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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 57

       (0 reviews)

    चातुर्मास स्थापना का समय आ गया

    संघ सकुशल स्तवनिधि पहुँच आया

    सभी त्यागी लीन हुए आराधना में,

    चप्पा-चप्पा यहाँ का  

    व्रती विद्याधर का था जाना-पहचाना

    यहाँ की उत्तुंग चोटियाँ,

    प्राकृतिक सौन्दर्य से सुहावनी

    सघन वृक्षावलियाँ

    पर्याप्त व्याप्त हरियाली,

    शांत साधना की उपयुक्तता देखकर

    कभी मंदिर तो कभी नग पर

    हो जाते ध्यान मग्न वे।

     

    हृदय में था संतोष,

    किंतु मन में था संदेह

    ‘सदलगा' लगा ही हुआ है यहाँ से

    लोग आते प्रायः वहाँ से,

    अवरोधक होगी साधना

    निवेदन किया अतः मुनिवर से

    विहार कर चलें ‘यहाँ से?

    किंतु ग्रामवासियों की भावना से

    रुकना पड़ा वहीं।

     

    विद्याधरजी अपनी चर्या को

    संयम सूत्र में चाह रहे बाँधना।

    मुनि बनकर करूं साधना,

    किंतु आचार्यश्री चाह रहे कुछ और

    नम्र, निर्भय, निर्मल परिणामी

    बने भट्टारक पद का अनुगामी,

    गादी को सँभाल सकता है यह

    मुनिमार्ग से भिन्न पथ है जो

    परख कर ब्रह्मचारीजी को

    सौंप दी संघ की बागडोर,

    किंतु नहीं बनना चाहते थे ये भट्टारक

    पर गृह से दूर रहकर

    परिग्रह से परे आत्म उद्धारक

    होना चाहते थे जो।

     

    भव को बढ़ाने वाला वैभव कहाँ भाता उन्हें

    विभव होने स्वात्म वैभव पाना था जिन्हें?।

    हीरे की तमन्ना करने वाला

    भले ही चमकीला क्यों न हो

     

    काँच का टुकड़ा पसंद कैसे कर सकता?

    रत्नत्रय पाना है जिन्हें

    भले ही कीमती क्यों न हो।

    जड़ रत्न पसंद कैसे कर सकता?

    अकेले निजानंद पाना है जिन्हें

    भले ही सुविधा क्यों न हो।

    मोह के मेले में कैसे रह सकता...?

     

    पद और मद हैं सगे भ्राता

    नहीं इनमें किञ्चित् साता,

    प अर्थात् पवित्रता

    और द अर्थात् दलन

    जहाँ पवित्रता का करना पड़े दलन

    ऐसा पद नहीं पाना मुझे,

    परिजन-पुरजन आते रहते

    मोह की बातें करते रहते

    उन्हें तो लगता अच्छा,

    मगर मेरी आराधना में आ रही बाधा

    कुछ कह नहीं सकता उन्हें

    कहना भी व्यर्थ है सब;

     

    क्योंकि मोह का ताज पहने आत्मा

    मोहताज हो रहा

    शाश्वत सुख से वंचित हो रहा

    ताजे अर्थात् शुद्ध आत्मिक सुख से दूर रहा

    बासी अर्थात् इन्द्रिय सुख को वेद रहा,

    उसी में मस्त रहा अज्ञात्मा

    काश! यहाँ से दूर चल देते,

    किंतु यतिवर यहीं रहना चाहते

     

    तब निर्मोही युवा सोच में पड़ गये...

    दक्षिण छोड़ने पर छूटते गुरूवर।

    इनका महत् उपकार है मुझ पर,

    अतः शिवपथ के पथिक बनने के साथ

    आगम-अध्यात्म को करने आत्मसात्

    “संस्कृत व प्राकृत

    पढ़ना चाहता हूँ

    करबद्ध किया यह निवेदन

    हे गुरुवर!

