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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 67

       (0 reviews)

    तेजपुंज पुण्यधर

    श्री विद्यासागरजी को देख

    प्रकृति चुप न रह सकी।

    अपनी प्रसन्नता का संवरण

    न कर सकी।

    पुण्यानुसार आनंदवृष्टि करने लगी,

    श्रावक श्रमण का कर रहे पड़गाहन

    तो नूतन मुनिवर कर रहे

    अंतर में सिद्धों का पड़गाहन।

     

    श्रावक स्वगृह ले जा रहे

    मुनिवर सिद्धों को निजगृह ला रहे

    त्रय शुद्धि बोलकर

    उच्चासन दे।

    पद प्रक्षालन कर, की पूजन,

    मुनि ने भी त्रियोग से विशुद्धि धरकर

     

    सिद्धों को बिठाया हृदयासन पर,

    रत्नत्रय जल से क्षालन कर स्वातम का

    ज्ञानोदक लगा निजात्म प्रदेश पर

    भाव रूप द्रव्यों से की पूजन।

    ज्ञान दर्शनोपयोग की लगा अंजुलि

    चिंतन करते निराहार स्वरूप का

    देह को दे आहार,

    साक्षी भाव से स्वयं दृष्टा बने

    निज भावों के सृष्टा रहे...

    आहार देने वालों की

    लगी है भीड़ भारी ।

    बारी-बारी से दें आहार

    नर और नारी

    अपने भाग्य को सराहते

    उमंग से भर आये,

    बार-बार देख निज हाथों को

    फिर मुनिवर की शांत निश्छल छवि को

    निरख-निरख कर हर्षित हो आये।

     

    मानो आहार देकर

    सब कुछ पा लिया,

    अपनी कलुषित चेतना को

    प्रशस्त पुण्य नीर से

    आज धो दिया।

     

    टाल कर छियालीस दोष

    निरीहता से ले आहार

    संपन्न हुआ।

    प्रथम आहार निरंतराय...

     

    जयनाद से गूंज उठी अजमेर की धरा,

    परम पूत की पद-रज स्पर्श कर।

    भाग्यशालिनी मान रही वसुंधरा।

     

    सतत सत् तत्त्व की साधना में लीन

    साधक की सुनने वार्ता

    सदलगा वासी जब कभी चले आते

    महावीर के निवास पर

    घिर गया घर

    विद्या के अपनों से,

    सुन-सुन कर दीक्षा की बातें

    कभी आँख तो कभी नाक

    पोंछते अपने रूमाल से,

    हर दिन भीड़ जमती

    पूजनीय हो गये सारे नगर में

    मल्लप्पाजी और श्रीमंति...।

     

    जो भी सुनकर जाने लगता

    अपना मस्तक

    उनके चरणों में नवाता,

    मंदिर की तरह बन गया घर

    जो भी गुजरता उस राह से

    देख विद्या का निवास

    श्रद्धा से निकलता हाथ जोड़कर।

     

    आस्था से अभिभूत

    जनता जनार्दन की

    सघन वर्णगाओं ने

    इधर परिवार के दर्शन की प्यास ने

    आखिर तय कर ही लिया

     

    अजमेर जाने का मन बना ही लिया,

    दीक्षा लिये आज दिन हो गये हैं सत्रह

    तैयारी हो चुकी पूरी तरह,

    कहा भरे गले से श्रद्धा की भाषा में

    ‘चढ़ाने को चरणों में रख लेना कुछ

    कहकर श्रीमति ने ‘जी' ।

    रख लिया बहुत कुछ...।

     

    ‘जो कभी झुकते थे पिता के चरणों में

    वे स्वयं पिता के लिए वंदनीय हो गये

    जो रहते थे घर में संतान की तरह

    वे संन्यास ले दर्शनीय हो गये।

    परिवार के संग था

    बाल सखा मारूति भी

    जैन न था तो क्या

    था वह

    विद्या के बचपन का साथी।

     

