फैल गई पुरवैया की भाँति खबर यह
सदलगा के मंदिर से दर-दर पर
हर घर-घर में
प्रियजन, पुरजन, मित्रजन
करते स्मरण दिनभर।
जिनालय का घंटनाद सुन
लगता श्रीमति को
‘विद्याऽऽ' शब्द गुंजित हो रहा;
हार्न किसी वाहन का बजता
वाद्य यंत्र यदि कहीं बजता
कोई भी किसी को पुकारता
खिड़की या दरवाजा खुलता,
हर ध्वनि ‘विद्याऽऽ' रूप में।
सुनाई पड़ती कानों में।
देखती जब किताबें, कपड़े, कंघी
तो बहनें बुदबुदातीं
आँसू पोंछते हुए कहती
विद्या भैया की हैं।
पिता की मनःस्थिति का तो
कहना ही क्या...
जब भी बुलाते महावीर, अनंत, शांति को
अनायास निकल पड़ता मुख से
विद्याधर...
तुरंत अपनी भूल सुधारते ।
पर अनमने से हो जाते...।
रेखा और वर्तुल के बीच ।
अंतर है धरा गगन-सा
प्रारंभ व पूर्णता हो भिन्न-भिन्न जगह से
वह मानी जाती है रेखा,
प्रारंभ की जगह से ही पूर्ण हो
वह वृत्ताकृति मानी जाती है।
मोही की दशा होती है वर्तुल जैसी
झुलसता रहता मन
राग की आग में
दुख ही दुख पाता आतम,
किंतु निर्मोही की दशा होती है रेखा-सी
चलता रहता अविरल चेतन
वीतराग पथ में
सुख का संवेदन करता आतम
प्रारंभ होता साधना से
और पूर्ण होता है सिद्धत्व पर,
चल पड़े हैं विद्याधर इसी पथ पर।
मदनगंज किशनगढ़ में
बैठ एकांत में ।
करते ज्ञान साधना।
एक दिन आई बूढ़ी महिला
पूछने लगी प्रश्न,
देखते ही आई अन्य महिलाएँ ।
लग गई भीड़
रहे मौन ब्रह्मचारी विद्या,
दूसरे दिन से उन्होंने
अपना स्थान बदला
'एकांत वासा झगड़ा न झाँसा'
कहावत जो पसंद थी उन्हें।
दादिया ग्राम में
दे दिया विवेक का परिचय,
आहार-पूर्व शुद्धि हेतु
पहुँचे जब गुरूवर
गाय सींग ताने खड़ी हो गई
मारने ही वाली थी कि
तुरंत शिष्य ने सामने पड़ी
डाल दी घास
शांत हुई गाय
यही था उनका विवेक चातुर्य।
गुरु-सेवा कर
धन्य हुए विद्याधर!
एक दिवस देख एकटक गुरूवर ।
ज्ञान पिपासु विद्या को लगे कहने
अनेक ग्रंथों में मति-गति
प्रखर हो गई है तुम्हारी;
अब पढ़ना चाहिए ‘सर्वार्थसिद्धि
आचार्य 'पूज्यपाद स्वामी' रचित
जैन दर्शन की महान है यह कृति!!
बस फिर क्या था?
उसी दिन गुरुवार से
ज्ञानदाता गुरू ज्ञानसागर जैसे
और विद्या पिपासु विद्याधर जैसे,
भर-भर अंजुलि पीने लगे
वर्षों में पढ़ने योग्य विषय महीनों में ही पढ़ गये!!
यहाँ लेखनी भी
कुछ लिखने को
हो गई उतावली कि
वियोग जिसे न हो स्वीकार
उसे संयोग की तमन्ना नहीं करना चाहिए।
पंक जिसे न हो स्वीकार
उसे पानी बरसने की इच्छा नहीं करना चाहिए।
शूल जिसे न हो स्वीकार
उसे सुमन की चाहत नहीं रखना चाहिए।
अस्ताचल जिसे न हो स्वीकार ।
उसे अर्यमन्” से दूर रहना चाहिए।
दुख जिसे न हो स्वीकार
उसे इन्द्रिय सुख छोड़ देना चाहिए।
विनय, परिश्रम, लगन जिसे न हो स्वीकार
उसे ज्ञानार्जन की भावना नहीं करनी चाहिए।
किंतु विद्याधर थे स
बसे निराले,
गुरु के नयन सितारे,
हृदय के प्यारे!!
