ज्ञान और विद्या नाम की
धाराएँ दो होकर भी
बह रही थीं साथ-साथ...
दोनों का उद्देश्य एक
उद्देश्य एक तो मार्ग भी एक,
नियति ने दोनों को मिलाया
प्रज्ञाधारा ने अपने लहर पृष्ठों पर।
दोनों का एक साथ नाम लिखा।
समझा रहे गुरु गूढ़ रहस्य की बातें
वत्स! स्वभाव की सामर्थ्यता
विभाव की विपरीतता
और परभाव की पृथक्ता
ये तीनों विचारने योग्य हैं,
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यक्चारित्र आचरने योग्य हैं,
मोह, राग और द्वेष
ये तीनों तजने योग्य हैं,
हेय, उपादेय और ज्ञेय
यह छोड़ने, पाने और
जानने योग्य हैं।
अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंग
इन तीनों का रहस्य समझने योग्य हैं,
इनसे दो विरोधी तत्त्वों में भी
हो जाता सामंजस्य
कर्म-सिद्धांत के ज्ञान से
नहीं होता खेद-खिन्न...
अध्यात्म ज्ञान से दिख जाता है ।
देह आत्मा भिन्न-भिन्न...।
आप्त के द्वारा कही
गणधरों से गूंथी
महामुनियों से लिपिबद्ध हुई
यह आगम की वाणी
मूलभूत संस्कृत-प्राकृत में निबद्ध,
इसे पढ़े बिना।
धर्म का मर्म समझना है असंभव।
यद्यपि तुम्हारी ज्ञानयात्रा है कठिन;
क्योंकि भाषा है तुम्हारी भिन्न
मैंने पढ़ाया है अनेकों को,
किंतु आज तक तुम जैसा
लगनशील, उत्साहित ।
विनम्र और समर्पित देखा नहीं
अल्प समय में जितना अधिक दे सकें तुम्हें ज्ञान
होगा संतोष मुझे
अब तुम्हारी सामर्थ्य और अभ्यास पर
आधारित है 'विद्याधर'!
गुरू-मुख से सुन आत्मीय संबोधन
हृदय बाग-बाग हो गया
आज लगा पहली बार
नाम सार्थक हो गया
यहीं से अध्ययन प्रारंभ हो गया…
प्रथम अभ्यास में समझाया
प्रत्येक शब्द में होता अर्थ
नहीं होता कोई शब्द निरर्थक
निरर्थक का भी होता ही है आखिर कोई अर्थ
ज्यों व्यवहार में
चार कोने हों जिसमें वह चौकी
गढ़ा जाय जो वह घड़ा
चट आये सो चटाई
देर से आये सो दरी
जो किसी को वारे या रोके
सो किवार आशु गमन करे सो अश्व
त्यों आगम में चेते सो चेतना
ऐसा कहा है।
अतः निजात्मा का लक्ष्य हो
शब्द कम, अर्थ ज्यादा गहो,
अधिक बोलने से अनर्थ न हो
जो करो, वही कहो...।
अनमोल सूत्र दे स्नेह-भरी दृष्टि से
अपने कर-कमलों से
दिया ग्रंथ शिष्य के हाथों में,
मिल गया अपूर्व उपहार!
लगा, आज आया है।
जीवन का सबसे बड़ा त्यौहार...!!
मन आत्म-साधना में
वचन जिनवाणी की वाचना में
काया गुरू-सेवा में कर दी समर्पित...।
गुरू को मिल गया योग्य शिष्य
शिष्य को मिल गये ज्ञानी गुरु
गुरु को मिल गया हीरा
तो शिष्य को शिवराही...।
देख लगन, निष्ठा और परिश्रम
बढ़ा दिया अध्यापन का समय
पढ़ते नियमित पाठ, करते कंठस्थ
शिष्य की लगन से गुरु थे संतुष्ट...।।
जिस शिष्य के पास हो
हृदय की कोमलता
मन की पवित्रता
वचन की मिष्टता
काय की सजगता
और स्वभाव की शीतलता,
फिर भला
गुरू क्यों न हों प्रसन्न...!!
रात्रि के समय पर
पण्डित महेन्द्रजी शास्त्री ने
व्याकरण, छंद, नीति आदि के ग्रंथ पढ़ाये उन्हें
कन्नड़ भाषी होने पर भी
अब संस्कृत-प्राकृत-ग्रंथ लगे सहज पढ़ने...
एक दिन संस्कृत पढ़ते-पढ़ते
सोचने लगे...
व्याकरण में संधि भी है समास-विग्रह भी
बिखरे को जोड़ने का
काम करती है संधि
और जुड़ों को जुदा करने का
काम करता है समास-विग्रह;
गुणों से करना है संधि
दोषों से करना है विग्रह
यों भाषा के साथ भावों का भी।
करते सम्यक् अध्ययन।