तीन थे मंदिर नगर में
किंतु एकांत स्थान वाले मंदिर में
घंटों बैठ करते चिंतन...
चले सत्ताईस किलोमीटर दूर...
संत विनोबा का करने समागम
महंतों से मिलने की
उत्कंठा थी बहुत
पर्वतों पर चढ़ने का शौक
कभी 'स्तवनिधि' तो कभी ‘कुंभोज'
एक-एक कर अनेकों
स्मृतियाँ मानस में उभर आयी थीं,
विद्या ही विद्या की छवि समाई थी।
घर में सबसे पीछे का कक्ष उनका
शांत वातावरण था जहाँ
‘अनंतनाथ' अंतहीन सुधियों में खोये
दीवार पर लगे चित्र निहारते
एक आचार्य श्री शांतिसागरजी का
तो दूसरा पावापुरी का
पैसे जोड़कर लाये थे
पवित्र भावों की
पावन हाथों की
थी अनमोल सौगातें
छोड़ गये थे देख-देख जीने के लिए
इसी पथ पर बढ़ने के लिए।
सुखद दिन सरपट गुजरते
पता नहीं चलता
वर्ष भी निमेष-सा लगता,
किंतु इष्ट-वियोग का हर पल
पल्य-सा लगता
मुश्किलों से गुजरता।
यद्यपि संभव है पानी का संचयन
संभव है संपदा का संवर्धन
संभव है सामग्री का संरक्षण,
किंतु समय का न संग्रह
न वर्धन, न ही रक्षण
कुछ भी नहीं संभव,
समय पर गुजरी घटना
रह जाती है शेष स्मृति बन!