वे...
अभ्यास चाहे
ज्ञान का हो या चर्या का
करते लगन से,
होकर दुनिया से बेखबर
अपने आवश्यक में
रहते मगन से,
ब्रह्मचर्य अवस्था में ही
करने लगे केशकुंचन,
क्लेश नहीं किञ्चित् भी
रखते प्रफुल्लित मन।
सहपाठी ‘भागचंदजी बज'
पढ़ते विद्याधर के संघ
मानते स्वयं को भाग्यवान
पाकर गुरु से ज्ञान,
किंतु विद्या-सी साधना
कहाँ कर पाते?
एकटक उन्हें देखते ही रह जाते।
ज्ञान के भंडार ज्ञानी गुरू को देख।
जनता होती प्रभावित,
तो विनम्र लजीले
ब्रह्मचारी विद्याधर के
अतिसुंदर रूप को देख
लोग होते आकर्षित।
उनके बड़े-बड़े विकसित
कमल सम नेत्रों को लख
हर कोई जुड़ना चाहता,
प्रत्येक पिता उनकी छवि में
अपने पुत्र को देखना चाहता,
हर बहन खोजती उनकी मूरत में
अपने भाई का चेहरा!!
जन-जन के प्रिय विद्याधर को
कुछ न कुछ देना चाहते सब कोई,
नहीं लेते किंतु वे कोई वस्तु
दुखी होकर अंततः
यों ही लौट जाते श्रावक भाई।
एक दिन कहा सेठ ने
बदल लीजिए पुरानी मोटी धोती
अच्छी कोमल कीमती
पहन लीजिए ब्रह्मचारी जी!
आज्ञा ले ली है मैंने गुरूवर से,
तभी बोले स्वाभिमानी विद्याधर जी
मुझे अभी आवश्यकता नहीं;
क्योंकि यह फटी नहीं!!
सोचने लगे मन ही मन
सेठ, धर्मात्मा, श्रावकगण...
होने वाला है यह
तपस्वियों का नायक,
चलायेगा श्रमण श्रेष्ठ परंपरा को
अपरिग्रह भाव ले दिगम्बर हो
गौरवान्वित करेगा
भारत की वसुंधरा को।
जिसके शीश रूपी नभ में है।
ज्ञान की तलैया,
नाभि के मध्य में
सहनशीलता की शैय्या,
हृदय-समंदर में है।
नम्रता की नैया,
समर्पित जीवन में हैं।
गुरु से खिवैया!!
लक्ष्य है जिनका निजगृह पाने का
क्यों रखें फिर वे परिग्रह?
होता है पर का ग्रहण इसमें
भटकता है पर-गृह में।
सत्पथ-पंथी, सत्यग्राही,
ब्रह्मचारीजी ने ।
नहीं स्वीकारा आग्रह,
अपनी सत् ज्ञान संज्ञा से
मधुर स्वर में देकर उत्तर
नहीं रखना चाहते अधिक परिग्रह
जिनकी वचनावली के आगे
विविध व्यंजन भी लगते फीके,
प्रकृति भाव से सहज
जीना चाहते हैं जो,
शीघ्र ही धारेंगे निग्रंथ पद वो
विराग भाव से विकारों का
करना है विसर्ग जिन्हें,
पर से करके संबंध-विच्छेद
स्वयं से करनी है संधि जिन्हें...।
सोनीजी की नसिया के प्रांगण में ।
जहाँ भव्य-दिव्य जिनालय है,
कीर्ति जिसकी सारे देश में व्याप्त है।
कर बैठे प्रार्थना एक दिन गुरु से
दीक्षा लेना चाहता हूँ जैनेश्वरी
वस्त्र भार लग रहे हैं,
कृपा हो जाये आपकी तो
समझेंगा मुक्ति के द्वार खुल गये हैं।
गंभीर वचन से बोले गुरूवर
अभी अल्पकाल ही बीता है संघ में आये
साधना का होता है कुछ क्रम
अक्रम से हो सकता है लोकापवाद उत्पन्न
तलवार की धार पर चलने के समान
है जैनेश्वरी दीक्षा,
बालू के ग्रास और लोहे के चने
चबाने के समान है दीक्षा,
दिशा बदल लेने का नाम है दीक्षा
दीनता का क्षालन है दीक्षा,
यह मुक्ति का राजमार्ग है।
सिद्धालय जाने का प्रवेश पत्र है!!
