Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 60

       (0 reviews)

    अजमेर की नसिया में

    चल रहा चातुर्मास,

    नित्य प्रवचन में आते अनेकों श्रोतागण

    जब आया पर्व दशलक्षण

    बिना शास्त्र खोले, कंठस्थ

    मोक्षशास्त्र का किया शुद्ध वाचन

    गुरू हुए प्रसन्न

     

    श्रोता हुए चकित, विद्याधर थे सहज ।

    अभी बहुत सीखना है शेष...

    चारित्र को पाना है विशेष।

     

    व्रती विद्याधर की ज्ञान-गरिमा में

    लगे चार चाँद,

    किंतु मन को छू न पाया

    ज्ञान का मान।

     

    गुरु की वृद्धावस्था

    साथ ही रोग था 'सायटिका'

    गर्मी का था मौसम

    हवा में वर्जित था शयन

    अतः बंद कक्ष में करते शयन

    विद्याधर भी रहते वहीं गुरु के संग

    दर्द होने पर बार-बार दबाते ।

    खुली हवा में सोने को कहते,

    किंतु गुरु के सोने पर वे वहीं सो जाते

    सेवा में त्रियोग से तत्पर

    गुरू का हृदय से रहता आशीष उन पर...।

    पूछा कजौड़ीमल से एक दिन

    विद्या रात में पढ़ता है या

    सोता रहता है?

    बोले वह

    लगता तो है पढ़ता ही होगा

    लेकिन ध्यान नहीं दिया।

    अब से ध्यान दूँगा,

    संत-निवास में ही रहकर

    देर रात में उठकर...

     

    जब देखा तब पढ़ रहा था

    ज्यों ही देखा घड़ी की ओर

    पूरा एक बज रहा था...।

    उठकर आये पास में

    बोले बड़े प्यार से

    ब्रह्मचारी जी! बंद करो पढ़ाई

    अभी कोई परीक्षा नहीं आई

    देर तक जगना अच्छा नहीं,

    बात उनकी मान

    शीघ्र समेटे शास्त्र

    सो गये बिछाकर चटाई।

     

    प्रभात में बैठे ही थे दर्शन करके

    पूछा मुनिवर ने

    कुछ पढ़ता है रात में?

    बोले गुरूभक्त कजोड़ीमल

    एक बात समझ नहीं आई

    हीरा भी लाकर दूँ

    और परख भी मैं ही करूं।'

     

    महाराज!

    आपका शिष्य है होनहार...

    बड़ी लगन है उसमें;

    रात्रि आठ से एक बजे तक पढ़कर,

    प्रातः साढ़े चार बजे उठकर

    सामायिक पाठ आदि करता है।

    सुनकर प्रशंसा शिष्य की

    गुरु आनंद से भर गये।

    स्वयं मन ही मन कहने लगे

     

    पहले क्यों नहीं आ गये!

    क्यों इतनी देर कर गये!!

     

    नित-प्रतिदिन नया विषय

    ज्ञान के खजाने से निकल रहा था

    लगन के साथ पढ़ते हुए

    विद्या का विकास हो रहा था...।

     

    सच ही कहा है

    ‘‘विद्या योगेन रक्ष्यते

    विद्या की रक्षा होती है अभ्यास से

    इसीलिए विद्यार्जन कर रहे पूर्ण लगन से।

     

    दो माह बीत गये

    पढ़ाने लगे अब आठ घंटे,

    चाहते थे संपूर्ण ज्ञानामृत

    शिष्य के हृदय में भर देना

    वह भी अपना चित्त-कटोरा

    करके रखते सदा सीधा

    गुरू-बादल से नीर बरसता

    मन-सीपी खुली रहती

    हर बूंद मोती बन जाती।

     

    इस तरह रात-दिन

    चिंतन-मनन-पठन चल रहा था,

    जो भी देते गुरू ज्ञान उसे करते उसी दिन याद

    छोड़ते नहीं कल पर

    क्योंकि वे जानते थे

     

    ‘कल कामने

    इच्छा के अर्थ में है कल् धातु

    जब तक रहेगी कल की कामना

     

    कल-कल करता रहेगा,

    पल-पल आकुल-व्याकुल होता रहेगा

    इसीलिए कल के लिए होना नहीं है विकल

    अकल से काम लेना है।

    नकल करना है

    अब निकल परमातम की।

     

    हे आत्मन्!

