दिन विद्या की सुधियों में बीतता
तो रात सपनों में
विरह वेदना से व्याकुल है मन
श्रीमंति का बुलाने लगा आँगन
वह बावड़ी का पानी
तो कभी गुफा अंधियारी
खेत-खलिहान के पंछी
पुकारने लगे...
मंदिर की घंटियाँ
शास्त्र-स्वाध्याय के श्रोता गण
बाट जोहने लगे…
सूने हो गये मेले
अब कौन आयेगा तस्वीर खरीदने?
मित्र जिनगौड़ा और पुंडलीक
हो गये अमनस्क से...
पूछा था पुंडलीक ने विद्या से
क्या करोगे बड़े होकर?
बोले- जिसमें न हो जीव हिंसा
झूठ, चोरी और छलावा
भला ऐसा कौन-सा है कार्य?
पूछने पर बोले
समय आने पर ज्ञात हो जायेगा
अभी कहने से काम बिगड़ जायेगा,
सुनते ही बोला था तपाक से
हँसते-हँसते पुंडलीक
रहेगा इतना दयालु तू!
तो नंगा रहेगा सदा तू!!
मित्र होने के नाते बोल गया
हास्य में शब्द दो...
मगर वो जानता कहाँ था कि
यह अभिशाप भी बन जायेगा वरदान
हो जायेगा नग्न सम्राट
संतों का सरताज!!
आज समझ में आया
उसकी बातों का राज़...
खेत जाने से कतराता था
नौकर द्वारा पौधों पर दवा छिड़कने पर
मन इसका रो पड़ता था...
रहस्य इसका अब खुल गया है
खान में हीरा पड़ा था
अब दिख गया है।