इस भाँति
पर पदार्थों के विकल्प से परे
विशुद्ध उपयोग से
स्पर्श करते जो निजातम का
पर के परस से परे
कर ‘स्पर्शेन्द्रिय पर जय'
आत्मीय आनंद का
चखते रस 'रसनेन्द्रिय जय
प्रफुल्लित वदन हो।
सुरभि-दुरभि विरहित गं
धातीत स्वीय चेतना की
अनंत गुण की अपूर्व सुगंध
लेते बिन नासा के,
ऐसे घ्राणेन्द्रियजयी' को
अगणित वंदन हो...।
दृश्य को नहीं दृष्टा को देखते
अंतर दर्शन से पल-पल अवलोकते,
स्व-सन्मुख दृष्टि की यही है महिमा
लगते हैं गुरुवर इन क्षणों में
मानो हैं कोई जीवंत प्रतिमा।
जो आगम चक्षु से देखते हैं देखनहार को
ज्ञानचक्षु से जानते हैं जाननहार को
कहता है भक्त-‘चक्षु इन्द्रिय जयी
देख आपकी विराग मुद्रा को
आप ही मेरे अंतर्नयन हो!
श्रवण के 'व' का विकार हटा
महिमावंत मोक्ष का ‘मकार' लगा
हो गया महाश्रमण।
आस्था में अक्षर की।
श्रद्धा में शब्द की
भावों में भाषा की
समर्पण में साहित्य की
आवश्यकता ही कहाँ?
तभी तो भक्त के भावों को
श्रवण कर लेते बिना यंत्र ही
कोसों दूर से
इसीलिए शिष्य का गाता है मन...
हे 'श्रवणेन्द्रियजयी
आप ही माँ जिनवाणी के श्रवण हो
आपको मेरे अनंत नमन हो!!
भूल सकते सब कुछ, पर आवश्यक नहीं
स्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल
पग-पग पर चुभते हों शूल
या बिखरे हों सुगंधित फूल,
मनः स्थिति को करके संतुलित
रहते सदा प्रफुल्लित।
‘समता' धरकर
भव्य जीवों का तामस हरकर
जिससे कटते कर्म-बंधन
ऐसा करते ‘प्रभु-वंदन',
मति स्तुति' को रहती तत्पर
परद्रव्यों से दृष्टि हटाकर
निजातम के प्रति आकृष्ट होकर,
स्वदृष्टि से अपलक निहारते निज दृष्टा को
यों करते ‘प्रत्याख्यान'।
भव-भ्रमण का कारण...
हो गया यदि व्रतों में दोषागमन
करते दोषों का वारण,
होने को भगवन्
करें त्रियोग से प्रतिक्रमण'।
देह-नेह से रहित, सिद्धालय गेह पाने
विदेह पद साधने
सुमेरू-सम निश्चल रहकर
करें ‘कायोत्सर्ग' आवश्यक मुनिवर।
जो सागर में रत्न देख सके
कीचड़ में कमल देख सके
बीज में वृक्ष देख सके
पतझड़ में बसंत देख सके,
वह देह के भीतर विदेह आत्म को
अंतर्नयन से देख ही सकते हैं।
अपने आवश्यकों में भला वह
कमी कैसे कर सकते हैं!!
शेष सप्त गुणों को पालते
आत्म विहार हेतु
दिन में एक बार आहार करते
वह भी खड़े-खड़े
कर को पात्र बना,
निर्ममत्व भाव धारी
धन्य है इनकी क्रिया
बहुजन हितकारी।
आगमानुकूल है इनकी चर्या
क्लेश तज करते केशलोंच
पल-पल नहलाते क्षमा-नीर से
ज्ञानोपयोग से सहलाते ।
अकेले में स्वयं चेतना को प्यार से।
तन न्हवन नहीं
दंत धोवन भी नहीं
कर्म अंत करने धोते मलिन आत्मा को ।
अनुभव करने स्वयं में छिपे परमात्मा को,
रिझाने शिवसुंदरी को करते भूशयन।
जिनके पास ओढ़ने को आस्तरण नहीं
पहनने को कोई वसन नहीं
नग्नता से बढ़कर नहीं कोई श्रृंगार
भा गया जिन्हें परमात्मा सर्व सुंदर,
अब उनके आगे क्या पहनना
तरह-तरह के अंबर?
अतः हो गये दिगम्बर
ज्ञान-विराग दो शस्त्र ले
अष्ट कर्म विनाश करने
धारे मूलगुण अट्ठाईस
‘जयवंतों भूतल पर गुरुवर'
‘जिनशासन की शान हो गुरूवर
‘हम सबके भगवान हो गुरूवर' ।
भक्त यों नारे लगाते तरह-तरह के
संत-चरण में नमन करके
स्वयं को भाग्यशाली मानते...।