अथक परिश्रम करके
विद्यार्जन किया बनारस में
सरस्वती के वरद पुत्र श्री ज्ञानसिंधु ने
अपने सत्पाण्डित्य से
जयोदय, दयोदयादि संस्कृत ग्रंथ रचकर
और भी अनेक ग्रंथ लिखकर
अद्वितीय साहित्य का सृजन किया,
बड़े-बड़े विद्वानों ने
उनके सद्ज्ञान को नमन किया;
‘आचार्य श्रीशिवसागरजी' से
जयपुर में मुनिव्रत धर प्रथम शिष्य बनकर
धर्मध्वजा को फहराया।
अपने व्रतों के प्रति दृढ़ता
भव्य पिपासु जनों के प्रति मृदुता
नवनीत वत् हृदय
दूसरों के दुख में तत्काल बह जाती करुणा
मारवाड़ में रहकर ही
की अपार धर्म प्रभावना,
सरस प्रवचन शैली
सुनकर जग जाती सुषुप्त चेतना
मिट जाती दुष्कर्मों की वेदना,
जीवन साधारण, ज्ञान असाधारण
बाल ब्रह्मचारी, गहन चिंतन-मनन
सरल स्वभावी, रचनात्मकता
निस्पृहवृत्ति, आध्यात्मिकता।
देख शिष्य की चर्या
गुरू के गुणों का अनुमान
किया जा सकता है,
शिष्य श्री विद्यासागरजी को देख
गुरु श्री ज्ञानसागरजी को जाना जा सकता है।