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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 64

       (0 reviews)

    हल्की-सी हवा में भी उड़ने वाले ।

    कोमल घने काले रेशम-से केश का

    कर रहे निर्मोही हो हाथों से लोंच,

    क अर्थात् आत्मा के

    स्वयं के ईश होने के लिए

    कर रहे केशलोंच

    साथ ही क्लेश का भी कर रहे लोंच।

     

    निर्मम हो बाल खींचे जा रहे हैं।

    देखने वाले आह पर आह भरते जा रहे हैं,

    कई स्थानों से बह रहा है रक्त,

    किंतु देह के प्रति होने से विरक्त

    अंतरात्मा में आनंद बह रहा है।

    बाहर से उखड़ रहे हैं बाल

    अंतर में उखड़ रहे हैं कर्म के जाल...!

     

    प्रारंभ हो गया दीक्षा संस्कार

    अपनी समग्र ऊर्जा को उँडेलकर

    मुनिश्री ज्ञानसागरजी पूर्ण मनोयोग से

    उत्कृष्ट शुभ उपयोग से ।

    मानो कोई गढ़ रहा शिल्पी मूरत,

    चित्रकार दत्तचित्त हो ।

    बना रहा हो मानो अपनी-सी सूरत,

    विधि-विधान पूर्वक मंत्र द्वारा दे संस्कार

    विद्याधर का सपना हो रहा साकार,

    आज्ञा पाते ही गुरू की

    ज्यों सर्प उतारता है काँचली

     

    त्यों वस्त्राभूषण उतार

    हो गए दिगम्बर...

    करते ही वसन त्याग

    तीन मिनट तक हुई वर्षा

    मंद-मंद बहने लगी बयार...।

     

    संकल्प ले महाव्रत का

    अट्ठाईस मूलगुण धारण कर खड़े ही थे...

    कि इधर अधर में... मानो ऐसा लगा...

    विद्या की धारिणी विद्याधरी

    हाथ में ले अष्ट द्रव्य की थाली

    जा रही थी अपने स्वामी विद्याधर के साथ,

    तभी यकायक हुआ एक करिश्मा

    अष्ट द्रव्य से सज्जित पूजा की थाल से

    पुष्प-राशि का नीचे की ओर बिखरना

    जल-पूरित कलश का तिरछा होना

    अक्षत-पुंज का हवा से उड़कर

    धरा की ओर गिरना,

    देख यह दृश्य विद्याधरी विस्मित हो आयी

    दुखित मन से सोचने लगी।

    पूजा की थाली हो रही क्यों खाली?

     

    विज्ञ विद्याधर समझ गया अतिशय

    सस्मित हो बोला

    ‘दुखी मत हो मेरी भार्या!

    यह जल कहीं और नहीं गिरा

    अजमेर नगर में हो रही जिनकी दीक्षा

    भावलिंगी शुद्धोपयोगी हैं वह संतात्मा

    उन्हीं के चरणों का हो रहा

     

    प्रथम पादाभिषेक

    पुष्पवृष्टि समेत...

    द्रव्य स्वयं हो रहे उतावले

    उत्तम पात्र की करने को पूजन।

     

    ' सुनते ही विद्याधरी फूली न समायी

    वहीं से ‘नमोऽस्तु' निवेदित कर

    आनंद से भर गयी।

    शुभ वचनावली खिर गयी

     

    हर बेटी की माँ करती है कन्यादान

    पर धन्य हैं श्रीमंत माँ,

    कर दिया दान जिसने जिनशासन हेतु

    विद्या-सा लाल!!

     

    लोगों के मुँह से शब्द गूंजने लगे कि...

    शुभ संकेत दे इन्द्र देवता प्रसन्न हो गया

    जैनेश्वरी दीक्षा में वर्षा कर

    वह भी सम्मिलित हो गया...।

    उद्बोधन में कहा श्री ज्ञानसागर गुरू ने

    जलवृष्टि कर तपन मिटा दी ज्यों इन्द्र ने,

    यह साधक भी वर्षा करके धर्मामृत की

    करेगा तपन शांत जन-जन की।''

     

    ज्यों ही दिया नाम

    आज से हो गये ये विद्याधर' से 'विद्यासागर

    ‘विद्यासागर' - ‘विद्यासागर...'

    दिव्यघोष से गूंज उठी धर्म-पर्षदा

    जय ध्वनियाँ मँडराने लगी क्षितिज में ।

    अपार जनमेदनी एकटक देखती रह गई

    देखते ही देखते... सदलगा की माटी चंदन बन गई।

     

    जब प्रदान की गुरु ने हाथ में

    संयमोपकरण मयूर पिच्छिका

    उस वक्त की अनुभूति का क्या कहना...!!

    ‘सीधा स्पर्श किया सप्तम गुणस्थान

    भीतर में ज्ञान की ज्ञान से हुई मुलाकात

    अप्रमत्त आत्मा की स्वात्मा से हुई बात,

    गौण हो गया बाह्य दृश्य

    शेष रह गया मात्र दृष्टा,

    था जो अदृश्य ।

    पर ज्ञेय हो गये गौण निज ज्ञाता में हो गये मौन।

     

    संयोग-वियोग से परे

    उपयोग का उपयोग से मिलन हो

    ज्ञान का सदुपयोग हो गया

    अहा! अनंत कालोपरांत

    अपूर्व आनंद पा लिया!

     

    बाहर में ज्ञान का विद्यासागर से

    और विद्या का ज्ञानसागर से

    चरम को पाने परम मिलन हो गया

    ज्ञान और विद्या दोनों हैं एक

    जगत को आज यह विदित हो गया,

    ज्ञान का संस्कार विद्या में

    और विद्या का समर्पण ज्ञान में

    एकाकार-सा हो गया

    लगा मानो

    गुरू-शिष्य का नया संसार बस गया,

    किंतु यह मुक्ति का आधार बन गया।

     

    मूंद कर चर्मचक्षु

    खोलकर ज्ञानचक्षु

    आत्मा में छिपे परमात्मा को

    रत्नत्रय के दिव्य प्रकाश में

    निरखा है पहली बार

    बंदकर पापासव द्वार

    खोलकर निर्जरा द्वार

    दूर कर विकार

    हो गए निर्विकार...

    अंतर्मुहुर्त बीत गया

    आत्मलाभ का शुभ मुहूर्त आ गया।

    गुरू से अनुपम सौगात पा गया...।

     

    व्याकरण में यदि महिमा है पूर्ण विराम की ।

    तो जीवन में भी महिमा है निज में विश्राम की

    स्वीकार कर शिष्य का समर्पण

    गुरु ने दे दिया दीक्षा का प्रमाण,

    योग्य पात्र को सुयोग्य दाता ने

    दिया संयम का दान...

    तभी हाथ में ले पिच्छी

    शिष्य ने गुरुपद में किया नमन

    और गुरू के साथ किया

    शिवपथ की ओर मंगल गमन।


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