    कल का भरोसा नहीं

    आज का कार्य आज ही करना है,

    यों समझाते स्वयं को

    बढ़ते जाते आगे-आगे...।

     

    मानो मिल गया

    भूले को मार्ग

    प्यासे को समंदर

    भूखे को मिष्ठान्न

    अंधे को नयन।

    पाया जबसे गुरू-ज्ञान का भंडार

    मिल गया जीवन का आधार

    लगने लगा अब उन्हें...

    साँसों की सरगम में महागान गुरूवर हैं,

    हृदय-देश के शासक संविधान गुरूवर हैं,

    अज्ञान तमहारक अवधान गुरूवर हैं।

    मेरी हर समस्या का समाधान गुरूवर है...।

     

    गुरूपद में

    सर्वस्व अर्पण कर

    वरद हस्त प्राप्त कर

    चिंतन-मनन में

     

    ध्यान-अध्ययन में,

    भूल गये बाहर की दुनिया

    आहारोपरांत गुरू के ।

    जो भी आते श्रावक बुलाने सिर झुकाये मौन से ।

    चले जाते साथ उनके भोजन करने।

     

    बचपन से ही नहीं थी भोजन में गृद्धता

    खा लेते जो भी माँ के हाथ से मिलता,

    भोजन के प्रति निस्पृहता, सात्विकता

    देखकर गुरु ने एक दिन पूछा

    ठीक चल रही है साधना?

    कहकर- ‘हाँ ।

    फिर हो गये मौन...।

     

    भोजन के बाद

    मन को थकाने वाले न करें कार्य,

    रखे मन प्रसन्न और शांत

    कर सके ताकि उत्साह से सामायिक,

    तब बनेगी एकाग्रता ।

    यही साधना लायेगी ज्ञान में निखार

    सुनकर यों गुरु-वचन हितकार।

    उपयोग का उपयोग करना ही

    समय का सदुपयोग करना है,

    भोगों में उपयोग का भ्रमना ही

    समय का दुरूपयोग करना है,

    जानकर यूं स्वयं को साधना में डुबाने लगे।

     

    शब्द में छिपे छंद को मुक्त कर

    सुप्त संगीत को जगाकर

     

    वीणा बजाता है वादक।

    और इधर

    देह में सोये ब्रह्म को पुकार कर

    ज्ञानचक्षु से निहारकर

    विद्याधर हुए अद्भुत कलाविद्,

    आत्मज्ञायक,

    यह सब ज्ञानी गुरू का ही है चमत्कार

    अन्यथा कैसे मिल पाता।

    अल्प समय में ज्ञान का महान उपहार??

     

    इस देश को चलाने चाहिए राष्ट्राधीश ।

    अदालत को चलाने चाहिए न्यायाधीश

    विद्यालय में चाहिए अध्यापक

    मंच पर चाहिए संचालक

    और मुझे भी चाहिए पल-पल गुरू ज्ञानसागर,

    जो पामर को बनाते हैं परम

    ब्रह्म से मिला देते हैं मिटाकर भरम

    अहं को विसर्जित कर बना देते हैं अर्हं।

     

    ऐसे गुरु लाखों में हैं एक,

    जैसे पुत्र का पिता होता है एक

    सती का पति होता है एक

    गुलाम का मालिक होता है एक,

    यूँ मन ही मन गुरु-गुण गाते रहे

    आनंद-सर में गोते लगाते रहे…

     

    ‘जैसा संग वैसा रंग

    इस उक्ति को चरितार्थ करते रहे।

    छाता खोल लोग बारिश से बचते रहे,

    मगर ये गुरु-वचनामृत से भीगते रहे

     

    शीत में लोग देह को ढंकते रहे,

    मगर ये गुरू-कृपा की शीतलता अनुभवते रहे

    गर्मी में लोग तप्त उर्मियों से व्याकुल होते रहे।

    कृत्रिम हवा खाते रहे,

    मगर ये दिन-रात ज्ञानाचरण में तपते रहे।

     

    यूँ पता ही न चला

    पलक झपकते ही वर्ष बीत गया,

    दक्षिण का विद्या उत्तर में जा ज्ञान में खो गया।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...