालसूँ दर्शन करा देहूँ आगे थारो भाग...। कजौड़ीमल ने देखा- अरे! यह तो मारवाड़ी अच्छे से समझता नहीं कन्नड़ भाषी है यह हिन्दी भी ठीक से आती नहीं, तब बोले मैं तुम्हें लेकर चलूंगा यदि उन्होंने शिष्य रूप में स्वीकार लिया तो तुम्हारा भाग्य खुल जायेगा। दैनिक चर्या से निवृत्त हो । पहुँच गये मदनगंज किशनगढ़ मंदिर के समीपवर्ती कक्ष में । विराजे हैं ‘मुनि ज्ञानसागरजी' ज्ञान संयम की आराधना में रत, अद्भुत मुखाकृति देख उनकी हृदय में हुआ अपूर्व स्पंदन, ज्यों ही कक्ष में प्रवेश किया त्रियोग से चरणों में किया वंदन। अनुरोध किया कजौड़ीमलजी ने यह युवक आया है सुदूर दक्षिण भारत से आपके पास ज्ञान पाने की आशा ले। ज्ञान से गहराती, डूबी-सी आँखों से देख भावी शिष्य से बोले सहज मीठी वाणी से ऐसे तो आते-जाते रहते हैं अनेक। सुनते ही अंधेरा छा गया... जो लक्ष्य लेकर आया था वह मात्र दिव्य सपना-सा रह गया, पुनः साहस जुटाकर बोले नम्रता से हे गुरूवर! मैं आपकी शरण में रहकर करना चाहता हूँ ज्ञानार्जन!! मैंने गृह त्याग कर ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। यदि नहीं मिला इन चरणों का सामीप्य, तो निरर्थक होगा यह जीवन। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ केवल आप ही की शरणागत हूँ। अनंत कृपा होगी मुझ पर दीजिए ज्ञान-संजीवन।' प्रश्न भरी दृष्टि से देख युवक को बोले नाम क्या है तुम्हारा...? जी विद्याधर। होठों पर मधुर हास्य लिए बोले क्या भरोसा विद्याधर का...? मायावी होते हैं विद्याधर, घूमते रहते इधर-उधर विद्या लेकर एक स्थान पर रुकना नियति नहीं उनकी ऐसे ही ज्ञान प्राप्त कर उड़ गये तो? सुनते ही तत्क्षण मस्तक रख चरणों में आश्वस्त करने ज्ञानी गुरू को बोले मैं उड़ने नहीं, स्थिर होने आया हूँ। सिर्फ पढ़ने नहीं, निज में रमने आया हैं। मेरी बात पर करियेगा विश्वास लो संकल्प लेता हूँ आज से ही आजीवन सवारी का त्याग जितना भी चलूंगा आपश्री की आज्ञा में चलूंगा चरणानुगामी बनूंगा...।' विस्मित हो विद्याधर पर दृष्टि गड़ाई आँखों में झाँककर मुखाकृति पढ़ ली... विलक्षण संकल्प शक्ति है!! ऐसे जीवों की निकट मुक्ति है। गुरु के मनोविनोद पर... महानतम त्याग का गुण गुरु के मन को भा गया, आगे मेरे संकेतानुसार बहुत कुछ कर सकता है। यह विश्वास हो गया; ‘ओम्' कहकर आश्वासन दे दिया शिष्य का शीश गुरुपद में झुक गया, हाथ रख दिया गुरु ने शीश पर... पद-रज ले गुरु की हो गये निहाल विद्याधर। स्वतः गुरू-मुख से निःसृत हुए तब वचन यदि ऐसी ही पिपासा रही ज्ञान की तो बन जाओगे शीघ्र विद्याधर से विद्यासागर।" सिर झुकाकर सर्वस्व अर्पण कर व्रती विद्याधर ने भी चेतन को विकल्पों से कर दिया निर्विकल्प। ज्यों हाथों में लिए थैली के भार को आते ही घर में टाँग देता बँटी पर त्यों शांत मन हो समर्पण कक्ष में जा प्रभु और गुरु-भक्ति की दो कीलों पर लटका कर सारा भार हो गये निश्चित निर्भार गुरू-शरण पा हुए आश्वस्त...।
