जिन्होंने ज्ञान-रसायन किया तैयार
बरसों की साधना से
पिलाने को सत्पात्र मिल ही गया
ज्ञान-दान का करके अति श्रम
श्रमण नाम सार्थक कर लिया।
चाहे दिन हो या रात
शिष्य तो बस गटागट पीता ही गया,
तत्त्व ज्ञानामृत पीकर
एक ने पिलाया अनेकों को
भेदज्ञान का आहार लेकर
एक ने खिलाया अनेकों को।
अजमेर नगर में हुआ वाचन
समयसार पर गहन प्रवचन
श्रोतागण भाव विभोर हो
ग्रंथ श्रवण करते,
किंतु गुरु-शिष्य संगम देख
प्रत्यक्ष समयसार पढ़ लेते।
सीखा गुरु से
तर्क छोड़ना है, सतर्क रहना है।
साधना अवश्य सफल होगी,
विकल्प तजना है, संकल्प करना है।
मंज़िल अवश्य मिलेगी।
पिता-पुत्र की भाँति
गुरू व शिष्य
बैठे आपस में चर्चा करने
कि अचानक पूछा एक प्रौढ़ ने
मुनिवर! दीक्षा कब ली आपने?
अकस्मात् प्रश्न पूछने से
समझ नहीं पाये
किसके लिए पूछा जा रहा है?
तत्क्षण सजग हो
अपनी प्रज्ञा से
द्वि अर्थी बोध कराते हुए बोले बड़े गुरु
अभी-अभी।''
नासमझी से पूछ लिया फिर
महाराज! चिर दीक्षित हैं आप तो
फिर कैसे अभी-अभी?
जानना चाहता हूँ सही-सही।"
लो सुनो! सुनाता हूँ अंतर की बात
अभी-अभी करके प्रतिक्रमण
अंदर से आया हूँ बाहर
दोषों की कर आलोचना
निर्दोष त्याग-भावना
यही तो कहलाती है दीक्षा'।
सुन तर्क युक्त उत्तर
श्रावक संग शिष्य भी
मुदित हो गये,
सबको निरूत्तर करने वाला
उत्तर सुन पुलकित हो गये।
अंकुरित होने भूमि नरम होनी चाहिए।
तो ज्ञानार्जन के लिए।
मन की धरती कोमल होनी चाहिए
इसे भली भाँति जानते थे शिष्य मुनिवर।