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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 63

       (0 reviews)

    ज्यों-ज्यों रात गहराती जा रही

    चिंतन की गहराई बढ़ती जा रही,

    बाहर में तमस घना घिर आया है।

    अंतर में मुक्तियात्रा के अभियान में

    आत्मोल्लास का प्रकाश भर आया है।

     

    अनवरत जग रहे नयन

    सोना नहीं चाहते

    पाकर गुरु की शरण,

    अब और किसी के

    होना नहीं चाहते

    महाव्रत अंगीकार कर

    भव-बीज को अब

    बोना नहीं चाहते।

     

    तभी तो निशा भी

    लग रही ऊषा-सी

    दीक्षा की प्रतीक्षा में…

     

    आज की मंगल प्रभात में

    हुआ संवेदन सामायिक में जो

     

    षष्ठम-सप्तम गुणस्थान के

    अति निकट

    पहुँच गये हैं वे,

    एक-एक पल लग रहा

    सागर-सा

    कब आयेगी वह घड़ी

    जब हाथ में होगी पिच्छिका!!

     

    रत्नत्रय को धारण कर

    स्वातम का अनुभवन कर

    ठहर जाऊँगा ज्ञान-गुफा में,

    अनंत गुणों का जो धाम है।

    वहीं मेरा चिर विश्राम है,

    देह पर धागा भी एक

    अब लग रहा है भार;

    क्योंकि होकर निर्विकार

    अतिशीघ्र होना चाहता हूँ निराकार।

     

    सिद्धत्व रूप लक्ष्य की लगन में

    होकर मगन अपन में

    समय का पता ही नहीं चला।

     

    उग आया तिग्म

    दूर-दूर क्षितिज तक

    प्रसारित कर अपनी रश्मियों को

    कह दिया है उसने ।

    आते-जाते जाने-अनजाने

    चेतन-अचेतन चराचरों को

    कर दो सूचित

    अपने प्रकाशमान शब्दों से...

     

    लौकिक नहीं पारलौकिक जगत में

    ज्ञानाकाश में

    आज एक पुण्य प्रकाश-पुंज

    विद्या-रवि उदित हो रहा है,

    आश्चर्य है। सूर्य को ईष्र्या नहीं है।

    स्वयं सूर्य होकर ।

    दूसरे सूर्य का कर रहा प्रकाशन;

    क्योंकि जानता है यह

    कि मुझमें वह प्रकाश कहाँ?

    जो उस रवि में है।

     

    मैं तो करूंगा मात्र बाह्य उजाला

    वह भेदकर मिथ्यात्व का तमस

    देगा अनेकों को सम्यक्त्व का उजियाला,

    गुणी का गुणानुवाद करना ही चाहिए।

    कुछ तो सूरज से लोगों को सीखना चाहिए।

     

    दूसरी बात यह है कि

    मैं किसी से ईष्र्या क्यों करूं?

    यदि गुणीजन हैं तो

    गुणों का बखान करूँ

    और है यदि दोषी

    तो उसके प्रति हीनभाव न करूँ,

    निश्चय से कर्म निरपेक्ष है प्रत्येक आत्मा

    स्वभाव से है निर्दोषी

    अनंत गुण कोषी,

    इस भाँति सूर्य कार्य करके अपना

    चल पड़ा अपनी यात्रा की ओर...।

     

    यहाँ विद्याधर

    प्रातः गुरु के चरण-स्पर्श कर

    लग गये अपने नियमित कार्य में

    करके प्रभु की पूजन द्रव्य से

    आज अंतिम बार…

     

    किया निवेदन प्रभु से

    “हे वीतरागी जिनेन्द्र! कल से

    अनवरत कर सकें भाव पूजन

    ऐसे भावों का द्रव्य विशेष मुझे देना, त

    त्त्वज्ञान का जल, चर्या का चंदन

    निज आनंद का अक्षत, श्रद्धा के सुमन

    निर्विकार भावों का नैवेद्य दिव्य

    शक्तियों की अनुभूति का दीप

    धीरता से धर्म-भावना की खेऊँ धूप

    पुण्प-पाप रूप कर्मफल में साम्यधर

    शिवफल की आशा लेकर...