  17. चातुर्मास स्थापना का समय आ गया संघ सकुशल स्तवनिधि पहुँच आया सभी त्यागी लीन हुए आराधना में, चप्पा-चप्पा यहाँ का व्रती विद्याधर का था जाना-पहचाना यहाँ की उत्तुंग चोटियाँ, प्राकृतिक सौन्दर्य से सुहावनी सघन वृक्षावलियाँ पर्याप्त व्याप्त हरियाली, शांत साधना की उपयुक्तता देखकर कभी मंदिर तो कभी नग पर हो जाते ध्यान मग्न वे। हृदय में था संतोष, किंतु मन में था संदेह ‘सदलगा' लगा ही हुआ है यहाँ से लोग आते प्रायः वहाँ से, अवरोधक होगी साधना निवेदन किया अतः मुनिवर से विहार कर चलें ‘यहाँ से? किंतु ग्रामवासियों की भावना से रुकना पड़ा वहीं। विद्याधरजी अपनी चर्या को संयम सूत्र में चाह रहे बाँधना। मुनि बनकर करूं साधना, किंतु आचार्यश्री चाह रहे कुछ और नम्र, निर्भय, निर्मल परिणामी बने भट्टारक पद का अनुगामी, गादी को सँभाल सकता है यह मुनिमार्ग से भिन्न पथ है जो परख कर ब्रह्मचारीजी को सौंप दी संघ की बागडोर, किंतु नहीं बनना चाहते थे ये भट्टारक पर गृह से दूर रहकर परिग्रह से परे आत्म उद्धारक होना चाहते थे जो। भव को बढ़ाने वाला वैभव कहाँ भाता उन्हें विभव होने स्वात्म वैभव पाना था जिन्हें?। हीरे की तमन्ना करने वाला भले ही चमकीला क्यों न हो काँच का टुकड़ा पसंद कैसे कर सकता? रत्नत्रय पाना है जिन्हें भले ही कीमती क्यों न हो। जड़ रत्न पसंद कैसे कर सकता? अकेले निजानंद पाना है जिन्हें भले ही सुविधा क्यों न हो। मोह के मेले में कैसे रह सकता...? पद और मद हैं सगे भ्राता नहीं इनमें किञ्चित् साता, प अर्थात् पवित्रता और द अर्थात् दलन जहाँ पवित्रता का करना पड़े दलन ऐसा पद नहीं पाना मुझे, परिजन-पुरजन आते रहते मोह की बातें करते रहते उन्हें तो लगता अच्छा, मगर मेरी आराधना में आ रही बाधा कुछ कह नहीं सकता उन्हें कहना भी व्यर्थ है सब; क्योंकि मोह का ताज पहने आत्मा मोहताज हो रहा शाश्वत सुख से वंचित हो रहा ताजे अर्थात् शुद्ध आत्मिक सुख से दूर रहा बासी अर्थात् इन्द्रिय सुख को वेद रहा, उसी में मस्त रहा अज्ञात्मा काश! यहाँ से दूर चल देते, किंतु यतिवर यहीं रहना चाहते तब निर्मोही युवा सोच में पड़ गये... दक्षिण छोड़ने पर छूटते गुरूवर। इनका महत् उपकार है मुझ पर, अतः शिवपथ के पथिक बनने के साथ आगम-अध्यात्म को करने आत्मसात् “संस्कृत व प्राकृत पढ़ना चाहता हूँ करबद्ध किया यह निवेदन हे गुरुवर! मैं चाहता हूँ आपका मार्गदर्शन...।” कहा आचार्यश्री ने लक्ष्य है उत्तम, किंतु इसके लिए है श्रेष्ठतम जो ज्ञान-साधना का संगम है अनुपम ऐसे युग के महान चारित्रचक्रवर्ती ‘शांतिसागराचार्य’ के शिष्य ‘वीरसागरजी’ उनके संघ में थे पण्डित ‘भूरामलजी' ‘शिवसागराचार्य’ से दीक्षा ली जिन्होंने हुए जैनदर्शन के उद्भट मनीषी ‘ज्ञानसागर जी’ संस्कृत-प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् कवि वे ही दे सकते हैं तुम्हें ज्ञान… यदि कर लें संघ में स्वीकार, तो भावना पूर्ण हो सकती है तुम्हारी ज्ञान की पिपासा बुझ सकती है तुम्हारी!! हाथ उठा आशीर्वाद की मुद्रा में बोले वत्स! कल्याण हो तुम्हारा हर पल पवित्र हो तुम्हारा, हर दिन दिव्यतम हो हर रात ऋषियों के चिंतनमय हो हर सप्ताह में साधना गहनतम हो हर पक्ष परमानंदमय हो हर माह तुम्हारा मंगलमय हो और वर्ष सारा वीतराग भाव मय हो...। दक्षिण से उत्तर की ओर प्रयाण करना है। ज्ञान के सागर को अब समर्पण करना है, इस भावना से ज्यों