अस्वस्थ आचार्य श्री देशभूषणजी
विहार कर चले जा रहे ‘स्तवनिधि’
राह में एक दिन शाम ढले
विद्याधर जी थे खड़े
कि उन्हें जहरीले बिच्छू ने मारा डंक
पीड़ा से भर गया सारा अंग,
वेदना थी भयंकर पर आह नहीं निकली
बनना है मुझे मुनि यह सोच
दर्द को सहना
वचनों से न कहना
सीख लिया।
रात भर चटाई पर लेटे रहे।
यद्यपि दर्द के कारण करवटें बदलते रहे।
सारा संघ पड़ा चिंता में,
किंतु देख उनकी सहनशीलता
करने लगे मुक्त कंठ से प्रशंसा
बीस वर्ष का युवा
कितना है महान...!!
ली उनसे सभी ने शिक्षा
बनी प्रेरणा-स्रोत उनकी दृढ़ता...।