    अनर्थ्य पद की भावना, और न कोई चाह।

    भवदधितारक हे प्रभो! पकड़ो मेरी बाह॥

     

    इस तरह भक्ति-सरवर में

    डुबकी लगाकर

    बाहर आये विद्याधर

    मुक्तिवधू को चाहने ।

    संयम-दूती को रिझाने

    तप-मण्डप में आने को प्रतीक्षित

    निग्रंथ होने को लालायित,

     

    गगनांगन पूँज रहा था जयघोषों से

    यद्यपि मौसम था प्रतिकूल,

     

    फिर भी

    संख्या बढ़ती जा रही श्रद्धालुओं से

    जाति-पंथ का कोई भेद न रहा

    सारा नगर उमड़ रहा

    पाण्डाल जन-समूह से भर गया।

     

    आसपास की गली, दहलान और छत पर

    खड़े हो गये हैं लोग जगह घेर कर

    सबके नयन केन्द्रित हैं उस स्थान पर

    आने ही वाले हैं अब गुरु और शिष्य विद्याधर!

     

    प्रांगण नसिया का लग रहा मनोरम

    मानो वीर का समवसरण

    आ रहे हैं राजसी पोशाक में

    अनेकों गुरूभक्त हैं साथ में,

    देखते ही बिनौली, खुली रह गईं आँखें

    सोचते रहे भ्राता महावीर अष्टगे

    वस्त्राभूषण देख लग रहा सम्राट,

    किंतु चेहरे पर झलक रहा अपूर्व विराग।

     

    हर गली में लगे तोरणद्वार

    चौराहे पर सुंदर से वंदनवार

    रंग-बिरंगे झंडों से सजाया नगर

    झूमते हुए कुछ गज चले आये

    अंतिमवें गज पर दीक्षार्थी विराजे,

    इन्द्र के ऐरावत गज की भाँति सजाया है इसे

    घेर कर चल रहे अनेकों श्रेष्ठी,

    मंगल कलश ले चल रहीं

    पीछे-पीछे सुहागिन नारियाँ

    फिर महिला और कुमारियाँ।

     

    आते ही निकट नसिया के

    धरा वहाँ की गौरव से भर आई

    मंद-मंद हवा के बहाने

    अभ्यागत का स्वागत कर हर्षायी,

    भ्राता के नयन देख रहे अनिमेष

    यह सच है या सपना है एक...?

    इतने में ही ध्वनि विस्तारक यंत्र से

    आवश्यक घोषणाएँ हुईं भागचंदजी सोनी से

    पधार रहे हैं... गुरुदेव!

    पीछे-पीछे क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी

    संभवसागर व सुखसागरजी ।

    पीछे गजगामिनी चाल से चले आये विद्याधर,

    मानो शिववधू वरने आ रहे दूल्हा बनकर

    जयकारों से गूंज उठा पाण्डाल,

    प्रारंभ हो गया दीक्षा का कार्यक्रम

    देख प्रथम दृश्य जनता हो गई निहाल।

     

    राजा जैसे दिखने वाले अब होने जा रहे महाराज

    प्रजा का शासक होता राजा

    स्वयं में स्वयं के अनुशासक होते महामुनिराजा,

    राजा के पास होता बाह्य वैभव

    भव-भव का जो वर्द्धक है, कर्मबंधक है।

    महाराज के पास होता आत्मिक वैभव

    जो भव विनाशक कर्म-रोधक है।

    राजा के होते सेवक;

    क्योंकि होते वे प्रमादी,

    किंतु महाराज होते निष्प्रमादी

    सेवक की आवश्यकता नहीं उन्हें,

     

    शत्रु होने से राजा रखता सेना

    स्वार्थवश रणांगण में

    अनेकों को मार शस्त्र से

    दुर्ग में छिप जाता है स्वयं के प्राण बचाने,

    कोई शत्रु नहीं महाराज का

    परमार्थवश विकारी भावों का

    विनाशकर धर्मयुद्ध में

    शास्त्रानुसार चलकर त्रिगुप्ति के सुरक्षित दुर्ग में

    लीन हो जाते भगवन् बनने।

     

    संपत्ति का अम्बार लगाता राजा

    अनेकों रानियों संग करता क्रीड़ा

    दण्डित करता औरों को

    स्वयं शान से रहता,

    जबकि मुनिराजा विपत्ति मान जड़ संपत्ति को

    एकमात्र शिववधू के प्रत्याशी होकर

    जिनाज्ञा पालन में भूल होने पर

    प्रायश्चित ले स्वयं को दण्डित कर ।

    औरों से करते साम्य व्यवहार।

     

    धन्य है।

    ऐसे महाराज की तुलना

    कैसे हो सकती राजा से!

    मणि की तुलना हो नहीं सकती

    काँच के टुकड़े से!

    तभी खड़े होकर विद्याधर

    गुरु-चरण की वंदना कर

    कर जोड़कर करते हैं दीक्षा का अनुरोध...

    गुरु का आदेश पाकर

     

    वैराग्य से ओतप्रोत सारगर्भित वचनों से

    दिया जनता को उद्बोधन...।


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