ही मुनि-दर्शन कर निकले संत-निवास के बाहर एक महिला सुहागिन जल से भरे घट ले जा रही अपने घर की ओर मन में आहारदान की मुख पर आनंद की लहर लिये...। शुभ शकुन हो गया... मन कहने लगा अवश्य मिलेगी सफलता संकेत से तय हो गया...। सर्वप्रथम पहुँचे मुम्बई अजमेर की गाड़ी अभी नहीं आई, प्रतीक्षालय में बैठ करते रहे प्रतीक्षा... ज्ञान की जिज्ञासा पावन होने की पिपासा आशा और प्रत्याशा लिए दे रहा उनका विवेक दिलासा। शहनाईयाँ गुरु-प्रतीक्षा के आलाप में बजती चली जा रही थीं, कैसे होंगे वे ज्ञानसिंधु? विचारों से मूरत गढ़ी जा रही थी। हुबहू वैसी ही मूरत बन आई। जो अप्रतिम व्यक्तित्व से भरी थी। कल्पना लोक में विचरण करते लगा कि मेरे अदृश्य गुरु में आकर्षण है, आसक्ति नहीं ममता है, पर मोह नहीं समता है, पर शोक नहीं प्रशस्त नेह है, पर गेह नहीं चिंतन है, पर चिंता नहीं । चित्त में निर्मलता है, मलिनता नहीं। भूरी देह-सी धवल कांति यहाँ तक प्रवाहित हो रही है, मेरे तन-मन को ही नहीं चेतन को प्रभावित कर रही है। इसी धुन में रेलगाड़ी आने का संकेत हुआ नैनों को राहत मिली मन में आहट-सी हुई, बैठ गाड़ी में खिड़की से झाँकते रहे... रास्ता बहुत लंबा है सोचते रहे... राह में अकेला भले ही हूँ पर असहाय नहीं मैं, मंज़िल से दूर भले ही हूँ पर वह मंज़िल है मुझ ही में। पथ लंबा होने पर भी पाथेय था ज्ञान पिपासा, न ही किञ्चित् निराशा न थी जग से आशा, किंतु देवदर्शन न होने से हो गये दो उपवास...।
  18. अस्वस्थ आचार्य श्री देशभूषणजी विहार कर चले जा रहे ‘स्तवनिधि’ राह में एक दिन शाम ढले विद्याधर जी थे खड़े कि उन्हें जहरीले बिच्छू ने मारा डंक पीड़ा से भर गया सारा अंग, वेदना थी भयंकर पर आह नहीं निकली बनना है मुझे मुनि यह सोच दर्द को सहना वचनों से न कहना सीख लिया। रात भर चटाई पर लेटे रहे। यद्यपि दर्द के कारण करवटें बदलते रहे। सारा संघ पड़ा चिंता में, किंतु देख उनकी सहनशीलता करने लगे मुक्त कंठ से प्रशंसा बीस वर्ष का युवा कितना है महान...!! ली उनसे सभी ने शिक्षा बनी प्रेरणा-स्रोत उनकी दृढ़ता...।
  19. तीन थे मंदिर नगर में किंतु एकांत स्थान वाले मंदिर में घंटों बैठ करते चिंतन... चले सत्ताईस किलोमीटर दूर... संत विनोबा का करने समागम महंतों से मिलने की उत्कंठा थी बहुत पर्वतों पर चढ़ने का शौक कभी 'स्तवनिधि' तो कभी ‘कुंभोज' एक-एक कर अनेकों स्मृतियाँ मानस में उभर आयी थीं, विद्या ही विद्या की छवि समाई थी। घर में सबसे पीछे का कक्ष उनका शांत वातावरण था जहाँ ‘अनंतनाथ' अंतहीन सुधियों में खोये दीवार पर लगे चित्र निहारते एक आचार्य श्री शांतिसागरजी का तो दूसरा पावापुरी का पैसे जोड़कर लाये थे पवित्र भावों की पावन हाथों की थी अनमोल सौगातें छोड़ गये थे देख-देख जीने के लिए इसी पथ पर बढ़ने के लिए। सुखद दिन सरपट गुजरते पता नहीं चलता वर्ष भी निमेष-सा लगता, किंतु इष्ट-वियोग का हर पल पल्य-सा लगता मुश्किलों से गुजरता। यद्यपि संभव है पानी का संचयन संभव है संपदा का संवर्धन संभव है सामग्री का संरक्षण, किंतु समय का न संग्रह न वर्धन, न ही रक्षण कुछ भी नहीं संभव, समय पर गुजरी घटना रह जाती है शेष स्मृति बन!