    गुरूगंगा तक पहुँचने का

    रास्ता लंबा लग रहा है ।

    रह-रहकर नयनों में भरता नीर

    गंगा को यहीं से अघ्र्य चढाने का

    आयाम प्रारंभ कर रहा है...।

     

    आँसू चाहे सुख के हों या दुख के

    मिलन के हों या विरह के

    अतिरेक के द्योतक हैं,

    आँसू बनते हैं आसरा

    सिर को हल्का करने में

    पर ये मोह के संकेतक हैं...।

     

    जैसे शंका के प्रभाव में

    श्रद्धा गौण हो जाती है।

    बुद्धि के उद्वेग में

    संवेदनाएँ गौण हो जाती हैं।

    धन के प्रभाव में

    धर्मात्मा गौण हो जाता है,

    वैसे ही मिलन की उत्कंठा में

    कितनी ही दूरी हो...

    सब दृश्य गौण हो जाता है।

    सब कुछ अदृश्य हो जाता है।

     

    यही हो रहा यहाँ

    इतनी लंबी यात्रा पूरी कर

    आ गया परिवार अजमेर शहर,

    करते ही प्रवेश मंदिर के प्रांगण में ।

    दृष्टि पड़ी नव दीक्षित मुनिवर पर;

    नूतन साधक, आत्म आराधक

    नूतन अनुभूति, स्वात्म की प्रतीति

    नूतन चिंतन, भाव आकिञ्चन

    नूतन चर्या, आगमिक क्रिया ।

    नूतन भावना, अदभुत प्रभावना

    नूतन वृत्ति की पवित्रता, दृष्टि की निर्मलता

    नूतन जीवन, जन-जन के संजीवन

    तन न, चेतन का पोषण!!

     

    यों पल-पल नव-नव परिवर्तन

    देख मुनिवर श्री विद्यासागरजी को ।

    झुक गया सिर, हो गया वंदन

    दूर थे तो व्याकुल था हृदय

     

    निकट हैं तो व्याकुल हैं नयन,

    देखना चाहते जी भर

    पर देख नहीं पा रहे,

    कहना चाह रहे बहुत कुछ

    पर कह नहीं पा रहे,

    बैठना चाह रहे जाकर निकट

    पर कदम आगे नहीं बढ़ रहे,

    सुनना चाहते दो वचन मुख से

    पर निवेदन का साहस नहीं जुटा पा रहे,

    अपने होकर भी परिवार की पकड़ से परे

    हो गए इतने दूऽऽऽ र

    कि त्वरित गति से शिवधाम जा रहे...

     

    न कोई बात, न कोई संकेत

    मात्र करते दर्शन, बीते दिन अनेक...

    दिया परिचय संपूर्ण परिवार का

    एक दिन मल्लप्पाजी ने

    महामुनिवर श्री ज्ञानसागरजी को

    यह माँ है विद्या की

    विरह में विद्या के

    आँसू बिसारती रहती...।'

    विद्या से छोटा यह है ‘अनंतनाथ'

    जिम्मेदारी से देता है परिवार का साथ

     

    इन दिनों चुप्पी साधे

    न जाने क्या सोचता?

    यह इससे छोटा 'शांतिनाथ'

    स्वभाव से ही है शांत

    इन दिनों रहने लगा पूर्ण शांत

     

    दीक्षा के दिन से लगी है अजमेर आने की

    शांता अब दर्शन में हिचकिचाती है।

    यह सुवर्णा दुखी है यहाँ आकर भी।

    भैया बोलते क्यों नहीं? सोचकर वह रोती रहती है…

     

    यह मारुति, विद्या का सहपाठी

    सखा बचपन का

    सुनते ही नाम मित्र का...

    हँसकर बोले श्री ज्ञानसागरजी मुनिवर

    मीत वही जो प्रीत निभाए नित

    रीत नहीं यह अच्छी कि

    मुनि बन जाये मीत और घर में रहे सखा!''