यह मंज़िल नहीं माध्यम है,
साध्य नहीं साधन है,
तन के अनावरण का नाम दीक्षा नहीं,
चेतन के विकारों का अनावरण होता है
इसमें अंतर प्रवेश का नाम है दीक्षा,
जिसमें इच्छा निरोध की मिलती शिक्षा
आत्म परिणामों की हो परीक्षा
तभी सार्थक होती है दीक्षा!!
विनीत हो कहने लगे विद्याधर
ऐसे कई उदाहरण पढ़ाये हैं आपने मुझे,
दर्शन को आये थे गुरू के ।
दीक्षित होकर रह गये,
जैसे भौतिक सुख में मग्न
सुकुमाल श्रमण बन गये...।
पैनी दृष्टि से देख बोले गुरुवर
विद्याधर बहुत चतुर हो गये हो
मेरे ज्ञान का प्रयोग मुझ पर ही कर रहे हो...!!
कहते ही अधरों पर
स्मित हास्य उभर आया।
दीक्षा के लिए आयु ही नहीं
वैराग्य-भाव आवश्यक है,
मैं तुम्हें अवश्य देंगा दीक्षा
यह वचन गुरू-मुख से निकल गये।
गुरू-वाणी ही मंत्र है, कृपा दृष्टि ही तंत्र।
जग में गुरु आशीष ही, माना रक्षा यंत्र।"
दोपहर सामायिक उपरांत ।
बैठे थे गुरू-शिष्य शांत...
तभी पूछ लिया गुरु ने
क्या देख रहे हो वत्स?
विद्याधर बोले पिच्छी की तरफ करके इशारा
मैं इसमें देख रहा हूँ अपना भविष्य।''
‘‘क्या कभी बनाई है पिच्छिका?" ।
शिष्य ने 'नहीं' के लिए हिला दी ग्रीवा।
उसी वक्त खोलकर पिच्छी
बिखेर दिये पंख
दिया आदेश
बनाकर दिखा दो पिच्छिका...।
पाते ही आदेश गुरु का
कोमल, नाजुक लाल हथेलियों से
समेट दिये सुंदर ढंग से
सुडौल व्यवस्थित बनाकर संयमोपकरण
गुरू के पावन करों में प्रदान कर
बैठे ही थे कि
आत्मीय स्नेह-पूरित हो
कहने लगे
पिच्छी लेने के पहले बनाना भी जानते हो?
समझदार हो चुके हो,
किंतु नाजुक हो
सर्दी-गर्मी कैसे सहोगे?
शिष्य गंभीरता से बोले
गुरूवर!
दीमक होती है बहुत कोमल
फिर भी काट देती है लकड़ी-पत्थर
गुरू-कृपा से पंगु भी चढ़ जाता है पर्वत
अहं का विसर्जन कर बन जाता है अर्हत् ...!!
सुन शिष्य की शब्दावली
गुरु सोचने लगे
‘‘है यह दृढ़ संकल्पी ..."
देख गुरु की मुख मुद्रा
हो गए आश्वस्त,
"निश्चित निकट भविष्य में
परिग्रह रूपी गृह को करके ध्वस्त
रहूँगा जीवनभर स्वस्थ...।"