  20. योग्य संतान की कमी नहीं थी घर में बाईस वर्ष के महावीर नौ के अनंतनाथ सात वर्ष के सीधे से शांतिनाथ सत्रह वर्ष की शांता, पन्द्रह की सुवर्णा फिर भी अकेलापन था नितांत सब के सब करते बीते दिनों की याद, हाथ में लिये वह सुंदर-सी साड़ी छोटे-छोटे फूलों से भरी लाया था विद्या सांगली से, उसके गिनने लगी एक-एक फूल इससे भी अधिक हैं उसमें गुण कहकर रो पड़ी, साड़ी हृदय से लगा ली यत्र-तत्र बिखरी हैं यादें ही यादें उसकी धार्मिक फरियादें। खोली अलमारी तो मिली एक सुंदर-सी डायरी शास्त्र के विषय लिखे थे जो स्वाध्याय में पढ़े थे। समझाया था एक दिन शरीर और आत्मा है भिन्न-भिन्न... विद्याधर तो सो गये समझाकर शांतिनाथ लाये श्रीफल फोड़कर पूछा माँ ने- कर क्या रहे हो? शरीर अलग कर आत्मा देख रहा हूँ। भैया ने समझाया... वही समझ रहा हूँ।
  21. पहुँच गये आचार्य संघ था जहाँ देखी संघस्थ हर छवि कहाँ छिप गया बादलों में रवि? आस-पास सुदू...र तक... खोज ही रहे थे कि सामने आते दिख गये पिता को लगा भाव विभोर हो जायेगा गले से लग जायेगा, बदलकर अपना पथ सदलगा की ओर चल देगा। आँखों से आँखें मिल गईं मानो बुझे दीप को ज्योति मिल गई दोनों आँखें पसारे देखते रह गये पर बेटे की आँखें नीचे झुक गईं। दृश्य अदभुत था प्राणों से भरा जीवंत था, किंतु न जाने क्यों जो नितांत अपना था वह पराया हुआ जा रहा था, माँ का मन भर आया पिता का दुलार उमड़ आया मन कहने लगा तुम्हें बाहों में भर लूँ वक्षस्थल से लगा लूँ, किंतु दूसरे ही क्षण डूब गये विचारों में... बेटा! अब तुम हो गये विराट नन्हीं-सी है मेरी बाँह समा न पाऊँगा तुम्हें, मेरे वंश के अंश होकर भी अब बेटा कह न पाऊँगा तुम्हें। और बोल पड़े मल्लप्पाजी विद्या! प्यार से भरी शुद्ध तरंगें झंकृत कर गयीं सबको, पर बेटे ने कहा कुछ नहीं तभी विश्वास दिलाते हुए बोले पिताश्री गुरु महाराज से मैंने आज्ञा ले ली तुमसे बात करने की, गुरूवर ने तुम्हें बोलने की आज्ञा दे दी। सुनकर अविचलित मन से संयमित वचन से पूछने लगे- पावन तीर्थ पर कब पधारे? सुनते ही आवाज़ दंपत्ति के नेत्र छलक आये; रूँध गया स्वर काँपने लगे अधर बहुत समय बाद सुनने मिले बोल, अपनेपन से पकड़ हाथ बोले पिता वत्स! कब चलोगे सदलगा? सुनकर लगा कि... माँ भी कुछ कहने वाली है: अपना मोह उँडेलने वाली है। विषय को बदल कर तभी ज्ञान-तरंग ने कहा धीरे से विद्या के मन में कि “पराये जैसा व्यवहार किसी से करना नहीं है और किसी को अपना समझना नहीं है तब बोले गंभीरता से आचार्य महाराज से आज बहुत कुछ मिलेगा! देर नहीं करिये, शीघ्र चलियेगा... चलते-चलते बोली माँ कितने दिनों बाद मिला बेटा आगे कुछ कहे इससे पूर्व कह दी सारभूत वार्ता “है क्या यह कम जो इसी भव में पुनः मिल गये हम!! तीव्र कर्मों के बीच रहते हुए