    मैं चाहता हूँ आपका मार्गदर्शन...।”

     

    कहा आचार्यश्री ने

    लक्ष्य है उत्तम,

    किंतु इसके लिए है श्रेष्ठतम

    जो ज्ञान-साधना का

    संगम है अनुपम

    ऐसे

    युग के महान चारित्रचक्रवर्ती

    ‘शांतिसागराचार्य’ के शिष्य ‘वीरसागरजी’

    उनके संघ में थे पण्डित ‘भूरामलजी'

    ‘शिवसागराचार्य’ से दीक्षा ली जिन्होंने

    हुए जैनदर्शन के उद्भट मनीषी ‘ज्ञानसागर जी’

    संस्कृत-प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् कवि

    वे ही दे सकते हैं तुम्हें ज्ञान…

     

    यदि कर लें संघ में स्वीकार,

    तो भावना पूर्ण हो सकती है तुम्हारी

    ज्ञान की पिपासा

    बुझ सकती है तुम्हारी!!

     

    हाथ उठा आशीर्वाद की मुद्रा में बोले

    वत्स!

    कल्याण हो तुम्हारा

    हर पल पवित्र हो तुम्हारा,

    हर दिन दिव्यतम हो  

    हर रात ऋषियों के चिंतनमय हो

    हर सप्ताह में साधना गहनतम हो

    हर पक्ष परमानंदमय हो

    हर माह तुम्हारा मंगलमय हो

    और वर्ष सारा वीतराग भाव मय हो...।

     

    दक्षिण से उत्तर की ओर

    प्रयाण करना है।

    ज्ञान के सागर को

    अब समर्पण करना है,

     

    इस भावना से

    ज्यों ही मुनि-दर्शन कर निकले

    संत-निवास के बाहर

    एक महिला सुहागिन

    जल से भरे घट

    ले जा रही अपने घर की ओर

    मन में आहारदान की

    मुख पर आनंद की लहर लिये...।

     

    शुभ शकुन हो गया...

    मन कहने लगा

    अवश्य मिलेगी सफलता

    संकेत से तय हो गया...।

    सर्वप्रथम पहुँचे मुम्बई

     

    अजमेर की गाड़ी अभी नहीं आई,

    प्रतीक्षालय में बैठ करते रहे प्रतीक्षा...

    ज्ञान की जिज्ञासा

    पावन होने की पिपासा

    आशा और प्रत्याशा लिए

    दे रहा उनका विवेक दिलासा।

     

    शहनाईयाँ गुरु-प्रतीक्षा के आलाप में

    बजती चली जा रही थीं,

    कैसे होंगे वे ज्ञानसिंधु?

    विचारों से मूरत गढ़ी जा रही थी।

    हुबहू वैसी ही मूरत बन आई।

    जो अप्रतिम व्यक्तित्व से भरी थी।

     

    कल्पना लोक में विचरण करते

    लगा कि

    मेरे अदृश्य गुरु में आकर्षण है, आसक्ति नहीं

    ममता है, पर मोह नहीं

    समता है, पर शोक नहीं

    प्रशस्त नेह है, पर गेह नहीं

    चिंतन है, पर चिंता नहीं ।

    चित्त में निर्मलता है, मलिनता नहीं।

    भूरी देह-सी धवल

    कांति यहाँ तक प्रवाहित हो रही है,

    मेरे तन-मन को ही नहीं

    चेतन को प्रभावित कर रही है।

     

    इसी धुन में रेलगाड़ी आने का संकेत हुआ

    नैनों को राहत मिली

    मन में आहट-सी हुई,

     

    बैठ गाड़ी में खिड़की से झाँकते रहे...

    रास्ता बहुत लंबा है सोचते रहे...

    राह में अकेला भले ही हूँ

    पर असहाय नहीं मैं,

    मंज़िल से दूर भले ही हूँ

    पर वह मंज़िल है मुझ ही में।

     

    पथ लंबा होने पर भी

    पाथेय था ज्ञान पिपासा,

    न ही किञ्चित् निराशा

    न थी जग से आशा,

    किंतु देवदर्शन न होने से

    हो गये दो उपवास...।


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