उसी रात एक घटना घटी भयंकर
जहाँ विराजे हैं
आचार्य श्री देशभूषणजी यतिवर
वहीं सब भागे जा रहे हैं
विद्याधर भी आगे-आगे जा रहे हैं
जाते ही निकट सुनी कराह
बिच्छू ने काट लिया था
ज़हर चढ़ता जा रहा था।
आचार्यश्री का मन यद्यपि दृढ़ था,
किंतु देह काँप रहा था
शिष्य-मंडली द्वारा
उपचार चल रहा था
कुछ औषधि जो आवश्यक थी,
किंतु वह पहाड़ी पर नहीं
तलहटी पर थी,
सब ताक रहे एक-दूसरे की ओर
तत्क्षण
दौड़ पड़े ये नीचे की ओर…
ऊँची-नीची राह
घटाटोप अंधकार
वृक्षों की परछाई
कानों को बहरा कर देने वाले
हवा के हहराते स्वर...
नहीं कर पाये भयभीत उन्हें
अगला कदम रखने ही वाले थे कि
देखा भयंकर काला नाग
बैठा फन फैलाये पगडंडी पे
भयभीत हुए बिना
विवेक खोये बिना
गुरू के प्रति भक्ति, श्रद्धा, समर्पण ने
बना दिया उन्हें निर्भय!!
शीघ्र ही औषध लाना
अनिवार्य है यह कार्य
पढ़कर णमोकार बदलकर पथ
पकड़ ली दूसरी पगडंडी विद्याधर ने,
लौटे दवा लेकर तो भूल गये सर्प
दौड़ते हुए गये
पहुँचे यतिवर के समक्ष…
लिखते-लिखते लेखनी भी
कथानायक के बारे में
लिखने योग्य कुछ लिख गयी
‘उत्तम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं
औरों को सुखी करके
‘मध्यम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं
औरों को सुखी देख करके
‘अधम’ है, वे जो प्रसन्न होते हैं
औरों को दुखी देख करके
‘अधमाधम' हैं, वे जो प्रसन्न होते हैं
औरों को दुखी करके।
“उत्तम पात्र हैं विद्याधर
जो गुरु के लिए जीते हैं
गुरु रक्षा हित
प्राण त्यागने को भी
तत्पर रहते हैं।”
ज्यों सर्प
आकर्षित होता है बीन से,
ज्यों अलि
आकर्षित होता है सुमन से,
ज्यों चातक
आकर्षित होता है स्वाति नक्षत्र से,
ज्यों पतंगा
आकर्षित होता है दीपक से,
ज्यों लोहा
आकर्षित होता है चुंबक से,
ज्यों कोकिला
आकर्षित होती है आम्रमंजरी से,
ज्यों मयूरी
आकर्षित होती है जल भरी बदली से,
त्यों विद्याधर आकर्षित थे
आनंदित थे गुरुवर की सेवा से।
भक्ति के पुट से भरी औषधि
लेप करते ही मुनि श्री की
पीड़ा शांत हो गई,
जब गुरु को सर्प की बात ज्ञात हुई
तब उनकी कर्मठता, निर्भयता
नैतिकता और सरलता से
प्रभावित हो संघ समूचा
करने लगा भूरि-भूरि प्रशंसा
"काश! हर युवक हो ऐसा!!