भी सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का हुआ समागम क्या महा सौभाग्यशाली नहीं हम?” समझ गये मल्लप्पा बात को घुमा रहा है बेटा... मैं सदलगा के घर की बात कर रहा हूँ यह निजगृह की बात कर रहा है, देखकर नयन तो हुए तृप्त, किन्तु हृदय प्यासा है आये थे जिस आशा से अब निराशा ही निराशा है जो पास था वह दूर हो गया, जो सपना था वह चूर हो गया। कभी 'बाहुबली' की जयघोष सुनते तो कभी प्रतिमा को निहारते कभी मुनियों की वंदना करते पर मन से विद्या ही विद्या को देखते। सब कुछ लुटा-सा लगा खोया-खोया सा मन ले आ गये सदलगा।
  22. इतिहास के पृष्ठों पर किया है लिपिबद्ध कि हजार वर्ष पूर्व गंग वंशीय नरेश के यशस्वी सेनापति चामुंडराय ने कराया इस मूर्ति का निर्माण दुनिया का आठवाँ आश्चर्य जिन संस्कृति का गौरव कामदेव बाहुबली का अनुपम सौन्दर्य!! “सत्तावन फुट” ऊँची प्रतिमा श्रमणों की गौरव-गरिमा दर्शाने वाली गाने को इनकी महिमा बारह वर्ष में होना है ‘महामस्तकाभिषेक’ दूर-दूर से आयेंगे लाखों श्रावक, श्रमण-संघ अनेक। आचार्य संघ का जाना हो गया तय सुनकर यह निर्णय मन कहने लगा “व्रत मिला यह महत्त्वपूर्ण है, किंतु संपूर्ण नहीं है” जब तक न बनूँ मैं महाव्रती सकलसंयमी यति तब तक लक्ष्य अधूरा है चाहे आएँ कितनी ही बाधाएँ करना इसे पूरा है। संघ में कुछ वृद्ध साधु थे कुछ रुग्ण साधु सबका रखते ध्यान सेवा करते सबके चहेते सभी जनों से मिलकर रहते। कुछ ही महीनों में विहार करते आ पहुँचे ‘श्रवणबेलगोला' की पावन तीर्थधरा पर, जहाँ देखो वहाँ भक्त ही भक्त देश तो देश, विदेशों से भी आये हैं अनेकों श्रद्धालु श्रावक, धर्मानुरक्त सबकी आँखें प्रभु का मस्तकाभिषेक देखने को लालायित हैं, धाराएँ जो बहकर ऊपर से नीचे तक आयेंगी... दर्शक भक्तों की कलुषित कर्मधारा को बहाकर ले जायेगी। सुखद दृश्य हृदय में समेटने प्रतीक्षा में विद्याधर जी का मन आह्लादित है, भक्ति की हिलोरें लेता हृदय प्रफुल्लित है! आते ही यहाँ बाल्यकाल की स्मृतियाँ सजीव हो उठी हैं! गोम्मटेश प्रभु का स्मरण करते ही मन की कली-कली खिल गयी है नयनों से अपलक निहारते ही तन को शांति मिल गयी है गुणानुवादन करते ही वचनों में मिश्री-सी घुल गयी है! आत्मसाधना के चरमोत्कर्ष प्रभु को लख श्रमण होने को मन उतावला है गंतव्य तक कैसे पहुँचूँ? कुछ समझ नहीं आ रहा है... तभी तीन श्रीफल ले हाथ में प्रभु चरणों में चढ़ाते हैं भाव से… नहीं चाहिए जड़धन, वैभव-संपदा पद, परिवार, प्रतिष्ठा मोह बढ़ाते देव, शास्त्र और गुरु समागम मोह घटाते सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये मोह नशाते रत्नत्रय की नैया से ही भवसिंधु तर जाते हे प्रभो! तारण-तरण शाश्वत शरण बनूँ सच्चा श्रमण, करूँ सम्यक् मरण। भावना करके ज्यों ही नयन