इतिहास के पृष्ठों पर किया है लिपिबद्ध
कि
हजार वर्ष पूर्व गंग वंशीय नरेश के
यशस्वी सेनापति चामुंडराय ने
कराया इस मूर्ति का निर्माण
दुनिया का आठवाँ आश्चर्य
जिन संस्कृति का गौरव
कामदेव बाहुबली का अनुपम सौन्दर्य!!
“सत्तावन फुट” ऊँची प्रतिमा
श्रमणों की गौरव-गरिमा दर्शाने वाली
गाने को इनकी महिमा
बारह वर्ष में होना है ‘महामस्तकाभिषेक’
दूर-दूर से आयेंगे
लाखों श्रावक, श्रमण-संघ अनेक।
आचार्य संघ का जाना हो गया तय
सुनकर यह निर्णय मन कहने लगा
“व्रत मिला यह महत्त्वपूर्ण है,
किंतु संपूर्ण नहीं है”
जब तक न बनूँ मैं महाव्रती
सकलसंयमी यति
तब तक लक्ष्य अधूरा है
चाहे आएँ कितनी ही बाधाएँ
करना इसे पूरा है।
संघ में कुछ वृद्ध साधु
थे कुछ रुग्ण साधु
सबका रखते ध्यान
सेवा करते सबके चहेते
सभी जनों से मिलकर रहते।
कुछ ही महीनों में
विहार करते आ पहुँचे
‘श्रवणबेलगोला' की पावन तीर्थधरा पर,
जहाँ देखो वहाँ भक्त ही भक्त
देश तो देश, विदेशों से भी आये हैं
अनेकों श्रद्धालु श्रावक, धर्मानुरक्त
सबकी आँखें प्रभु का मस्तकाभिषेक
देखने को लालायित हैं,
धाराएँ जो बहकर ऊपर से नीचे तक आयेंगी...
दर्शक भक्तों की
कलुषित कर्मधारा को
बहाकर ले जायेगी।
सुखद दृश्य हृदय में समेटने
प्रतीक्षा में विद्याधर जी का
मन आह्लादित है,
भक्ति की हिलोरें लेता
हृदय प्रफुल्लित है!
आते ही यहाँ
बाल्यकाल की स्मृतियाँ
सजीव हो उठी हैं!
गोम्मटेश प्रभु का स्मरण करते ही
मन की कली-कली खिल गयी है
नयनों से अपलक निहारते ही
तन को शांति मिल गयी है
गुणानुवादन करते ही
वचनों में मिश्री-सी घुल गयी है!
आत्मसाधना के चरमोत्कर्ष प्रभु को लख
श्रमण होने को मन उतावला है
गंतव्य तक कैसे पहुँचूँ?
कुछ समझ नहीं आ रहा है...
तभी तीन श्रीफल ले हाथ में
प्रभु चरणों में चढ़ाते हैं भाव से…
नहीं चाहिए जड़धन, वैभव-संपदा
पद, परिवार, प्रतिष्ठा मोह बढ़ाते
देव, शास्त्र और गुरु समागम मोह घटाते
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये मोह नशाते
रत्नत्रय की नैया से ही भवसिंधु तर जाते
हे प्रभो! तारण-तरण शाश्वत शरण
बनूँ सच्चा श्रमण, करूँ सम्यक् मरण।
भावना करके ज्यों ही नयन खोले
आचार्य महाराज सस्मित बोले
“शुभ है आज का दिवस
दीक्षा तो नहीं किंतु
अभी ले लो सप्तम प्रतिमा का व्रत।”
सुनते ही गुरू-आज्ञा कर स्वीकार
पढ़ लिया नौ बार ‘णमोकार’
नहीं किया एक और आग्रह;
क्योंकि
‘हठाग्रही’ होता है
पर पदार्थों की आसक्ति से
‘कदाग्रही’ होता है
दुर्विचारों की आसक्ति से
और ‘पूर्वाग्रही’ होता है
विकारों की आसक्ति से।
सो
कहा जो गुरू ने
वह मान लिया
जो जितना दिया गुरु ने
अहोभाव से ले लिया,
गंतव्य का एक और चढ़ गये सोपान
हर्ष भाव से गुरू-आज्ञा को मान
लक्ष्य को तक रहे थे,
इधर सदलगा से आया परिवार
लाखों लोगों की भीड़ में
अपने वंश के अंश को
हृदय-सरवर के हंस को
नयन ढूंढ रहे थे।
दूर पर्वत से कभी स्वर गूंजते से लगते
तो कभी तलहटी से पुकारते से
माँ... माँ ... माँ ... मैं विद्या
मैं यहाँ हूँ माँ...
आपका गिनी, पीलू, तोता...
देखो! इधर देखो माँ!
मगर कानों तक आकर आवाज़
गुम हो जाती...
बार-बार श्रीमंती
भ्रम में खो जाती...
आँखें दुखने लगीं
तेज चलती धड़कनें
‘विद्या! विद्या!’ पुकारने लगीं
प्रतीक्षा अब नहीं हो पायेगी,
लेकिन तुम्हें देखे बिना
ये आँखें भी नहीं सो पायेगी।
माँ के मिलन की आतुरता लख
ज्ञानधारा की उठती लहर की
बोली एक बूंद
“आत्मज्ञान में लोक समाया है
फिर एकाकीपन की वेदना क्यों?
मति में स्मृति समायी है
फिर अवलोकन की आकुलता क्यों?