     

    देख मित्र को मुनि के भेष में

    मारूति भूत की भंवरों में घिर गये

    खेत की मेड़ पर खड़े विद्या दिखने लगे...

    हरी-भरी फसलों से बात करते

    पकी फसल को पंछी खा रहे।

    फिर भी उदारमना यह कुछ न कहते...

    विचारों में खोये मारुति को

    अतीत के अंधकूप से निकाल

    बोले ज्ञानी गुरूवर- कहाँ खो गये?

    सँभलकर हाथ जोड़ कहने लगे मारुति

    मैं अज्ञ हैं जानता कुछ नहीं

    चाहता हूँ मैं भी दीक्षा

    जैसा कहेंगे भैया विद्या

    वैसा ही कर लूंगा....”

     

    अरे! न कहो इन्हें भैया! 'विद्या

    ये हैं अब ‘विद्यासागर

    सुन ज्ञान-सिंधु मुनि की बात

    तत्क्षण क्षमा माँगी;

    क्योंकि भूल हुई ज्ञात

     

    कुछ सोच बोले मुनिवर

    “लेकर व्रत ब्रह्मचर्य रहो अपने घर

    समर्पित हृदय से जोड़ कर

    हर्षित हुए व्रत स्वीकार कर।

     

    गुरु ने आज्ञा दी शिष्य मुनि को

    परिवार से वार्तालाप की

    तभी विरागी दृष्टि उठाकर टिका दी

    सर्वप्रथम माँ श्रीमति की ओर...।

    आनंदातिरेक से रोम-रोम पुलक गया

    श्वासों का स्पंदन पल भर को थम गया

    मोही मन बेटे का परस करने मचल गया।

     

    दूसरे ही पल सँभालती स्वयं को

    सामान्य नहीं वह माँ

    महान योगी की जननी

    देखती रही बस लगाये टकटकी...

    अनबोले ही बहुत कुछ कह दिया

    मेरे हठीले लाल! तूने यह क्या कर लिया?

    दुख मिश्रित मोह के अश्रु सोखकर आँखों में ही

    झुक गई मात्र बोल पाई ‘नमोऽस्तु...

    पीड़ा अंतर्मन की छिपी न रह सकी

    विरागी संत ने निर्मोही होने का दिया आशीष

    तन हल्का हुआ तनिक, हलकी-सी खुशी झलकी।

     

    होने से राग का विराग में परिवर्तन

    कितना कुछ बदल गया है!!

    कल तक आशीष का हाथ उठता था माँ का

    आज बेटे का माँ के लिए उठ रहा है।

    बारी-बारी से सभी ने किया नमन।

    अनंत के अंतर्मन में उठते प्रश्नों का

    कोई समाधान नहीं मिला

    आखिर आपने हम सबको

    बीच मॅझधार में क्यों छोड़ दिया?

    मुझसे, सबसे, सारे सदलगा से

    नाता क्यों तोड़ दिया?

     

    इसका समाधान था

    मात्र एक निर्मोही नज़र...

    ना कुछ कह पाये अनंतनाथ

    ना ही कुछ बोले मुनिवर...।

    चौका लगा है मल्लप्पाजी का

    सौभाग्य से आज

    आहार हुआ श्री विद्यासागरजी का

    खुशी का पार न रहा

    आहारोपरांत पूरे परिवार का शीश

    मुनि चरणों में झुक गया!!

     

    अनंत व शांति का शीश देर तक झुका रहा

    कहा मुनिवर से

    हमें अच्छा आशीर्वाद दो''

    बोले मुनिवर श्री विद्यासागरजी

    ‘शांतिसागर' आचार्य के बनो पथगामी

    अनुभवो अनंत शांति..." ।

     

    मिटे मिथ्या भ्रांति, कर्म क्लाति

    वीतराग भाव में हो सदा विश्रांति

    यही है आशीर्वाद...।

     

    करके पद में प्रणिपात

    समझ नहीं पाये वे पूरी बात,

    किंतु प्रसन्न भाव से भर गये।

    भावी मुनि होने के बीज बो दिये...।

     