खोले आचार्य महाराज सस्मित बोले “शुभ है आज का दिवस दीक्षा तो नहीं किंतु अभी ले लो सप्तम प्रतिमा का व्रत।” सुनते ही गुरू-आज्ञा कर स्वीकार पढ़ लिया नौ बार ‘णमोकार’ नहीं किया एक और आग्रह; क्योंकि ‘हठाग्रही’ होता है पर पदार्थों की आसक्ति से ‘कदाग्रही’ होता है दुर्विचारों की आसक्ति से और ‘पूर्वाग्रही’ होता है विकारों की आसक्ति से। सो कहा जो गुरू ने वह मान लिया जो जितना दिया गुरु ने अहोभाव से ले लिया, गंतव्य का एक और चढ़ गये सोपान हर्ष भाव से गुरू-आज्ञा को मान लक्ष्य को तक रहे थे, इधर सदलगा से आया परिवार लाखों लोगों की भीड़ में अपने वंश के अंश को हृदय-सरवर के हंस को नयन ढूंढ रहे थे। दूर पर्वत से कभी स्वर गूंजते से लगते तो कभी तलहटी से पुकारते से माँ... माँ ... माँ ... मैं विद्या मैं यहाँ हूँ माँ... आपका गिनी, पीलू, तोता... देखो! इधर देखो माँ! मगर कानों तक आकर आवाज़ गुम हो जाती... बार-बार श्रीमंती भ्रम में खो जाती... आँखें दुखने लगीं तेज चलती धड़कनें ‘विद्या! विद्या!’ पुकारने लगीं प्रतीक्षा अब नहीं हो पायेगी, लेकिन तुम्हें देखे बिना ये आँखें भी नहीं सो पायेगी। माँ के मिलन की आतुरता लख ज्ञानधारा की उठती लहर की बोली एक बूंद “आत्मज्ञान में लोक समाया है फिर एकाकीपन की वेदना क्यों? मति में स्मृति समायी है फिर अवलोकन की आकुलता क्यों?
  23. दिन विद्या की सुधियों में बीतता तो रात सपनों में विरह वेदना से व्याकुल है मन श्रीमंति का बुलाने लगा आँगन वह बावड़ी का पानी तो कभी गुफा अंधियारी खेत-खलिहान के पंछी पुकारने लगे... मंदिर की घंटियाँ शास्त्र-स्वाध्याय के श्रोता गण बाट जोहने लगे… सूने हो गये मेले अब कौन आयेगा तस्वीर खरीदने? मित्र जिनगौड़ा और पुंडलीक हो गये अमनस्क से... पूछा था पुंडलीक ने विद्या से क्या करोगे बड़े होकर? बोले- जिसमें न हो जीव हिंसा झूठ, चोरी और छलावा भला ऐसा कौन-सा है कार्य? पूछने पर बोले समय आने पर ज्ञात हो जायेगा अभी कहने से काम बिगड़ जायेगा, सुनते ही बोला था तपाक से हँसते-हँसते पुंडलीक रहेगा इतना दयालु तू! तो नंगा रहेगा सदा तू!! मित्र होने के नाते बोल गया हास्य में शब्द दो... मगर वो जानता कहाँ था कि यह अभिशाप भी बन जायेगा वरदान हो जायेगा नग्न सम्राट संतों का सरताज!! आज समझ में आया उसकी बातों का राज़... खेत जाने से कतराता था नौकर द्वारा पौधों पर दवा छिड़कने पर मन इसका रो पड़ता था... रहस्य इसका अब खुल गया है खान में हीरा पड़ा था अब दिख गया है।
