लक्ष्य का निर्धारण करो या न करो
उद्देश्य को वरो या न वरो
पुरुषार्थ साध्य हैं।
सर्व उपलब्धियाँ।
मनन कर यों...
अहर्निश बीत रहे गुरु सन्निधि में
पुण्य भाव रूप परिणति में
लो! अब तो एक माह ही
पूरा होने को है,
मगर अब सब कुछ
खोने को है,
सदलगा जाने का दिन आ गया
नयन भीगे से सबके
अब बरसने को हैं...।
प्रस्थान होने पर भी
मुड़-मुड़ कर देखते नयन
उन्हें, जो देखते तक नहीं,
बहुत कुछ कहना चाहते हैं वचन
उनसे, जो कुछ कहते तक नहीं। |
यही तो विशेषता है मन की
जो बोलता नहीं उससे बोलना चाहता है
जो मिलता नहीं उसे ही पाना चाहता है।
जो पाता है वह भाता नहीं
जो भाता है वह पाता नहीं।
तभी तो सुख साता नहीं।'
सुनी थीं ये पंक्तियाँ
इन्हीं गुरू-मुख से
सो परिवार को स्मृति हो आयी
जाते-जाते कदम उठ नहीं रहे
पैरों की गति बोझिल हो आयी।
परिवार आया, गया
लेकिन संत का मन सहज रहा
अब गम नहीं रहा
क्योंकि अवगम हो गया!