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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 58

       (0 reviews)

    दो दिन से नींद नदारद थी।

    फिर भी तन में तनिक भी

    न थकावट थी,

    नींद आती भी तो कैसे

    गंतव्य के पहले...

    चेतन में चाहत थी सद्गुरु की

    भूखा-प्यासा देह होने पर भी

    ज्ञानामृत का भोजन

    और  

    तत्त्वज्ञान का अमृतपान

    भीतर में चल रहा था...।

     

    ‘चकोर' की भाँति ताक रहे

    ‘अजमेर' अब आने ही वाला था

    लो !

    ऐतिहासिक नगर आ ही गया...

     

    पहुँचे देवालय

    कर दर्शन प्रभु के

    पूछा श्रावक से

    कहाँ हैं महामूनिवजी?

    बोले- पता नहीं मुझे

    पूछो... ये हैं 'कजौड़ीमलजी

     

    घूरकर देखते हुए मारवाड़ी भाषा में

    आयी आवाज़ भर्रायी सी

    कूण है रे थें कठे सू आयो?

    " भाषा तो नहीं,

    किंतु समझ गये भाव

    हुई निःसृत मृदुवाणी...

    जी, मैं विद्याधर ब्रह्मचारी,

    आया हूँ दक्षिण से

    सदलगा कर्नाटक से...

    अभी तक था

    आचार्य देशभूषणजी के संघ में,

    यहाँ ज्ञानार्जन हेतु आया हूँ।

    ज्ञान के भंडार मुनि ज्ञानसागरजी की शरण में।

    पर वे अठे कोनी

    मदनगंज किशनगढ़ में हैं...

    सुनकर कजौड़ीमलजी से कहने लगे

    क्या आप कर सकते हैं मेरा मार्गदर्शन?

    शीघ्र ही मैं करना चाहता हूँ उनका दर्शन।

    हाथ पकड़ कजोड़ीमलजी रोकने लगे

    खायो-पीयो कोनी कठे चाल्यो

    चाल अंदर न्हाले-धोले पूजा कर ले ।

     

    पाछे आय खा-पी के जाजे,

    किंतु पहले मैं गुरु-दर्शन चाहता हूँ।

     

    यूँ कजोड़ीमल ने जाणे कोनी

    या मुनियों से भक्त ही नहीं।

    मुनि भक्ता रो भी भक्त है।

    मैं थारे साणे चालसूँ

    दर्शन करा देहूँ आगे थारो भाग...।

     

    कजौड़ीमल ने देखा- अरे! यह तो

    मारवाड़ी अच्छे से समझता नहीं

    कन्नड़ भाषी है यह

    हिन्दी भी ठीक से आती नहीं,

    तब बोले

    मैं तुम्हें लेकर चलूंगा

    यदि उन्होंने शिष्य रूप में स्वीकार लिया

    तो तुम्हारा भाग्य खुल जायेगा।

     

    दैनिक चर्या से निवृत्त हो ।

    पहुँच गये मदनगंज किशनगढ़

    मंदिर के समीपवर्ती कक्ष में ।

    विराजे हैं ‘मुनि ज्ञानसागरजी'

    ज्ञान संयम की आराधना में रत,

    अद्भुत मुखाकृति देख उनकी

    हृदय में हुआ अपूर्व स्पंदन,

    ज्यों ही कक्ष में प्रवेश किया

    त्रियोग से चरणों में किया वंदन।

    अनुरोध किया कजौड़ीमलजी ने

    यह युवक आया है सुदूर दक्षिण भारत से

     

    आपके पास ज्ञान पाने की आशा ले।

    ज्ञान से गहराती, डूबी-सी आँखों से देख

    भावी शिष्य से बोले

    सहज मीठी वाणी से

    ऐसे तो आते-जाते रहते हैं अनेक।

     

    सुनते ही अंधेरा छा गया...

    जो लक्ष्य लेकर आया था

    वह मात्र दिव्य सपना-सा रह गया,

    पुनः साहस जुटाकर बोले नम्रता से

     

    हे गुरूवर! मैं आपकी शरण में रहकर

    करना चाहता हूँ ज्ञानार्जन!!

    मैंने गृह त्याग कर ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है।

    यदि नहीं मिला इन चरणों का सामीप्य,

    तो निरर्थक होगा यह जीवन।

    मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ

    केवल आप ही की शरणागत हूँ।

    अनंत कृपा होगी मुझ पर

    दीजिए ज्ञान-संजीवन।'

     

    प्रश्न भरी दृष्टि से देख युवक को बोले

    नाम क्या है तुम्हारा...?

    जी विद्याधर।

    होठों पर मधुर हास्य लिए बोले

    क्या भरोसा विद्याधर का...?

    मायावी होते हैं विद्याधर,

    घूमते रहते इधर-उधर विद्या लेकर

    एक स्थान पर रुकना नियति नहीं उनकी

    ऐसे ही ज्ञान प्राप्त कर उड़ गये तो?

     

    सुनते ही तत्क्षण

    मस्तक रख चरणों में

    आश्वस्त करने ज्ञानी गुरू को

    बोले

    मैं उड़ने नहीं, स्थिर होने आया हूँ।

    सिर्फ पढ़ने नहीं, निज में रमने आया हैं।

    मेरी बात पर करियेगा विश्वास

    लो संकल्प लेता हूँ

    आज से ही आजीवन सवारी का त्याग

    जितना भी चलूंगा

    आपश्री की आज्ञा में चलूंगा

    चरणानुगामी बनूंगा...।'

     

    विस्मित हो विद्याधर पर दृष्टि गड़ाई

    आँखों में झाँककर मुखाकृति पढ़ ली...

    विलक्षण संकल्प शक्ति है!!

    ऐसे जीवों की निकट मुक्ति है।

     

    गुरु के मनोविनोद पर...

    महानतम त्याग का गुण

    गुरु के मन को भा गया,

    आगे मेरे संकेतानुसार

    बहुत कुछ कर सकता है।

    यह विश्वास हो गया;

     

    ‘ओम्' कहकर आश्वासन दे दिया

    शिष्य का शीश गुरुपद में झुक गया,

    हाथ रख दिया गुरु ने शीश पर...

    पद-रज ले गुरु की

    हो गये निहाल विद्याधर।

     

    स्वतः गुरू-मुख से निःसृत हुए तब वचन

    यदि ऐसी ही पिपासा रही ज्ञान की

    तो बन जाओगे शीघ्र

    विद्याधर से विद्यासागर।"

    सिर झुकाकर

    सर्वस्व अर्पण कर

    व्रती विद्याधर ने भी

    चेतन को विकल्पों से

    कर दिया निर्विकल्प।

     

    ज्यों हाथों में लिए थैली के भार को

    आते ही घर में टाँग देता बँटी पर

    त्यों शांत मन हो समर्पण कक्ष में जा

    प्रभु और गुरु-भक्ति की

    दो कीलों पर

    लटका कर सारा भार

    हो गये निश्चित निर्भार

    गुरू-शरण पा हुए आश्वस्त...।


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