    संध्या वेला में परिवार सहित मल्लप्पाजी

    निकले जिनालय वंदना करने

    ‘नसिया सोनीजी' की देखी बारीकी से

    आँखें अपलक देखती रह गईं...।

    सोने-से मंदिर में प्रतिमा देख स्वर्ण की

    हृदय कली चटक-चटक कर खिलने लगी,

    मल्लप्पाजी की ममता कहने लगी।

    यह तो जड़ सोना है।

    मेरा विद्या अनमोल चेतन सोना है;

    जो जाग गया है सदा के लिए

    औरों को सोते से जगाने के लिए!!

     

    यों सुधियों के समंदर में

    डूबे ही थे कि

    पूछ लिया श्रीमति ने

    क्या सोच रहे हैं?

    देखो इधर ऊपर

    गगन चूमते शिखर पर स्वर्ण कलश

    त्रिलोकीनाथ का मानो गा रहा यश,

    समवसरण मंदिर का नज़ारा

    देखते ही बनता

     

    बड़े धड़े की नसिया

    हुई थी दीक्षा विद्याधर की जहाँ

    अब मन कहीं जाने को नहीं कहता।''

     

    श्रीमंत न जाने कहाँ खो गई

    कुछ पल को अपनी सुध भूल गई...

    महावीर ने कही थी जो कथा

    यह वही दीक्षा का स्थल था,

    रह-रहकर मानस पटल पर

    दिल के टुकड़े को देखती चलचित्र की भाँति...

    ब्रह्मचारी विद्याधर केशलोंच करते हुए।

    हज़ारों लोगों के बीच, ।

    श्री ज्ञानसागर जी मुनि संस्कार करते हुए।

    त्याग कर वस्त्राभूषण सदा के लिए

    हो गये अनंबर श्रमण

    सद्यःजात शिशु सम हो दिगम्बर

    अन्वर्थ नाम धरा विद्यासागर।

    " उठाकर रज पावन धरा की

    अपने माथे लगा ली,

    मानकर कृतार्थ स्वयं को

    हृदय में राहत पा ली।

    बचपन में कभी-कभी

    पहन लेते थे जो अँगूठी स्वर्ण की।

    उसे अब रखने का औचित्य क्या?

    जब पहनने वाला ही चला गया...

    स्वर्णिम अवसर है यह स्वर्ण चढ़ाने का

    स्वर्णाभा वाले सपूत साधु के पद में

    इसीलिए स्वर्ण-मुद्रिका

     

    एक सौ आठ स्वर्ण-सुमनों में परिवर्तित कर

    मारुति ने भी कुछ रजत-पुष्प लाकर ।

    प्रभु-संग गुरु की पूजा कर

    जब पुष्प समर्पित किया

    सभी का मन भक्ति से विभोर हो गया।

     

    उत्तम पात्र को उत्तम द्रव्य चढ़ाकर

    स्वर्ग-सा सुख पा लिया,

    पूजनोपरांत दंपत्ति ने पूर्व से संकल्पित

    व्रत ब्रह्मचर्य गुरु-चरण में

    विधिवत् ग्रहण कर लिया...।

     

    देख संपूर्ण दृश्य भागचंद सोनी

    स्वयं को धन्य मानने लगे।

    ‘वंदनीय हैं यह निर्विकार मुनि

    सौभाग्यशाली हैं यह परिवारजन गुणी

    कहकर यूं सभी को

    जय जिनेन्द्र' करने लगे

    नसिया के कण-कण को

    साथ ही अपने जीवन को

    कृतार्थ हुआ-सा मानने लगे।

    काल के कदम रुकते कहाँ

    एक पल भी?

    चलते हुए भी दिखते कहाँ

    सामान्य जन को भी?

    जड़ है यह अचतेन भी।

    जानता नहीं कुछ भी

    पाओ या खोओ... जागो या सोओ...

    कुछ कहो या न कहो


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