देख गुरु-शिष्य को एक-सा एकसाथ
प्रकृति पुलकित हो आयी
बीज वपन से जो
अंकुर उग आये थे
वही चारित्र रूपी पौध बनकर लहलहायी
ज्ञानधारा ने अपनी गति बढ़ाई,
कहीं हो न जाये दृश्य यह ओझल
देखती गई दृश्य...
और लिखती गई ज्ञान कलम से
जन-जन के हृदय-पृष्ठ पर
विद्या से विद्यासिंधु की
सच्ची कहानी
मोक्ष तत्त्व के रसिकों को
दे गई अपूर्व निशानी।
दीक्षादिवस यह
श्रमण संस्कृति के इतिहास में
अमर हो गया।
जो कल तक थी एक लहर
वह आज रत्नों से भरा
समंदर हो गया,
इस तरह
अंतर्जगत् की यात्रा का
यह सुखद तृतीय चरण हो गया।
गुरु-शिष्य दोनों का गमन
अपनी जल की परछाई में देख
ज्ञान-धारा उल्लसित हो
इठलाती हुई प्रफुल्लित हो।
बहती जा रही... बहती जा रही...
दोनों के संयमाचरण सहित चरण का
अनुगमन, अनुकरण करती
ध्रुवगामिनी...वीतरागिनी...
ज्ञाऽ ऽ ऽ न धा ऽऽऽ रा ऽऽऽ