  24. उसी रात एक घटना घटी भयंकर जहाँ विराजे हैं आचार्य श्री देशभूषणजी यतिवर वहीं सब भागे जा रहे हैं विद्याधर भी आगे-आगे जा रहे हैं जाते ही निकट सुनी कराह बिच्छू ने काट लिया था ज़हर चढ़ता जा रहा था। आचार्यश्री का मन यद्यपि दृढ़ था, किंतु देह काँप रहा था शिष्य-मंडली द्वारा उपचार चल रहा था कुछ औषधि जो आवश्यक थी, किंतु वह पहाड़ी पर नहीं तलहटी पर थी, सब ताक रहे एक-दूसरे की ओर तत्क्षण दौड़ पड़े ये नीचे की ओर… ऊँची-नीची राह घटाटोप अंधकार वृक्षों की परछाई कानों को बहरा कर देने वाले हवा के हहराते स्वर... नहीं कर पाये भयभीत उन्हें अगला कदम रखने ही वाले थे कि देखा भयंकर काला नाग बैठा फन फैलाये पगडंडी पे भयभीत हुए बिना विवेक खोये बिना गुरू के प्रति भक्ति, श्रद्धा, समर्पण ने बना दिया उन्हें निर्भय!! शीघ्र ही औषध लाना अनिवार्य है यह कार्य पढ़कर णमोकार बदलकर पथ पकड़ ली दूसरी पगडंडी विद्याधर ने, लौटे दवा लेकर तो भूल गये सर्प दौड़ते हुए गये पहुँचे यतिवर के समक्ष… लिखते-लिखते लेखनी भी कथानायक के बारे में लिखने योग्य कुछ लिख गयी ‘उत्तम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं औरों को सुखी करके ‘मध्यम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं औरों को सुखी देख करके ‘अधम’ है, वे जो प्रसन्न होते हैं औरों को दुखी देख करके ‘अधमाधम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं औरों को दुखी करके। “उत्तम पात्र हैं विद्याधर जो गुरु के लिए जीते हैं गुरु रक्षा हित प्राण त्यागने को भी तत्पर रहते हैं।” ज्यों सर्प आकर्षित होता है बीन से, ज्यों अलि आकर्षित होता है सुमन से, ज्यों चातक आकर्षित होता है स्वाति नक्षत्र से, ज्यों पतंगा आकर्षित होता है दीपक से, ज्यों लोहा आकर्षित होता है चुंबक से, ज्यों कोकिला आकर्षित होती है आम्रमंजरी से, ज्यों मयूरी आकर्षित होती है जल भरी बदली से, त्यों विद्याधर आकर्षित थे आनंदित थे गुरुवर की सेवा से। भक्ति के पुट से भरी औषधि लेप करते ही मुनि श्री की पीड़ा शांत हो गई, जब गुरु को सर्प की बात ज्ञात हुई तब उनकी कर्मठता, निर्भयता नैतिकता और सरलता से प्रभावित हो संघ समूचा करने लगा भूरि-भूरि प्रशंसा "काश! हर युवक हो ऐसा!!
  25. मंदिर से आते हुए देखी छात्रों की रैली छब्बीस जनवरी है आज... देखकर छात्रों की देश-भक्ति भक्ति की लहर उठी इनके भी मानस में... चल रहे जो सीना तानकर एक-सी पोशाकों में सिर ऊँचा कर उस पल युवा मन में लगा कि मैं भी रैली में शामिल हो जाऊँ, पर दूसरे ही क्षण कहने लगा मन आखिर मैं क्यों इनके साथ जाऊँ। इन्हें है केवल एक देश की भक्ति मुझमें है असंख्य आत्मप्रदेशों की भक्ति! अनंत सिद्धों की भक्ति, जिससे बाह्य में भी होती है अनेक जीवों की रक्षा, फिर वह पशु हो या मानव देव हो या दानव सभी के प्रति रहती आत्म-भावना, विश्व का हर जीव रहे सुखी कोई न रहे किञ्चित् भी दुखी यही तो कहती जिनवाणी... इस तरह विचारते बारी-बारी से हर छात्र को निहारते आ गये संत भवन।
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